ज्ञान, विवेक और कर्म से सज्जित हो स्वतंत्रता हमारी
आज जबकि हम अपने देश का 69वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं यह आलेख मैं अपने पाठकों का अभिनंदन करते हुए उन्हें सादर समर्पित कर रहा हूं। यह दिन सुबह-सुबह देशभक्त शूरवीरों और शहीदों को नमन करने का दिन है, प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का दिन है एवं बाद में सैर-सपाटे, पिकनिक तथा उत्सव मनाने का दिन। इसके साथ ही यह दिन हमें आत्मचिंतन करने का भी अवसर देता है। विश्व की अनेक हस्तियों ने स्वतंत्रता की परिभाषा को विभिन्न शब्दों में बांधने का प्रयास किया है किंतु शायद ही कोई ऐसी परिभाषा हो जिस पर सबकी सहमति हो।
हमारे राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वतंत्र भारत की परिकल्पना को बहुत ही सुंदर तरीके से अभिव्यक्त किया है। उनके अमर शब्दों में 'एक ऐसा देश जहां बिना भय के हम अपना मस्तक ऊंचा रख सकें। जहां ज्ञान की धारा विमुक्त हो। ऐसी भूमि जहां संकीर्ण दीवारों से दुनिया को टुकड़ों में विभक्त न किया गया हो। जहां शब्द सत्य की गहराई से निकलते हों। वह देश जहां अथक प्रयास पूर्णता की ओर अपनी बाहें फैला रहे हों। जहां स्पष्ट तर्कों की धारा ने ढीठ विश्वासों के रेगिस्तान में अपना मार्ग न खो दिया हो। जहां बुद्धि को विधाता सही मार्ग पर निर्देशित करता हो तथा जहां विचारों और कर्मों का द्वार निर्बंधता के उज्ज्वल लोक में खुलता हो। प्रभु, मेरे देश को स्वतंत्रता के ऐसे स्वर्ग में जागृत करो।'
यद्यपि आज हम 70 वर्ष पूर्व की अपेक्षा अधिक साक्षर, अधिक परिपक्व और अधिक चैतन्य हैं किंतु 70 वर्ष पूर्व एक वृद्ध कवि की यह परिकल्पना आज भी उतनी ही शाश्वत है। प्रकृति, पशु या पक्षी को किसी अनुशासन में नहीं बांधती। ये तो जीव स्वयं हैं, जो अपनी मर्यादा स्वयं निश्चित करते हैं। उदाहरण के लिए जंगल का राजा शेर अपने क्षेत्र की सीमाओं को नहीं लांघता। पक्षी भी इतनी लंबी उड़ान नहीं भरते कि शाम को अपने घोंसलों में लौट न सकें। हां, कुछ पक्षी हैं, जो लंबी यात्राएं करते हैं किंतु उनका दायरा कोई क्षेत्र नहीं, अपितु तापमान होता है। अतः वे उस तापमान के भीतर ही उड़ान भरते हैं और पृथ्वी पर जहां उनके जीवन को खतरा न हो उस तापमान में बने रहते हैं।
किंतु मनुष्य की फितरत किसी अनुशासन में बंधने की नहीं होती। वह स्वयं अपने ऊपर कोई बोझ लादना नहीं चाहता अतः उसे संविधान की सीमाओं का सहारा लेना पड़ता है। इस तरह हमारी स्वतंत्रता की सीमाएं हमारा संविधान निश्चित करता है। स्वतंत्रता हमें अपने धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों को सोचने और रखने की आजादी तो देती है किंतु उसकी अभिव्यक्ति का दायरा संविधान तय करता है। स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है कि हमारे ज्ञान की धारा उन्मुक्त हो किंतु हमें भान होना चाहिए कि कर्म और आचरण से हम संविधान से बंधे हुए हैं।
इसके विपरीत पाकिस्तान के राष्ट्रपिता मोहम्मद अली जिन्नाह ने संविधान को धर्म के दायरे के भीतर लाने की कोशिश की। परिणाम यह रहा कि आचरण में उन्मुक्तता हो गई किंतु विचारों पर लगाम कस दी गई। प्रतिफल में पाकिस्तान का जो हश्र हुआ, वह हमारे सामने है। आजादी के 25 वर्षों पश्चात सन् 1973 में तो उनका संविधान तैयार हो सका किंतु उसमें अनेक संशोधन आते रहे और आज तक भी संविधान अंतिम रूप नहीं ले पाया है।
वहां पिछले वर्ष से पुनः बहस छिड़ी है संविधान को फिर से लिखने की। तो जहां बुनियाद ही गलत रखी गई हो वहां भवन के सपने देखना समय की बर्बादी है। इसी तरह से दुनिया में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिन्होंने संविधान को एक मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप फेरबदल किया। वे सब तानाशाह बन गए और अंततोगत्वा मारे गए या उखाड़ फेंके गए।
हमारा सौभाग्य रहा कि हमारे देश की आधारशिला एक सुदृढ़ संविधान की बुनियाद पर रखी गई है। हम अपने सपनों के भारत के निर्माण में लगे हैं और हमारे देश का प्रत्येक नागरिक इस निर्माण में अपना किरदार बखूबी निभा रहा है। केवल ध्यान इस बात का रखना है कि हम अपने संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपयोग तो करते रहें किंतु अपनी वाणी, आचरण और कर्म से अपने संविधान द्वारा दी गई स्वतंत्रता के दायरे से बाहर न निकलें।
विश्वास है कि जिस मार्ग पर हम चल पड़े हैं वह विश्व विजेताओं का मार्ग है और हम गर्व से गाते रहें-
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।
इन शब्दों के साथ पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की पुनः हार्दिक शुभकामनाएं।