- अफसर अहमद
ताजमहल के बारे में कई तरह के मत पढ़ने को मिलते हैं। यमुना नदी के किनारे सफेद पत्थरों से निर्मित अलौकिक सुंदरता की तस्वीर 'ताजमहल' न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। ताजमहल को दुनिया के सात आश्चर्यों में शामिल किया गया है। हालांकि इस बात को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने बनवाया है या फिर किसी और ने। प्रसिद्ध शोधकर्ता और इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक 'तेजोमहालय उर्फ ताजमहल' में इसे शिव मंदिर घोषित किया है जो विशालकाय महल क्षेत्र में था। लेकिन लेखक अफसर अहमद का एक दृष्टिकोण यह भी है... नीचे पढ़ें...
मुमताज की वसीयत : मृत्युशैया पर लेटी मुमताज से बादशाह शाहजहां ने जो वादे किए थे, उन्हें शब्दश: पूरा किया। उसकी चहेती बेटी जहांआरा बेगम का काफी खयाल रखा गया। घर की सारी चीजें उसकी निगरानी में दे दी गईं। उसकी मां को मिलने वाला सालाना खर्च 6 लाख रुपए के खर्च में 4 लाख रुपए बढ़ाकर जहांआरा को दिए गए। जिसमें आधी रकम नकद व आधी जागीर की शक्ल के रूप में अदा की गई। मुमताज महल के प्रमुख देखभालकर्ता (स्वीवर्ड) को जहांआरा के दीवान का ओहदा दिया गया। सती उन निसा की घर देखभाल की जिम्मेदारी को बरकरार रखा गया। साथ ही मुमताज के पास रही शाही मोहर भी सती उन निसा को दे दी गई।
ताजमहल का निर्माण : इस आलीशान इमारत के इस शान-शौकत से बनने-होने की निम्नलिखित वजहें हैं-
(अ) पहली तो यह कि कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि मुमताज महल ने मौत के वक्त शाहजहां को वसीयत की थी कि मेरे बाद मेरे दफन पर एक ऐसी आलीशान इमारत बने, जो बेमिसाल हो। इसलिए उसी वसीयत का असर था कि शाहजहां ने इसको एक बेहतरीन अंदाज के साथ बनवाया और उसके बनाने में इस कदर मेहनत की।
(ब) दूसरी यह कि शाहजहां को स्वयं ये विचार आया कि मेरी प्यारी बेगम का मकबरा दुनिया में बेमिसाल हो, क्योंकि उसको अपनी बेगम मुमताज महल से हद दर्जे की दिली मुहब्बत थी जिसके इजहार की गर्ज से उसने यह लाजवाब यादगार मकबरा बनवाया ताकि सदियों तक यह नायाब यादगार कायम रहे और उसी के साथ मुमताज महल का नाम कयामत तक बना रहे।
(स) हकीकत यह है कि शाहजहां खुद फितरतन शानदार इमारतें बनाने का शौकीन था। यह इमारत जो बाकी शाहजहां की इमारतों से कहीं बेहतर है तो उसकी वजह यह है कि ये वो इमारत है, जो सबसे पहले उसने तामीर कराई। जिस वक्त उसका दौर चरम पर था, इस पर मुमताज महल के इश्क व मुहब्बत ने उसके फितरती शौक को और बढ़ा दिया। उस जमाने में खजाना शाही भरा हुआ था और किसी बड़ी लड़ाई में वो नहीं उलझा हुआ था। इसका लाजिमी नतीजा ये हुआ कि ये इमारत ऐसी बनी, जो पूरी दुनिया में अपनी मिसाल आप है।
शाहजहां ने अजूबी इमारत के निर्माण के लिए अपने दरबार में जाने-माने वास्तुविदों, निर्माणकर्ताओं और कलाकार को न सिर्फ देशभर से बुलाया बल्कि पर्सिया, अरब और तुर्की से भी बुलाया। उस्ताद ईसा आफंदी ने नक्शा बनाने का काम किया, जबकि अमानत खान शिराजी को अक्षर उकेरने का काम मिला। दोनों को 1,000 रुपया महीने की तनख्वाह पर रखा गया। गुंबद तैयार करने वाले तुर्की के इस्माइल खान को महीने में 500 रुपए की तनख्वाह मिलती थी। कलश बनाने वाले लाहौर के कासिम खान को 200 रुपए महीने की तनख्वाह पर रखा गया। पूरी इमारत की जिम्मेदारी अकबराबाद यानी आगरा के हनीफ खान के पास थी। मनोहर लाल, मन्नू लाल और मोहन लाल, जो पच्चीकारी करते थे, उन्हें 500 रुपए महीने की तनख्वाह दी गई। संक्षिप्त में एशिया में मौजूद बेहतरीन लोगों की सेवा इस काम में ली गई।
कारीगरों की संख्या : ताज का नक्शा बनाने की जिम्मेदारी उस्ताद मुहम्मद ईसा आफंदी के जिम्मे थी, जो 1,000 रुपए वेतन पाते थे। इसी वेतन पर 4 और लोग थे। 38 आला (बड़े) कारीगरों में से 2 नक्शा बनाने वाले, एक तुगरा बनाने वाले, एक गुंबद बनाने वाला, 17 पच्चेकार, एक कलश बनाने वाला, एक रंगसाज, 4 फूल बनाने वाले और एक अरब का कारीगर, जो विभिन्न कलाओं में पारंगत था, शामिल थे। इन कारीगरों की तनख्वाह 200 रुपए से 1,000 तक थी। इनके अलावा बेशुमार मजदूर और कारीगर जिनकी संख्या 20 हजार के करीब थी, ताजमहल को बनाने में लगे। जिनकी कोशिश और मेहनत से ये तकरीबन 20 साल में तैयार हुआ। मुकर्रमत खान व मीर अब्दुल करीम पर निर्माण कराने की जिम्मेदारी थी।
मजदूरों से सुलूक : कुछ यूरोपियन इतिहासकारों ने यह कहा है कि ताजमहल के निर्माण के समय कलाकारों और मजदूरों की माली हालत बहुत खराब थी और उनके साथ खराब बर्ताव किया गया। यह सोच सही नहीं है, क्योंकि इतिहास साफ बताता है कि ताज बनाने में लगे लोगों को उस जमाने के लिहाज से बहुत ज्यादा वेतन दिया गया। शाहजहां खुद नियम-कायदों को बहुत मानने वाला था। निर्माण के मौकों पर उसकी रुचि और जानकारी व नजर रखने की कोई सीमा नहीं थी। खजाना भी भरा था। जैसा कि आरोप लगाए जाते हैं कि मजदूर परेशानियों में थे। अगर ऐसा है तो क्या वजह है कि वे यहां ठहरे। हालात अगर मुनासिब नहीं थे तो होना यह चाहिए था कि वो अपने घरों को चले जाते। अगर शाहजहां का जोर था तो हिन्दुस्तानियों पर था, बनिस्बत दीगर मुल्क के दस्तकारों के जो दूसरे मुल्क (देश) से बुलाए गए थे, क्या जोर था। शाहजहां के फरमान के मुताबिक तमाम नक्शा बनाने वालों ने इमारत के उम्दा और नफीस नक्शे तैयार करके पेश किए, लेकिन कोई भी नक्शा बादशाह को पसंद नहीं आया। आखिरकार एक नक्शा, जिसको मुहम्मद ईसा आफंदी ने तैयार किया था, बादशाह को पसंद आया। फौरन एक मकबरे की तैयारी का हुक्म फरमाया। 1040 हिजरी, 1631 ईसवी में यानी उसी साल जिस साल मुमताज महल का इंतकाल हुआ, मकबरे का निर्माण शुरू हो गया।
शाहजहां की इच्छा : इसी मकबरे में शाहजहां भी दफन है, लेकिन इससे यह न सोचें कि इसी जगह शाहजहां की दफन किए जाने की इच्छा थी। शाहजहां को ऐसा पता भी नहीं होगा कि मैं यहां दफन होऊंगा। अगर ऐसा होता तो वो बीच के कमरे को कुछ और बड़ा बनवाता और इसके साथ ठीक बीच में मुमताज महल दफन न होती, बल्कि कुछ हटकर होती। दोनों कब्रों को देखकर समझा जा सकता है कि शाहजहां की कब्र किसी जरूरत और मजबूरी से बनवाई गई है। वरना शाहजहां का यहां पर इन स्थिति में दफन इस बेहतरीन इमारत की नफासत के लिहाज से अच्छा नहीं था।
असलियत यह है कि शाहजहां का बिलकुल यह इरादा न था कि मैं यहीं ताजगंज में दफन होऊं, बल्कि उसकी ये इच्छा थी कि नदी के उस पार ठीक ताजमहल के पीछे महताब बाग में अपने लिए इसी शान व शौकत का एक दूसरा रोजा (महल) तैयार करवाऊं और दोनों को संगमरमर के पुल के जरिए मिला दूं ताकि आने वाले लोग इस मकबरे से उस मकबरे तक आसानी से चले जा सकें और इस ख्याल के मुताबिक उसने कुछ कार्रवाई शुरू भी कर दी थी। हालांकि उसके अब तक वहां कुछ-कुछ निशान भी बाकी हैं और ताजमहल से साफ नजर आते हैं। शाहजहां की इच्छा से इस बात को भी बल मिलता है कि अपने लिए उसने काले ताज को बनाने का मंसूबा जरूर बनाया था।
ताज का चबूतरा : ताजमहल का मुख्य चबूतरा बिलकुल नदी से लगा हुआ है जिसका आकार दोनों कोनों से 970 फीट 17 इंच और बाग से यमुना की दूरी आखिरी निर्माण तक 364 फीट और ऊपरी सतह बाग से 4 फीट है और यमुना के किनारे से साढ़े 28 फीट है। इस चबूतरे के बीच में 20 फीट ऊंचा संगमरमर का चबूतरा है जिसके बीच में रोजा ताजमहल की मुख्य इमारत है। इसके हर कोने की लंबाई 328 फीट 3 इंच है। सामने से और चढ़ने के लिए दो जीने आमने-सामने बने हैं। चबूतरे के चारों तरफ संगमरमर की बेहतरीन महराबें और पूर्व और उत्तर और पश्चिम की ओर 3-3 कमरे बने हुए हैं और आसपास चबूतरे पर बजाय लाल पत्थर के चौपड़ का शानदार फर्श है। नदी की तरफ तहखाना बना हुआ है जिसमें उतरने के लिए दो जीने हैं। तहखाने में 14 कमरों की कतार है।
मीनार : संगमरमर के चबूतरे के चारों कोनों पर संगमरमर की चार मंजिली मीनार हैं जिनकी बुलंदी (ऊंचाई) नीचे के बाग कलश की चोटी तक करीब 162 1/4 फीट और संगमरमर के चबूतरे की बुलंदी तक 102 फीट 19 इंच पर है। ये मीनारें अपनी खूबसूरती में मशहूर हैं।
मुख्य इमारत : संगमरमर के चबूतरे के बीच में 2 1/2 फीट बुलंद चबूतरे पर असली रोजे की इमारत है। उसकी चारों दिशाओं में 4 बड़े कमरे और उनमें 4 छोटे जिले हैं। हर बड़ा जिला (कमरा) 139 1/2 और छोटा जिला (कमरा) 33 1/2 फीट है। इन मेहराबों के नीचे की ओर और एक तरफ में पूरी सूरह यासीन संगमरमर पर संग मूसा की पच्चेकारी से गढ़ी हुई है। दूसरी तरफ सूरह 'अलतकवीर' यानी 'इज-श्शमसु कुव्विरत' अरबी पेश ताक पर सूरह 'इनफितार' यानी 'इजस्समाउन फतरत' और आखिर में 1041 हिजरी उत्तरी मेहराब के ऊपर पर सूरह 'अलइंसकाक' यानी 'इजस्समाउन शक्कत' पेश ताक पर 'लमयकुनिल्लजीना कफरू' दर्ज है।
गुलाब गर्दिश-निचला हिस्सा : अंदर छोटे हिस्से में 4 बड़े कमरे 26 फीट 18 इंच के और बड़े हिस्से में 4 कमरे जिनका हर जिला 15 फीट 11 इंच है, बने हैं। उन कमरों के बीच में बरामदा है। ये आठों कमरे और बरामदे मिलकर मुख्य इमारत के आधार बन गए हैं। वे सब पूरी तरह संगमरमर के बने हैं और उन पर बेहद शानदार ढंग से गुलदस्ते, फूल, पत्ते बने हैं। कमरों के फर्श पर संगमरमर के टुकड़े बेहद खूबसूरती से लगाए गए हैं।
खास कमरा : इन कमरों और बरामदों के बीच में वो खास कमरा है जिसमें मुमताज महल और शाहजहां की कब्रें बनी हैं। उनका हर जिला 24 फीट 12 इंच, कतरा 58 फीट और ऊंचाई अंदर से 8 फीट है। इसके दरों में शीशों की खूबसूरत जालियां लगी हुई हैं। 2 हिस्सों में अमानत खान शीराजी का बेहतरीन काम दिख रहा है। यहां बेहद खूबसूरत कत्बे लगे हैं- सूरह 'मुल्क' यानी 'तबाराकल्लजी' और सूरह 'फतह' यानी 'इन्ना फतहनालका' फतहम मुबीना' और सूरह दहर और आखिर में पारह 24 की पांचवीं रुकू की आयत करीमा लिखी है।
मुमताज महल की कब्र : जाली के बीच में चबूतरे पर मुमताज महल की कब्र बनी हुई है जिसमें मूसा ने पच्चेकारी कर कुरआन की आयतें लिखी हैं और पैरों की तरफ कब्र पर 'मरकद मुनव्वर अरजूमंद बानो बेगम' लिखा है। मुमताज महल की वफात (मृत्यु) की तारीख 1040 हिजरी 1631 ईसवी लिखा है।
शाहजहां की कब्र : मुमताज महल की कब्र से ही मिली हुई पश्चिम की तरफ शाहजहां की कब्र है जिसके स्थान में असमानता साफ नजर आती है। इससे साफ जाहिर होता है कि ताजमहल बनाते वक्त उसका इरादा इस जगह दफन होने का नहीं था। वरना या तो जाली कुछ बड़ी बनवाता या मुमताज महल की कब्र बजाए बीच में होने के पूर्व की तरफ होती। शाहजहां की कब्र के ऊपर कलमदान बना हुआ है और पैरों की तरफ 'मरकद मुतहर आला हजरत फिरदोस आशयानी साहिबेकिरान सानी बादशाह ताब सुराह 1074 यानी 1665 ईसवी बख्त नसतअलीक' लिखा है। दोनों तावीज और उनके चबूतरे निहायत खूबसूरत और बेहतरीन पच्चेकारी से सजे हैं। खासतौर से शाहजहां की कब्र पर उम्दा फूल और पत्तियां और गुलदस्ते उकेरे गए हैं।
तहखाने की कब्रें : मुमताज महल और शाहजहां की असली कब्रें तहखाने में हैं जिसका जीना (रास्ता) रोजा के दरवाजे के सामने ठीक नीचे की तरफ है। इस तहखाने के दरवाजे में चांदी के किवाड़ लगे थे, तो बाद में उतार लिए गए। तहखाने की लंबाई 22.2 फीट है। ऊपर की तरह यहां भी बीच में मुमताज महल की और पश्चिम की तरफ शाहजहां की मजार है। मुमताज महल की कब्र पर संगमरमर से हुवल्लाहुल लजी ला इलाहा इल्ला हुवा आलिमुल गैबि वश्शहादते हुवर्ररहमानुर रहीमो के बाद 99 नाम बेहद खूबसूरत अंदाज में खुदे हैं। मजार के सिरहाने पर पारह 4 सूरह आले इमरान की आयत और कब्र के पैरों की तरफ 'मरकद मुनव्वर अरजुमंद बानो बेगम' लिखा है। मुमताज महल की कब्र से 6 इंच की दूरी पर पश्चिमी तरफ शाहजहां की कब्र है जिसकी कब्र के ऊपर ठीक बीच में नस्तअलीक राइटिंग में संग मूसा के अक्षरों में इबारत लिखी है।
इन असली कब्रों पर निहायत कीमती जेवरात जड़े गए थे। शाहजहां की कब्र के ऊपर एक बेशकीमती हीरा जड़ा हुआ था, जो किसी जमाने में उखाड़ लिया गया। यह तहखाना पूरी तरह संगमरमर का बना हुआ है।
बीच की इमारत : छत पर चढ़ने के लिए नीचे की तरफ से दरवाजे बने हैं जिनकी 46 सीढ़ियां तय करके बीच की इमारत में पहुंचते हैं। इस स्तर पर कमरे चूना-पत्थर से बने हुए हैं। सबसे ऊपर छत के चारों कोनों पर 8-8 दर के 4 गुंबद और चारों तरफ 74-74 फीट लंबे 9 दरों के 4 पतले बरामदे और 8 गुलदस्ते संगमरमर के हैं। बीच में लाजवाब संगमरमर का गुंबद है। यह गुंबद छत से 139 1/2 फीट और बाग की सतह से 245 1/2 फीट और नदी की सतह से 270 फीट ऊंचा है। उसके कलश की ऊंचाई 30 1/2 फीट है। अब इस पर तांबे का कलश चढ़ा हुआ है। पहले इस पर सोने का कलश था, जो निकाल लिया गया। कलश के ऊपर कलमा 'तय्यब' लिखा है।
मस्जिद : पश्चिमी ओर ऊंची चारदीवारी से मिली हुई लाल पत्थर के चबूतरे पर मस्जिद है। यह 186 फीट लंबाई में और 79 फीट चौड़ी है। इसमें 3 मेहराबदार दरवाजे हैं जिनमें बीच का हिस्सा ज्यादा चौड़ा है और उसकी ऊंचाई 78 फीट 15 इंच है। मस्जिद का फर्श निहायत शानदार पत्थर का है, जो लाल रंग का है। उस पर संग-ए-मूसा की पच्चेकारी से नमाज पढ़ने के लिए 539 मुसल्ले बने हैं। अंदर के बीच वाले मेहराब में सूरह शम्स लिखी हुई है और मेहराब के बीच में संगमरमर का एक ऐसा पत्थर लगा है जिसमें ताज का मुख्य हिस्सा अक्स के रूप में नजर आता है। दाएं तरफ दो हुजरे (कमरे) हैं और सूरह इख्लास तुगरा के रूप में और या काफी अल्लाह और कलमा तय्यब दर्ज है। छत के चारों कोनों पर मुसम्मन बुर्ज और बीच-बीच में 3-3 गुंबद संगमरमर के हैं सामने की तरफ बीच वाले मेहराब के ऊपर एक गुलदस्ते के अंदर ताजमहल के 2 नक्शे बने हुए हैं। आगे 186 फीट लंबा और 51 फीट चौड़ा आंगन है। आंगन के चबूतरे के नीचे भी पत्थर का फर्श है जिसके बीच में होज (पानी का टैंक) बना है जिसकी लंबाई-चौड़ाई 16x16 फीट है। दक्षिण के करीब ही एक बावली बनी है जिसके ऊपर बसी बुर्ज के जवाब में एक दालान और बुर्ज भी बना है।
तस्बीह खाना : चूंकि ताज की कुल इमारत का कोई हिस्सा असमान नहीं है इसलिए मस्जिद के मुकाबले में पूर्व की तरफ मस्जिद की शक्ल की एक इमारत बना दी गई है, जो अब तसबीहखाना के नाम से मशहूर है और शाही जमाने में जमाअतखाना कहलाती थी। इसकी पैमाइश वगैरह भी मस्जिद के मुताबिक है। दोनों में सिर्फ इतना फर्क है कि तसबीहखाने में मस्जिद की तरह कुत्बे मुसल्ले नहीं हैं और चबूतरे पर उत्तर की तरफ रोजा के गुंबद के कलश का नक्शा उकेरा गया है, जो मस्जिद के चबूतरे पर नहीं है।
बसी बुर्ज : नदी की तरफ दोनों कोनों में 2 आलीशान लाल पत्थर के बुर्ज बने हैं जिनमें पश्चिमी ओर का बुर्ज, जो मस्जिद से मिलता है, 'बसी बुर्ज' के नाम से मशहूर है। इन बुर्जों में नदी में जाने के लिए जीने बने हुए हैं। रोजा में बने बुर्जों के गुंबद संगमरमर के हैं।
कुरआन की सूरतें : कई किताबों में यह लिखा गया है कि ताजमहल में पूरी कुरआन लिख दी गई है, लेकिन हकीकत में पूरे ताजमहल में कुरआन पाक की मात्र 14 सूरतें हैं। उनमें से 10 छोटी सूरतें पारह अम यतसा अलून की और 4 बड़ी सूरतें यानी सूरह यसीन, तबाराकल्लजी, इन्ना फतहना और सूरह दहर उकेरी गई हैं। ये सूरतें जो रोजा मुमताज महल को धार्मिक नजरिए से तकद्दुस पवित्र जगह बनाने के लिए कुरआन मजीद से ली गई हैं और ताजमहल में अलग-अलग जगह उन्हें दर्ज किया गया है, जो कुरआन मजीद की खास सूरतें हैं। ये सूरतें जो ताजमहल की रौनक व जीनत को और भी बढ़ाती हैं।
शाहजहां की मौत : शाहजहां का इंतकाल इस्लामी हिजरी कैलेंडर के हिसाब से रजब माह की 26 तारीख सन् 1076 के आखिर हिस्से में सोमवार की रात को हुआ। मुसलमानों के यकीन के मुताबिक यह तारीख और दिन दोनों निहायत पवित्र हैं। इसी रोज और इसी तारीख को हजरत रसूल मकबूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मेराज हासिल हुई। पीर के ही रोज हजरत सरवर कायनात की विलादत, नबूवत, हिजरत व वफात हुई।
कफन व दफन : इस हादसे के बाद मलिका जहां आरा बेगम के आदेश के बाद खान कलादार और ख्वाजा पूल गुसलखाना (बाथरूम) में आए। किले के दरवाजों की खिड़कियां खुल गईं और सैयद मोहम्मद कनूजी और काजी कुरबान (काजीउल कजात) अकबराबाद आखिरी रस्म के वास्ते बुलाए गए।
मलिका जहां आरा बेगम की इच्छा के मुताबिक ये दोनों बुजुर्ग मुसम्मन बुर्ज से जहां बादशाह का इंतकाल हुआ था, लाश को करीब के कमरे में ले गए और उन्हें नहलाया। गुसल देने और कफन से अरास्ता करने के बाद संदल (चंदन) के संदूक में बंद किया और बुर्ज के करीब दरवाजे को, जो बंद था, खोलकर लाश को बाहर निकाला और किले से बाहर लाए।
आगरा के सूबेदार होशहार खान सल्तनत के अन्य प्रमुख लोगों के साथ जल्दी सुबह के वक्त जनाजे को नदी के किनारे लाए और वहां से ताजमहल के अंदर मुमताज की मजार के करीब रखा। सैयद मोहम्मद व काजी कुरबान और अन्य साथ आए हुए लोगों ने नमाज-ए-जनाजा पढ़ा और लाश को गुंबद के अंदर दफन किया।
इतिहासकारों ने अलग-अलग कई तारीखें शाहजहां के इंतकाल की लिखी हैं। चंद तारीखें दर्ज की जाती हैं।
तारीख व वफात अज अशरफ खान
साल तारीख फोत शाहजहां रजी अल्लाह गुफ्त अशरफ खान 1076 हिजरी
दीगर
जुसतम ज़ अक़्ल साल तारीख़श रा गुफतम खुर्रम शाहजहां कर्द वफात 1076 हिजरी
वसीयत शाहजहां : शाहजहां ने मरते वक्त इस बात की वसीयत की थी कि मैं मेहताब बाग में दफन किया जाऊं, लेकिन आलमगीर की शरीयत पर पाबंदी तो जाहिर है, इसके अलावा वो खुद लगातार लड़ाइयों से परेशान था और इसी वजह से उसके वित्तीय हालात अच्छे न थे। उसने उलेमा से राय ली कि जब बाप किसी ऐसे काम की वसीयत करे, जो सरासर दीन के खिलाफ हो, उसमें शरीयत का क्या हुक्म है? तमाम उलेमा ने बिलइत्तिफाक जवाब दिया कि ऐसी वसीयत पर अमल जरूरी नहीं। इसलिए औरंगजेब ने मकबरा ताजमहल में ही अपने हसरतजदा बाप के दफन का हुक्म दिया और कहा कि मेरे बाप को मेरी मां के साथ कमाल दर्जा की (हद से ज्यादा) मुहब्बत थी। इस वजह से मुनासिब है कि उनकी आखिरी आरामगाह भी एक ही जगह रहे।
उर्स अव्वल मुमताज महल : शाहजहां के वक्त में मुमताज का उर्स बहुत धूमधाम से होता था। मुमताज महल की वफात के बाद पहला उर्स शाहजहां ने बाकायदा 1041 हिजरी यानी 1632 ईसवी में किया। बादशाहनामा में लिखा है कि इस मौके पर बड़ी धूमधाम की गई। तंबू लगाने वालों ने मकबरे के फर्श को अलग-अलग सामानों से सजा रखा था। शाहजहां के बेटे (राजकुमार) और अमीर उमरा (सरदार) इसमें शामिल हुए। इसी तरह उलेमा (धर्म के जानने वाले) और हाफिज भी बुलाए गए। सारे अमीर-उमरा (सरदार-अफसर) मर्दों के तंबू में बैठाए गए जिसमें बादशाह भी मौजूद था। दस्तरखान (खाते वक्त नीचे बिछाने का कपड़ा) बिछा जिस पर अलग-अलग तरह के उम्दा खाने और पकवान लगे हुए थे और कुरआन मजीद की आयतें और दीगर दुआएं मरहूमा की मगफरत के लिए पढ़ी गईं। 1 लाख रुपए में से इस खास खर्च के लिए निकाल दिया गया था। 50 हजार रुपया बतौर खैरात फकीरों में बांट दिया गया और 50 हजार रुपए दूसरे रोज बांटे गए। यह भी हुक्म दिया गया कि हर उर्स के मौके पर जब बादशाह आगरा में होंगे, 50 हजार रुपए की खैरात की जाएगी, वरना दूसरी सूरत में 12 हजार रुपया काफी है।
हमेशा जब बादशाह दारुलखिलाफत (आगरा) में होते थे तो अपनी प्यारी बेटी जहांआरा बेगम, मारुफ बेगम साहिबा और दीगर बेगमों के साथ उर्स में शामिल होते थे। बेगमें महल की कनातों में होती थीं और उमरा शामियानों में रहते थे और गरीबों को 1 लाख रुपया खैरात बांटी जाती थी। इस मौके पर दुनियाभर से लोग जमा होते थे। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि ताज का ये शाही अंदाज सिर्फ शाहजहां तक महदूद रहा बल्कि इसके बाद भी मुगल बादशाह इसका खयाल रखते रहे और उर्स वगैरह के मौके पर उसी तरह बहुत-कुछ रुपया खर्च होता रहा।
आलमगीरनामा से पता चलता है कि खुद आलमगीर शाहजहां की मौत के एक हफ्ते के बाद आगरा आया और दूसरे दिन अपने मां-बाप की कब्र पर जियारत की गर्ज से हाजिर हुआ। जब कब्र पर पहुंचा तो बुरी तरह रोने लगा। बाद फातिहाख्वानी के 12 हजार रुपए खैरात किए। आलमगीरनामा से यह भी मालूम होता है कि 17 शाबान 1080 हिजरी यानी 1670 ईसवी में आलमगीर दुबारा मुमताज के मकबरे पर आया और 45 हजार रुपए बांटे।
मुमताज की कब्र के लिए शाहजहां ने एक चादर मोतियों की तैयार कराई थी जिसमें कई लाख रुपए खर्च हुए और हमेशा जुमे के दिन और सालाना उर्स के वक्त यह कब्र पर डाली जाती थी। लेकिन 1131 हिजरी यानी 1718 ईसवी में अमीरुल उमरा हुसैन अलीखान ने जिसने कुछ दिन आगरा के किले पर कब्जा कर लिया था, यह चादर जब्त कर ली। इसके अलावा 3 करोड़ की कीमत की चीजें खासतौर पर मुमताज महल और नूरजहां की उसके कब्जे में आ गईं।
बादशाह ने एक लाख पहले उर्स में खर्च किया और आगे के लिए भी यही नियम तय किया कि जब उर्स के दौरान बादशाह मौजूद हों तो 50 हजार रुपया दान किया जाएगा वरना 12 हजार रुपया काफी है। उसके साथ मुमताज आबाद (ताजगंज) की दुकानें और सरायें जिनकी आमदनी 2 लाख रुपया साल थी और 30 गांव जिनकी मालगुजारी उस समय 40 लाख दाम (40 दाम = 1 रुपया) थी, रोजा के खर्च के लिए वक्फ किए गए और वक्फनामा में लिखा कि अगर कभी जरूरत हो तो उस वक्फ की आमदनी से रोजा की मरम्मत में खर्च किया जाए और बाकी अन्य खर्चों में जिनको सालाना और महाना मिलता है, तमाम कुरआनख्वानों, खादिमों, मुहताजों और तंगदस्तों के लिए खर्च होता रहे। इन तय खर्चों के बाद अगर कुछ रुपया बचा रहे तो बादशाह के चुने हुए नुमाइंदों को जिसे इस रोजा की देखभाल की जिम्मेदारी दी गई है, ये अधिकार है कि जहां मुनासिब समझें, खर्च करें।
सोने का कटहरा : बादशाहनामा से जाहिर होता है कि 1042 हिजरी 1632 ईसवी में एक सोने की मीनाकारी जाली बनवाई गई थी जिसमें जवाहरात जड़े हुए थे और वो हमेशा मलिका मरहूमा की कब्र के सिरहाने सुरक्षित रखी जाती थी। इसमें 40 हजार तोला शुद्ध सोना खर्च हुआ था, जो उस वक्त 6 लाख रुपए का था। मकबरे के अंदरुनी हिस्से में हमेशा बहुत बेहतरीन दर्जे के फर्श बिछे रहते थे और खूबसूरत रोशनदान और झाड़-फानूस लगे होते थे जिसकी वजह से वो जगह ऐसी मालूम होती थी कि जैसे बहश्त (जन्नत) की जमीन है।
1052 हिजरी यानी 1642 ईसवी में वो कटहरा यहां से हटा लिया गया। इस डर से कि इस कदर कीमती चीज को ताजमहल में रखना ठीक नहीं। ऐसी सूरत में चोरी का डर था। इस वजह से उसके बजाय एक संगमरमर की जाली लगा दी गई, जो अब तक मौजूद है। बादशाहनामा में लिखा गया है कि यह 10 बरस में तैयार हुई थी और 50 हजार रुपया इस पर खर्च हुआ था।
जाली : बड़े कमरे के बीच में संगमरमर की इन बेहतरीन जालियों का ये कटहरा है। इसका हर फलक 12 फीट 1-2 इंच और ऊंचाई 6 फीट और 12 इंच है। हर तरफ में 3-3 खूबसूरत जालियां लगी हैं। सिर्फ दक्षिणी सतह में एक जाली और उत्तरी सतह में अंदर जाने के लिए दरवाजा है। जाली का संगमरमर बहुत कीमती है और जालियों के ऊपर बहुत नाजुक बेलपत्ती बनी हैं। इस जाली पर बेहतरीन पच्चेकारी की गई है जिसकी तारीफ शब्दों में बयान नहीं हो सकती। इसके फूल-पत्ते बीसियों 20 अलग-अलग रंगों के बेशकीमती जवाहरात से सजे और ऐसी सफाई से बनाए गए हैं कि कहीं जोड़ का निशान तक नजर नहीं आता और उनको देखकर कुदरत का नक्शा पेश नजर हो जाता है। इस जाली में संगयस्ब का दरवाजा लगा हुआ था, जो जाटों के जमाने में उतार लिया गया था।
जाली का आकार उत्तर व दक्षिणी सिरहाने से नीचे तक 28 फीट 7 इंच और पश्चिमी व पूर्वी तरफ 28 फीट 10 इंच है। ठीक बीच में मुमताज की कब्र है। कब्र के सिरहाने पर संग-ए-मूसा के हरूफ में इबारत दर्ज है।
मकबरा सदरूलनिसा सती उन निसा खानम : सती उन निसा खानम मलिक उर शुअरा तालिब आमली की बहन और हकीम नसीर अली की बीवी थीं। वह बहुत पढ़ी-लिखी औरत थीं। अपने पति के मरने के बाद वह मुमताज महल की खिदमत में आईं। फिर जहांआरा बेगम की तालीम इनके जिम्मे की गई। मुमताज महल की मौत के बाद इन्हें सदारत महल की खिदमत सुपुर्द की गई। 1056 हिजरी 1646 ईसवी को सती उन निसा का लाहौर में इंतकाल हुआ। वहां से बादशाही हुक्म से लाश रोजा मुमताज महल के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में दफन की गईं। कई हजार रुपए के खर्च से वह मकबरा बना और मकबरे की मरम्मत के लिए एक इलाका भी दिया गया। यह मकबरा बेहद खूबसूरत है। उसका बीच का कमरा मुसम्मन है जिसकी हर तरफ 11 1/2 फीट है। 7 दर खुशनुमा जालियों से बंद हैं। अंदर का फर्श और दीवारें संगमरमर की हैं। लदाव में संग सुर्ख की अस्तरकारी है। बीच में संगमरमर की कब्र है जिस पर बेहतरीन दर्जे की मनबतकारी है। छत पर संगमरमर का खूबसूरत गुंबद और उसके पास 24 गुलदस्ते बने हैं। बीच कमरे के आसपास गुलाम गर्दिश मुसम्मन शक्ल की है जिसका हर तरफ 22 1/2 फीट है। इसमें 24 दर हैं। आंगन में हौज बना है और मकबरे की पश्चिमी दीवार में मस्जिद फतेहपुरी की तरफ 9 खूबसूरत जालियां लगी हैं। इसके अलावा 2 हुजरे और एक दालान और बना है जिसमें दालान शकिस्ता हो गया है।
- अफसर अहमद की किताब 'आज महल या ममी महल?' अध्याय-5 ताजमहल का निर्माण से अंश (पेज 148 से 168 तक)