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Written By सुशोभित सक्तावत
Last Updated : मंगलवार, 8 अगस्त 2017 (20:26 IST)

#अधूरीआजादी : क्या गांधी "चतुर बनिया" थे?

#अधूरीआजादी : क्या गांधी
गांधी को हमेशा किसी "द्वैत" के आलोक में देखने का हमारे यहां शगल रहा है। "गांधी और नेहरू" का द्वैत, "गांधी और रबींद्रनाथ" का द्वैत, "गांधी और आंबेडकर" का द्वैत, "गांधी और मार्क्स" का द्वैत, "गांधी और भगत सिंह" का द्वैत, यहां तक कि स्वयं "गांधी और गांधी" का द्वैत, "गांधी बिफ़ोर इंडिया" और "इंडिया आफ़्टर गांधी" की द्वैधा। इन तमाम द्वैतों को अगर हम किसी एक कथानक में सरलीकृत करना चाहें तो कह सकते हैं कि वह "लोक" और "जन" का द्वैत है। गांधी के परिप्रेक्ष्य में हमें "जन" और "लोक" के द्वैत को "राष्ट्र-राज्य" के बरअक़्स "देश", "भारतीय गणराज्य" के बरअक़्स "हिंद स्वराज", "वैज्ञानिक चेतना" के बरअक़्स "सांस्कृतिक लोकवृत्त", "आइडिया ऑफ इंडिया" के बरअक़्स "भारत-भावना" और "विश्व-नागरिकता" के बरअक़्स "लोकचेतना" के द्वंद्व में समझना होगा।
 
गांधी के पास भारतीय "लोकमानस" की गहरी समझ थी, जिसे उनके अधिकतर समकालीन "औपनिवेशिक सांचे" में ढली अपनी बुद्धिमत्ता से उलीच पाने में विफल रहते थे। आज़ादी के बाद जब गांधी का पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिशें हुईं तो विभिन्न धाराओं ने "अपने-अपने गांधी" बांट लिए। "गांधी-विचार" को लेकर पिछले कुछ दशकों में जो अकादमिक दृष्टियां प्रचलित रही हैं, उनमें से एक उन्हें "वेस्टमिंस्टर शैली" के लोकतंत्र और राष्ट्र-रूप के समर्थक के रूप में देखती है, जिसके चलते ही उन्होंने इन मूल्यों के प्रतिमान पं. जवाहरलाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुना था। ऐसा समझने वालों में रामचंद्र गुहा प्रमुख हैं।
 
एक दूसरी दृष्टि मार्क्सवादी इतिहासकारों की है, जो गांधी को लेकर कभी सहज नहीं हो सके। गांधी के प्रति मार्क्सवादियों का प्रेम भी तभी उमड़ा था, जब इतिहासकार बिपन चंद्र ने तथ्यों के सहारे साबित किया कि गांधी अपने परवर्ती सालों में धर्म और राजनीति के औपचारिक अलगाव को ठीक-ठीक उसी तरह स्वीकार कर चुके थे, जैसे कि नेहरू। तब भी गांधी के भीतर का "धर्मभीरु" उन्हें कभी नहीं सुहाया। गांधी की प्रार्थना-सभाएं और उनका "वैष्णवजन" उनके "सेकुलर" स्नायु-तंत्र को क्षति पहुंचाता था।
 
इसकी तुलना में गांधी के प्रति एक अधिक सदाशय दृष्टि "सीएसडीएस स्कूल" के चिंतकों की रही है। "गांधी बनाम नेहरू" की बहस को आगे बढ़ाते हुए आशीष नंदी ने नेहरू की उस वैज्ञानिक चेतना को प्रश्नांकित किया था, जो कि "ग्राम्य-भारत" की ज्ञान-परंपरा को ही खारिज करती थी। वहीं मानवविज्ञानी टीएन मदान ने "नेहरूवादी सेकुलरिज्म" के बरक्स "गांधीवादी सेकुलरिज्म" की अभ्यर्थना की थी, जो कि धर्मनिरपेक्षता का निर्वाह करने के लिए धार्मिक-आस्था के लोकप्रतीकों को लांछित करना ज़रूरी नहीं समझता।
 
यह आश्चर्य है कि जिन उदारवादियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों ने कालांतर में गांधी को अपहृत कर लिया, वे वास्तव में गांधी को कभी स्वीकार नहीं सकते थे। गांधी "राष्ट्रवादी" थे। गांधी "धर्मभीरू" थे। गांधी "स्वदेशी" में विश्वास रखते थे। "राम" का नाम गांधी के मुंह में हुआ करता था। प्रार्थनाओं से प्रतिफल मिलेगा, ऐसी उनकी आस्था थी और श्रीनरेश मेहता ने तो उन्हें "प्रार्थना-पुरुष" ही कहकर इंगित किया है! इधर 2014 की परिघटना के बाद से दक्षिणपंथी ताक़ते भी गांधी का अपने हित में उपयोग करती नज़र आई हैं। वास्तव में यह गांधी के बहाने नेहरू को अपदस्थ करने की नीति है। गांधी का "ब्रांड" ही इतना व्यापक हो गया है कि कोई भी उसका दोहन करने का लोभ संवरण नहीं कर पाता।
 
निजी तौर पर, गांधी से मेरा "प्रणय-कलह" का संबंध रहा है। गांधी का "हठ" मुझे रुचता है, किंतु हठ के दुष्प्रभाव भी जानता हूं। गांधी के यहां निहित वैज्ञानिक चिंतन के प्रति उपेक्षा और मिथकप्रियता का भाव भी मुझमें है, अलबत्ता तर्कणा की वैज्ञानिकता का भी हामी रहता हूं। गांधी का नैतिक बल और आत्मत्याग की तत्परता मेरे लिए निर्विवाद "मूल्य" हैं, किंतु ऐतिहासिक क्षणों में गांधी द्वारा प्रदर्श‍ित की गई अदूरदर्श‍िता और दुर्बलता ने भारत की नियति को कलंकित कर दिया है और इसके लिए गांधी को क्षमा करना भी कठिन है। 1947 में जो हालात थे, वे गांधी की "विश्वदृष्ट‍ि" से उपजने वाले विचारों के नियंत्रण से बाहर चले गए थे।
 
मज़े की बात है कि हाल ही में एक भाजपा नेता ने गांधी को "चतुर बनिया" कहकर पुकारा। जबकि मेरा तो मत है कि गांधी के भीतर बहुधा "चतुराई" का अभाव ही परिलक्ष‍ित हुआ है। गांधी "सरलमना" और "सरलमति" थे। आधुनिक नागरिक जीवन की जटिलताओं को प्रकृतिस्थ सरलता से वे उलीच लेंगे, ऐसा उन्हें भ्रम था। गांधी के भीतर मनुष्य के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन की क्षमता का अभाव भी साफ़ दिखता है। गांधी ने अनेक क़दम "भलाई के भुलावों" में उठाए हैं और उससे जमकर ठेस भी खाई है। 1948 के गांधी स्पष्टतया एक टूटे हुए गांधी थे, जिन्हें यह अनुभव हो गया था कि उनसे कहीं कोई भारी भूल हुई है। दुनिया अगर सरल होती तो गांधी उसमें सर्वाधिक प्रासंगिक होते। लेकिन दुनिया की जटिलताओं ने गांधी-विचार को "हतवीर्य" बना दिया है।
 
गांधी को "चतुर" कहना मुझे सुहाता नहीं, ना तो इस शब्द के सकारात्मक अर्थों में, ना ही कटाक्ष वाले मायनों में। और अगर अधि‍काधि‍क वर्गों के हितों का संरक्षण करने की गांधी की प्रकृति को ही अगर आप "वणिक-वृत्त‍ि" समझकर उन्हें "बनिया" कह दे रहे हैं, तो यह भी उचित नहीं, जाति से वे भले ही "बनिया" हों और जाति की पहचान हमारे आज के वक़्त की सबसे बड़ी सच्चाई हो, जहां प्रथम व्यक्त‍ि का चयन भी "जाति" के आधार पर किया जाता हो। शायद, "दलित" होना आज जितना गौरवशाली है, "बनिया" होना उतना गौरवशाली नहीं रह गया हो, और उसे "लांछन" की तरह लिया जाना लगा हो। फिर भी गांधी का "बनियापन" उनके मनोविज्ञान में निर्मित इकहरी सरणियों का अधिक प्रतिफल था, उनकी "फ़ितरत" का उतना नहीं। आज हम गांधी की "शवसाधना" क्यों करें और गांधी पर "कीच" भी क्यों उछालें। "इतिहास" स्वयं गांधी का "सम्यक मूल्यांकन" करने वाला है और इतिहास "निकट भविष्य" में ही है। अस्तु।