मंगलवार, 17 दिसंबर 2024
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ईरान की संतान है हिज्बुल्लाह, कौन हैं अल-महदी जिनका शियाओं को है इंतजार

ईरान की संतान है हिज्बुल्लाह, कौन हैं अल-महदी जिनका शियाओं को है इंतजार - Hisbollah is Irans Child
Israel Lebanon War: हिज्बुल्लाह, जिसे हिज़्बोल्लाह (Hezbollah) भी कहा जाता है, अरबी भाषा के दो शब्दों 'हिज़्ब' यानी पार्टी और 'अल्लाह' यानी ईश्वर के मेल से बना है। लेबनानी हिज़्बुल्लाह एक इस्लामवादी शिया पंथी राजनीतिक पार्टी भी है और किसी देश की सरकारी सेना जैसी एक ग़ैर-सरकारी सेना, यानी ऐसी मिलिशिया भी है, जो मुख्य रूप से ईरान द्वारा समर्थित है। 
 
पिछले वर्ष 7 अक्टूबर को गाज़ा पट्टी के फिलिस्तीनी उग्रवादी संगठन हमास द्वारा इजराइल में घुसकर भारी मारकाट और अपहरण कांड के बाद, लेबनानी हिज़्बुल्लाह ने भी इसराइल के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। उत्तरी इसराइल के कई हज़ार निवासियों को अपने घर-द्वार छोड़कर भागना पड़ा। हिज़्बुल्लाह वास्तव में 55 लाख की जनसंख्या वाले लेबनान की सरकारी सेना से भी अधिक शक्तिशाली एक समानान्तर सेना भी है और एक राजनीतिक पार्टी भी। पिछले 27 सितंबर को, एक इजराइली हवाई हमले का शिकार बने हिज्बुल्लाह के सर्वेसर्वा हसन नसरल्लाह का साफ़-साफ़ कहना था कि उन्हें अपने पड़ोस में 'एक यहूदी देश का अस्तित्व कतई स्वीकार्य नहीं है।'
 
जर्मनी में स्थित 'विज्ञान और राजनीति प्रतिष्ठान' के इस्लाम-ज्ञाता गीडो श्टाइनबेर्ग ने मीडिया के साथ एक बातचीत में इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला कि इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच अन्तहीन कट्टर कटुता के पीछे कारण क्या हैं और इस कटुता का कोई अंत क्यों नहीं दिखता। ALSO READ: Petrol-Diesel Prices: ईरान-इजराइल युद्ध से ईंधन के दामों में लगी आग, क्रूड ऑइल के भाव बढ़ने लगे
 
कट्टर कटुता के कारण : श्टाइनबेर्ग का कहना है कि हिज्बुल्लाह के लिए अपना मज़हब सर्वोपरि है। अपने संगठन को वह अकारण ही एक इस्लामी संगठन नहीं कहता। वह एक राजनितिक पार्टी भी है और मज़हबी संगठन भी है, क्योंकि वह इस्लामवादी भी है। उसका राजनीतिक अभिप्रेत, इस्लाम की उसकी व्याख्या और उसके हठधर्मी व्यवहार में हम हर जगह देख सकते हैं। वह एक ऐसा इस्लामी शिया पंथी है, जिसने ईरान में हुई 1979 की इस्लामी क्रांति के नेता रहे अयातोल्ला ख़ोमैनी की कट्टर विचारधारा अपना रखी है। ईरान की तरह हिज्बुल्लाह भी शिया पंथी तो है, पर शिया पंथी इस्लाम की एक ऐसी धारा का अनुगामी है, जो बहुत पुरानी नहीं है।
 
गीडो श्टाइनबेर्ग के अनुसार, अयातोल्ला ख़ोमैनी के शिया पंथ वाले इस्लाम की व्याख्या कहती है कि शियाओं को तब तक धैर्यपूर्वक इंतज़ार करना चाहिए, जब तक इमाम अल-महदी वापस नहीं आ जाते। अल-महदी, शियाओं के लिए एक मसीहा के, एक उद्धारक के समान हैं। शियाओं का मानना है कि वे किसी अज्ञातवास में रहते हैं और दुनिया के अंत से ठीक पहले वापस आएंगे। हिज्बुल्लाह वाले मानते हैं कि अल-महदी के आने तक के प्रतीक्षाकाल में खोमैनी और उनकी मृत्यु के बाद उनके वर्तमान उत्तराधिकारी अयातोल्ला ख़ोमैनी जैसे परमज्ञानी धर्माधिकारी ही राज करेंगे। ALSO READ: महायुद्ध की ओर मिडिल ईस्ट, इजराइल के सपोर्ट में अमेरिका, ईरानी मिसाइलों को हवा में नष्ट किया
 
हिज्बुल्लाह की विचारधारा का मूलमंत्र : ईरान में 1979 में हुई रक्तरंजित इस्लामी क्रांति के नेता रहे अयातोल्ला ख़ोमैनी को ऐसा ही परमज्ञानी धर्माधिकारी माना जाता है। उनके वर्तमान उत्तराधिकारी अयातोल्ला ख़मेनेई को भी यही सम्मान दिया जाता है। इसीलिए हिज्बुल्लाह के सूत्रधार भी और समर्थक भी, शियाओं के इन दोनों कथित आध्यात्मिक और राजनीतिक मार्गदर्शकों की बातों का हर शक-संकोच बिना शत प्रतिशत अनुपालन करते हैं। हिज्बुल्लाह की राजनीतिक-मज़हबी विचारधारा का यही मूलमंत्र है। 
श्टाइनबेर्ग का कहना है कि इसीलिए, हमें हर बार साफ-साफ समझने की ज़रूरत है कि हिज्बुल्लाह एक ऐसा संगठन है, जो हमेशा इस्लामी गणराज्य ईरान और उसके सर्वोच्च धर्माधिकारी ख़मेनेई को ही अपना मार्गदर्शक मानेगा। उन्हीं के बताए रास्ते पर चलेगा। 
 
हिज्बुल्लाह वालों की नज़र में यहूदी 'दुनिया के सबसे बड़े षड़यंत्रकारी हैं, बंदरों और सूअरों की औलादें हैं।' उनका कहना है कि कुरान में यही लिखा है। यहूदियों के बारे में हिज्बुल्लाह की यह सोच, गीडो श्टाइनबेर्ग के अनुसार, आनुवंशिकी के DNA की तरह उनके मन में कूट-कूट कर भरी हुई है। हिज्बुल्लाह की स्थापना, ईरान की भरपूर सहायता और सहयोग से 1982 में हुई थी। उस समय कहा गया था कि हिज्बुल्लाह ही उन सभी शियाओं का प्रतिनिधित्व करेगा, जो दक्षिणी लेबनान में रहते हैं। इससे पहले ईरान और अयातोल्ला ख़ोमैनी दक्षिणी लेबनान के शियाओं के प्रतिनिधि हुआ करते थे।
 
यहूदियों से घृणा विरासत में मिली है : श्टाइनबेर्ग, यहूदियों के प्रति हिज्बुल्लाह की अपार घृणा के कई कारण बताते हैं। एक कारण तो वही है, जो सभी इस्लामी समुदायों में पाया जाता है। यहूदियों से घृणा वे इसलिए करते हैं, क्योंकि कुरान में और कई अन्य स्रोतों में यहूदियों को बुरा बताया गया है। हिज्बुल्लाह के प्रसंग में, वामपंक्षी-राष्ट्रवाद जैसी एक साम्राज्यवाद-विरोध सोच भी इस घृणा में घुल-मिल जाती है, जिसे हिज्बुल्लाह ने ईरान के अयातोल्ला ख़ोमैनी और ख़मेनेई से विरासत में पाया है।
 
घृणा का एक दूसरा कारण यह भी है कि 1982 में हिज्बुल्लाह की स्थापना अनायास ही नहीं हुई थी, बल्कि इजराइल से लड़ने के लिए ही हुई थी। उस समय इजराइली सेना लेबनान में घुस गई थी और उसने वहां के ऐसे हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर लिया था, जहां शिया मुसलमान रहते थे। हिज्बुल्लाह का तभी से दावा है कि वह एक प्रतिरोध आन्दोलन भी है। लेकिन, सच्चाई यह भी है कि उसकी मत्वाकांक्षा बहुत आगे बढ़ चुकी है; वह इजराइल को तहस-नहस कर डालना चाहता है। इजराइल और यहूदियों के प्रति अपार घृणा से भर गया है। उसका तथाकथित 'प्रतिरोध' तब भी चलता रहा, जब इजराइली सन 2000 में लेबनान से हट गए थे। 
 
निष्कर्ष : गीडो श्टाइनबेर्ग का निष्कर्ष है कि कहने को तो हिज्बुल्लाह भी कहता है कि उसे यहूदियों को लेकर कोई समस्या नहीं है, लेकिन सच्चाई यह है कि उसे समस्या केवल तब नहीं होगी, जब यहूदी उसकी गुलामी स्वीकार कर लेंगे और कहीं भी अपनी सत्ता या सरकार की मांग नहीं करेंगे। जब तक ऐसा नहीं होगा, और ऐसा होगा भी नहीं, यहूदी तब तक हिज्बुल्लाह की आंख का कांटा बने रहेंगे। 
 
श्टाइनबेर्ग के शब्दों में, हिज्बुल्लाह अपने आप को एक ऐसा सैन्य संगठन बताता है, जिसके निशाने पर इजराइल देश है। लेकिन, मन ही मन वह उन सभी यहूदियों का सफ़ाया कर देना चाहता है, जो हिज्बुल्लाह की इस्लामी सरकार के आगे बिछ नहीं जाएंगे। यह जानने के लिए कि हिज्बुल्लाह के राज में जीवन कैसा होगा, ईरान पर एक नज़र डालना काफ़ी है। वहां के यहूदियों का जीवन इतना दूभर हो गया कि उन्हें ईरान से भागना और इसराइल, यूरोप या अमेरिका में जा कर शरण लेना पड़ा।
   
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