संत ही ईश्वर प्राप्ति का मूल साधन
आदि अनंत है परमात्मा
परमात्मा आदि अनंत है। न उसके आदि का पता है न अंत का, फिर उसे जन्मा भी नहीं कहा जा सकता। क्षणमात्र के लिए अजन्मा तो कहा जा सकता है पर जन्मा नहीं। वास्तव में वह जन्मा अजन्मा दोनों से ही मुक्त है, बाकी सब उसके चेतन मात्र निर्माण स्वरूप है। निर्माण स्वरूप परमात्मा से यह वाणी प्रकट हुई है। वाणी के प्रकट होने से अंड, पिंड, ब्रह्माण्ड की रचना हुई। इसकी रचना होते ही तमाम योनियां प्रकट हुई। देव दैत्य आदि चौरासी लाख योनियां प्रकट हुईं जिनमें जलचर, नभचर, भूचर और थलचर हुए लेकिन ईश्वर प्राप्ति का साधन किसी भी योनि में नहीं हुआ। फिर मनुष्य का शरीर प्रकट हुआ और मनुष्य शरीर प्रगट होने पर इसके बीच 'एक संत प्रगट भयो, दीन्हों आत्मज्ञान।'
आत्मज्ञान का साक्षात्कार कराने के लिए ईश्वर की संत रूपी शक्ति प्रकट हुई। संत ही ईश्वर प्राप्ति कराने का मूल साधन है। इन मनुष्य के तन से आप जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य के तन से ही आ चाहे स्वर्ग ले लो, बैकुण्ठ ले लो, मोक्ष पद प्राप्त कर लो या फिर से बंधन ले लो, इसलिए बड़े, भाग मानुष तन पाया। मनुष्य शरीर पूर्ण मुक्त है पर पूर्ण सतगुरु के मिलने पर ही ज्ञान होता है। पूर्ण सतगुरु प्रगट होकर अज्ञान का ताला खोल देते हैं।