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आइनश्टाइन की वह गलती जिसका उन्हें हमेशा मलाल रहा

Albert Einstein
आइनश्टाइन का वैज्ञानिक ही नहीं, मानवीय पक्ष भी रंगीला है (भाग 2)
 
Albert Einstein story: आइनश्टाइन की जीवन यात्रा के पहले भाग में उनके बचपन, युवाकाल और वैज्ञानिक उपलब्धियों का परिचय पाने के बाद अब उनके जीवन का वह पक्ष, जो उनके राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय संबंधों पर प्रकाश डालता है... 
                 
'ब्रह्मसूत्र' की ख़ोज : 'समग्र क्षेत्र सिद्धांत' वाला 'ब्रह्मसूत्र' ख़ोजने का काम अल्बर्ट आइनश्टाइन ने वास्तव में 1930 में बर्लिन में ही शुरू कर दिया था। उस समय उन्होंने इस बारे में आठ पृष्ठों का एक लेख भी लिखा था, जिसे कभी प्रकाशित नहीं किया। इस लेख के सात पृष्ठ मिल चुके थे, एक पृष्ठ नहीं मिल रहा था। उनके जन्म की 140वीं वर्षगांठ से कुछ ही दिन पहले यह खोया हुआ पृष्ठ भी मिल गया।
 
इसराइल में येरूसलेम के हीब्रू विश्वविद्यालय ने मार्च 2019 में बताया कि उसने आइनश्टाइन से संबंधित दस्तावेज़ों का एक संग्रह हाल ही में ख़रीदा है। 'समग्र क्षेत्र सिद्धांत' वाले उनके लेख का खोया हुआ पृष्ठ इसी संग्रह में मिला है। लेख में उन्होंने हस्तलिखित समीकरणों ओर रेखाचित्रों का खूब प्रयोग किया है। शब्द बहुत कम हैं, गणित के सूत्रों और समीकरणों की भरमार है।
Einstein
इस संग्रह में 110 पृष्ठों के बराबर सामग्री है। 1935 में पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम लिखा एक पत्र भी है। इस पत्र में आइनश्टाइन ने जर्मनी में हिटलर की नाज़ी पार्टी के शासन को लेकर अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं। एक दूसरा पत्र भी है, जो उन्होंने स्विट्ज़रलैंड में रहने वाले अपने एक इतालवी इंजीनियर-मित्र को लिखा था। 
 
पुत्र के नाम पत्र : पुत्र हांस अल्बर्ट के नाम पत्र में आइनश्टाइन ने जर्मन भाषा में लिखा थाः 'प्रिन्स्टन,11 जनवरी 1935। मैं गणित रूपी राक्षस के पंजे में इस बुरी तरह जकड़ा हुआ हूं कि किसी को निजी चिट्ठी लिख ही नहीं पाता। मैं ठीक हूं, दीन-दुनिया से विमुख हो कर काम में व्यस्त रहता हूं। निकट भविष्य में मैं यूरोप जाने की नही सोच रहा, क्योंकि मैं वहां हो सकने वाली परेशानियों को झेलने के सक्षम नहीं हूं। वैसे भी, एक बूढ़ा बालक होने के नाते मुझे सबसे परे रहने का अधिकार भी तो है ही।'
 
अल्बर्ट आइनश्टाइन अपने समय में संसार के सबसे प्रतिष्ठित और प्रशंसित यहूदी थे, पर किसी ऊंचे पद के भूखे कभी नहीं थे। 1952 में इसराइल के राष्ट्रपति ख़ाइम वाइत्समान की मृत्यु के बाद उनके सामने इसराइल का राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव रखा गया था। उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके बदले अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा कि पत्रों, लेखों, पांडुलिपियों इत्यादि के रूप में उनकी सारी दस्तावेज़ी विरासतों की नकलें (मूल प्रतियां नहीं) येरुसलेम के हीब्रू विश्वविद्यालय को मिलनी चाहिए। इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि अमेरिका पहुंचने के बाद जर्मनी में रह गए अपने संबंधियों और परिजनों को वे न केवल पत्र लिखा करते थे, उन्हें उस समय के यहूदी विरोधी जर्मनी से बाहर निकलने में सहायता देने का भी प्रयास करते थे।
  
बहन के नाम पत्र : हिटलर के सत्ता में आने से दस साल पहले ही आइनश्टाइन ने भांप लिया था जर्मनी अपने यहूदियों के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन सकता है। अपनी बहन माया के नाम 1922 में लिखे उनके ऐसे ही एक पत्र की जब नीलामी हुई, तो वह 30 हज़ार यूरो में बिका। इस पत्र में एक जगह उन्होंने लिखा है, 'यहूदियों से घृणा करने वाले अपने जर्मन सहकर्मियों के बीच मैं तो ठीक-ठाक ही हूं। यहां बाहर कोई नहीं जानता कि मैं कौन हूं।' आइनश्टाइन ने यह पत्र संभवतः जर्मनी के ही कील नगर से लिखा था।
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उन दिनों वे बर्लिन के सम्राट विलहेल्म संस्थान में भौतिकशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे। उनके पत्र से यही पता चलता है कि प्रोफ़ेसरों जैसे अति उच्च शिक्षा प्राप्त जर्मन भी, हिटलर के आने से पहले ही, यहूदियों से कितनी घृणा करने लगे थे। उनके प्रयासों से उनकी बहन माया भी 1939 में प्रिन्स्टन पहुंच गईं, पर नाज़ियों ने माया के पति को नहीं जाने दिया। माया 1951 में अपनी मृत्यु तक आइनश्टाइन के साथ रह रही थीँ।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पत्र : द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने से कुछ ही दिन पहले, अगस्त 1939 में, अमेरिका में रह रहे हंगेरियाई परमाणु वैज्ञानिक लेओ ज़िलार्द के कहने में आकर, आइनश्टाइन ने अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन रूज़वेल्ट के नाम ज़िलार्द के लिखे एक पत्र पर अपने भी हस्ताक्षर कर दिए थे। पत्र में कहा गया था कि नाज़ी जर्मनी एक 'नए प्रकार का बम' बना रहा है, जो बहुत ही विनाशकारी है। उन दिनों गुप्तर सूचनाएं भी कुछ इसी प्रकार की थीं। इसलिए अमेरिकी परमाणु बम बनाने की 'मैनहटन परियोजना' को हरी झंडी दिखा दी गई। लेकिन, अमेरिका के पहले दोनों बम 6 और 9 अगस्त 1945 को जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरे, तब आइनश्टाइन को बहुत पश्चाताप हुआ। 
 
अपने एक पुराने मित्र लाइनस पॉलिंग के नाम, 16 नवंबर 1954 के अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा, ''मैं अपने जीवन में तब एक बड़ी ग़लती कर बैठा, जब मैंने राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को परमाणु बम बनाने की सलाह देने वाले पत्र पर अपने हस्ताक्षर कर दिए, हालांकि इसके पीछे यह औचित्य भी था कि जर्मन एक न एक दिन उसे बना ही लेते।'
 
निरस्त्रीकरण का आह्वान : इसी कारण अपने अंतिम दिनों में आइनश्टाइन ने 10 अन्य बहुत प्रसिद्ध वैज्ञैनिकों के साथ मिलकर, 11 अप्रैल 1955 को, 'रसेल-आइनश्टाइन मेनीफ़ेस्टो' कहलाने वाले एक आह्वान पर हस्ताक्षर किए, जिसमें मानव जाति को निरस्त्रीकरण के प्रति संवेदनशील बनाने का आग्रह किया गया था। दो ही दिन बाद, जब वे इसराइल के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में एक भाषण लिख रहे थे, उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया।
 
15 अ़प्रैल, 1955 को उन्हें प्रिन्सटन के अस्पताल में भर्ती किया गया। 18 अप्रैल को 76 वर्ष की अवस्था में वे दुनिया से चल बसे। महाधमनी (अओर्ट) के पास की एक नाड़ी के फट जाने से शरीर के भीतर रक्तस्राव उनके देहांत का कारण बना। शव परीक्षक डॉक्टर ने उनकी आंखों और मस्तिष्क को यह जानने के लिए अंत्येष्टि से पहले ही निकाल लिया कि उनके मस्तिष्क की बनावट में उनकी असाधारण प्रतिभा का ज़रूर कोई रहस्य छिपा है। उनके परिजनों ने इस प्रयोग की अनुमति दे दी थी। पर ऐसी कोई असाधारण संरचना उनके मस्तिष्क में नहीं मिली। मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा शिकागो के 'नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ हेल्थ ऐन्ड मेडिसिन' (राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवंम चिकित्सा संग्राहलय) में आज भी देखा जा सकता है।
 
भारत से रिश्ता : अल्बर्ट आइनश्टाइन महात्मा गांधी के बहुत बड़े प्रशंसक थे और भारत के भौतिकशास्त्री सत्येन्द्रनाथ बोस के संपर्क में थे। 1924 में उन्होंने सत्येन्द्रनाथ बोस के सहयोग से 'बोस-आइनश्टाइन कन्डेन्सेशन' नाम की पदार्थ की एक ऐसी अवस्था होने की भी भविष्यवाणी की थी, जो परमशून्य (–273.15 डिग्री सेल्सियस) तापमान के निकट देखी जा सकती है। यह भविष्यवाणी, जो मूलतः सत्येन्द्रनाथ बोस के दिमाग़ की उपज थी और उन्होंने उसके बारे में अपना एक पत्र आइनश्टाइन को भेजा था, 1955 में पहली बार प्रयोगशाला में सही सिद्ध की जा सकी। उसके बारे में बोस के लिखे लेख की पांडुलिपि बेल्जियम के लाइडन विश्वविद्यालय में मिली है।
 
स्विट्ज़रलैंड में ज्यूरिच के पास परमाणु के मूलकणों के त्वरण के लिए बनी 'लार्ज हैड्रन कोलाइडर' (LHC) नाम की तथाकथित 'महा-मशीन' की सहायता से 'हिग्स-बोसोन' नाम के जिस 'ब्रह्मकण' की 4 जुलाई 2012 को खोज हुई है, उसमें 'बोसन' नाम सत्येन्द्रनाथ बोस को ही समर्पित है। वे यदि 2013 तक जीवित रहे होते, तो उस साल ब्रिटेन के पीटर हिग्स के साथ उन्हें भी भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला होता।
 
आइनश्टाइन की अमेरिका सहित विश्वव्यापी ख्याति के बावजूद, अमेरिकी आंतरिक गुप्तचर सेवा FBI की 22 वर्षों तक उन पर कड़ी नज़र रही। उनके नाम वाली FBI की फ़ाइल 1427 पृष्ठ मोटी है। उनकी जासूसी करने के पीछे कारण था, शांतिवादी और समाजवादी संगठनों के साथ उनकी निकटता। FBI के निदेशक एडगर हूवर एक बार उन्हें अमेरिका आने देने से रोकना चाहते थे; अमेरिकी विदेश मंत्रालय को तब हस्तक्षेप करना पड़ा था। 
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आइनश्टाइन दार्शनिक भी थे : उनकी सूक्तियां बहुत ही सारगर्भित होती थीं। कुछ उदाहरणः
  • यदि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है, तो उसकी मुख्य चिंता निश्चय ही यह नहीं थी कि हम उसे (सृष्टि को) समझ सकें।
  • विज्ञान धर्म के बिना पंगु होता है और धर्म विज्ञान के बिना अंधा।
  • ईश्वर को हमारी गणितीय समस्याओं की चिंता नहीं है। उसका जोड़-घटाना अनुभव-सिद्ध है। 
  • ब्रह्मांड के बारे में सबसे अबूझ बात यह है कि हम उसे बूझ सकते हैं।
  • मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान यह है कि हम एक जीवित ब्रह्मांड में जी रहे हैं।  
  • हम इस तथ्य से कतरा नहीं सकते कि हमारी हर क्रिया का संपूर्ण पर प्रभाव पड़ता है।
  • जो न तो चकित-चमत्कृत होता है और न आदरभाव से नतमस्तक, उसकी आत्मा मर चुकी है।
  • जिनका (ज्ञान) क्षितिज शून्य-अर्धव्यास के बराबर होता है, वे उसे अपना दृष्टिकोण कहते हैं। 
  • मानव-बुद्धि की सबसे बड़ी खोज क्या है? चक्रवृद्धि ब्याज!
  • मेधावी लोग शायद ही कभी नियमबद्ध होते हैं, नियमबद्ध लोग शायद ही कभी मेधावी।
  • शिक्षा वही है, जो बची रह जाए, जब वह सब भूल जाए, जो स्कूल में पढ़ा था।
  • तर्कबुद्धि आप को अ से ब तक पहुंचाती है। कल्पनाशक्ति हर जगह ले जाती है।
  • उसे, जिसके बारे में हमारी सारी गणना ग़लत सिद्ध हो जाती है, हम संयोग कहते हैं।
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि अल्बर्ट आइनश्टाइन एक बहुत ही सज्जन, बुद्धिमान और मेधावी व्यक्ति थे। पर उनका IQ (इन्टेलिजेन्स कोइशन्ट / बुद्धिमत्ता सूचकांक)  कितना था, इसे कोई नहीं जानता। इसे जानने का कोई प्रयास भी नहीं हुआ। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि उनका IQ, 160 के आस-पास रहा होना चाहिए। वे बेशक बहुत ही बुद्धिमान और प्रगतिशील विचारों वाले थे, पर उनके कुछेक व्यवहार उनकी ख्याति से मेल नहीं खाते।
 
पत्नी के पति के प्रति कर्तव्य : अपनी पहली पत्नी मिलेवा को उन्होंने उसके कामों और कर्तव्यों की एक सूची दे रखी थीः 
 
A. तुम ध्यान रखोगी कि
1. मेरे पहनने के और धोने के कपड़े हमेशा ठीक-ठाक रहेंगे।  
2. मैं तीन बार का अपना खाना नियमित रूप से अपने कमरे में लिया करूंगा।
3. मेरा शयनकक्ष और लिखने-पढ़ने का कमरा सुव्यवस्थित रहा करेगा। मेरी मेज़ केवल मेरे 
 उपयोग को लिए होगी। 
 
B. सामाजिक कारणों से जो संबंध हर हाल में अनिवार्य न हों, उनके अलावा मेरे साथ सभी प्रकार
  के निजी रिश्तों से परहेज़ करोगी। ख़ास कर इस बात से परहेज़ करोगी-
 
1. कि मैं तुम्हारे साथ घर पर रहा करूं 
2. तुम्हारे साथ बाहर घूमने-फिरने या किसी यात्रा पर जाऊं
 
C. मेरे साथ अपने रिश्ते में तुम निम्न बातों का पालन करोगी-
 
1. तुम मुझसे किसी अंतरंगता (इन्टिमेसी) की अपेक्षा नहीं रखोगी और न मुझे दोष दोगी।      
2. मुझसे बात करना बंद कर दोगी, जब भी मैं ऐसा कहूंगा। 
3. तुम मेरा शयनकक्ष या लिखने-पढ़ने के कमरे से बिना किसी प्रतिवाद के बाहर चली 
जाओगी, जब भी मैं इसकी मांग करूंगा। 
 
पहली पत्नी के साथ समझौता : अल्बर्ट आइनश्टाइन और उनकी पहली पत्नी मिलेवा की बीच समझौता हुआ था कि यदि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला, तो तलाक़ के बाद वे पुरस्कार का एक निश्चित भाग उसे देंगे। 1922 में उन्हें नोबेल पुरस्कार के साथ 1,21,572 स्वीडिश क्रोनर मिले, जो उस समय 32,250 अमेरिकी डॉलर के बराबर थे। आइनश्टाइन ने इस पैसे को अमेरिका में इस तरह लगाया कि मिलेवा ने उसके ब्याज से ज्यूरिच में अपने और अपने दोनों बेटों के लिए एक घर ख़रीदा। 
 
आइनश्टाइन के दो विवाहों के अलावा उनके दो रहस्यमय प्रेमसंग भी रहे बताए जाते हैं। पहला प्रकरण 1911 के आस-पास का था। उनके सापेक्षता सिद्धांत की उन दिनों इतनी चर्चा थी कि बेल्जियम के तत्कालीन राजा भी उन्हें अक्सर अपने यहां बुलाने लगे। राजा और उनकी पत्नी एलिज़ाबेथ ग्बीरिएल के विवाह को दो ही साल हुए थे।
 
बेल्जियम की रानी के साथ निकटता : रानी एलिज़ाबेथ और राजा के पिता के बीच जमती नहीं थी। रानी को अपने स्वाभिमान की तुष्टि के लिए आइनश्टाइन जैसे किसी बड़े नाम की तलाश थी। जर्मनी में नाज़ीवादी तब तक सत्ता में नहीं थे, पर उनका आतंक बढ़ रहा था। इसलिए आइनश्टाइन को भी बेल्जियम और उसकी राजधानी ब्रसेल्स जाना और वहां कुछ समय बिताना अच्छा लगता था।
 
इस कारण उनके और रानी एलिज़ाबेथ के बीच निकटता संभवतः संदेह की हद तक बढ़ गई। उन्हें बेल्जियम एक नया घर लगने लगा। दोनों का मिलना-जुलना तब संभव नहीं रहा, जब आइनश्टाइन को 1932 में अमेरिका जाना पड़ा और 1933 में हिटलर जर्मनी का शासक बन गया। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने तक, कुछ न कुछ पत्रव्यहार होता रहा। युद्ध के बाद ही दोनों दुबारा मिल सके, लेकिन तब तक बेल्जियम की रानी विधवा हो चुकी थीं। 
 
दूसरा प्रेमप्रसंग 1935 का है। तब आइनश्टाइन अमेरिका में बस गए थे। वहां वे मार्गरिता कोनेनकोवा नाम की एक रूसी महिला से परिचित हुए। कहा जाता है कि दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे। कहा यह भी जाता है कि मार्गरिता एक रूसी जासूस थी। बात कितनी सच है, कहना मुश्किल है।
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