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Last Updated : गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022 (16:10 IST)

क्‍या है NATO, कौन-कौन से देश हैं शामिल और कैसे करता है काम?

क्‍या है NATO, कौन-कौन से देश हैं शामिल और कैसे करता है काम? - Partnership for Peace, NATO, Ukraine, Western military alliance
यूक्रेन पर रूस के हमले के दौरान NATO की चर्चा हो रही है। रूस ने यूक्रेन पर हमला किया ही इसलिए है कि वो नहीं चाहता था कि यूक्रेन NATO का सदस्‍य बने। जबकि यूक्रेन की कोशि‍श थी कि वो NATO का सदस्‍य बने।

ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखि‍र ये NATO नाम की संस्‍था आखि‍र क्‍या है, कौन कौन से देश इसमें शामिल हैं और यह कैसे काम करता है। आइए जानते हैं।

कहा गया था कि यूक्रेन (Ukraine) में रूस के हमले की आशंका के चलते NATO  देशों ने भी अपनी सेनाएं तैयार कर रखी हैं। लेकिन फि‍लहाल हालात यह है कि यूक्रेन अकेला ही रूस का हमला झेल रहा है। इसलिए सोशल मीडि‍या में भी नाटो की आलोचना हो रही है।

NATO के Western military alliance के सेक्रेटरी जनरल जेन्स स्टोलटेनबर्ग ने एक बयान ज़ारी कर कहा था कि NATO वे सारे क़दम उठाएगा जो भी मित्र देशों की रक्षा के लिए आवश्यक होंगे। लेकिन फि‍लहाल ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है।

जानिए क्या है NATO और ये कैसे काम करता है?

क्या है NATO?
इसका फुल फॉर्म है North Atlantic Treaty Organization. 1949 में इसका गठन अमेरिका, कनाडा और कई पश्चिमी देशों ने मिलकर किया था। इस वक़्त NATO में कुल 30 देश हैं।

सोवियत यूनियन के ख़िलाफ़ हुआ था NATO का गठन
NATO का गठन अमेरिका, कनाडा, 27 यूरोपीय देश और एक यूरेशियाई देश ने मिलकर सोवियत संघ के खिलाफ मज़बूत मोर्चा तैयार करने की नीयत से किया था।

बाल्कन देश Bosnia and  Herzegovina, यूरेशियाई देश जॉर्जिया और यूक्रेन (Ukraine)  को NATO के सम्भावि‍त सदस्यों के तौर पर देखा जा रहा है। इसके साथ ही बीस और देश भी NATO के  Partnership for Peace प्रोग्राम में शामिल होते हैं। इसका मुख्यालय बेल्ज़ियम के ब्रसेल्स शहर में है।

NATO की क्यों ज़रूरत पड़ी
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय देश अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने में लगे हुए थे। यह ज़रूरी था कि वे अपनी सुरक्षा व्यवस्था भी सुधारें। इसके लिए ज़रूरी था कि युद्ध से बेहाल इन देशों को अच्छी मदद मिले। इसी बीच उन्हें अपने आप को सोवियत संघ से भी सुरक्षित करना था, जिसकी शक्ति लगातार बढ़ रही थी।  अमेरिका की नज़र में सोवियत यूनियन के बढ़ते कम्युनिस्ट प्रभाव को रोकने का एक ही तरीका था और वह था यूरोपीय देशों का मज़बूत होना।

ग्रीस और टर्की में चल रहे सिविल वॉर के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति (US President) हैरी एस ट्रूमैन ने कहा कि अमेरिका दोनों देशों को आर्थिक और सामरिक मदद मुहैया करवाएगा। साथ ही जिस भी अन्य देश को मदद की ज़रूरत होगी, वह उपलब्ध रहेगा। उस वक़्त अमेरिका का ध्यान इटली की ओर भी था जहां चुनाव होने वाले थे और कम्युनिस्ट पार्टी जहां अपने उठान पर थी। उसी वक़्त पूर्वी जर्मनी पर सोवियत कब्ज़ा भी था। सोवियत यूनियन के नेता स्टालिन ने पश्चिमी बर्लिन के सामने दीवार खड़ी कर दी थी। बर्लिन संकट ने अमेरिका को बाध्य किया कि वह पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दे। NATO की ज़रूरत इसी आधार पर पड़ी थी।