स्वाधीनता की अग्नि परीक्षा
विशेष संपादकीय : आलोक मेहता
स्वतंत्र भारत की 64वीं सालगिरह मुबारक हो। तिरंगे के साथ राष्ट्र की रक्षा करने और आगे बढ़ाने का संकल्प करने का दिन है यह। यह उत्सव वर्षा ऋ तु में आता है, जबकि धूप और छाँव आँख मिचौनी खेलते हैं। राष्ट्र के जीवन में भी धूप-छाँव, सुख-दुःख का मिश्रण हमेशा रहता है। इस समय भी दुनिया के अन्य देशों के साथ प्रगति की दौड़ में आगे रहने के लिए आधुनिक रंग-रूप की बौछारें हो रही हैं, वहीं सामान्य जन के लिए आर्थिक कठिनाइयाँ और भ्रष्टाचार की समस्या विकराल रूप में राष्ट्र के शरीर को तीखी जलन वाला कष्ट दे रही है।अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दबावों और आतंकवाद से बड़ी चुनौती देश के विभिन्न भागों में उग्रवादी संगठनों की गतिविधियाँ तथा कानून व्यवस्था की बिगड़ती हालत से है। भारत का इतिहास इस बात का गवाह है कि टुकड़े-टुकड़े में बँटे होने और पृथकता का शिकार होने, संकीर्ण और पृथकतावादी प्रवृत्तियों के बढ़ने से देश सदा कमजोर हुआ। अंग्रेजों ने इसी फूट का फायदा उठाया था। वैसे भारत की असली शक्ति यहाँ की सभ्यता और संस्कृति रही है। द्रविड़ सभ्यता जो संभवतः सिंधु घाटी, मोहनजोदड़ो या उस जैसी पाँच हजार साल पुरानी थी और दूसरी आर्यों की सभ्यता, जो उत्तर पश्चिमी सीमा पार कर भारत में आई थी।इन दोनों के मेल से भारत की बुनियादी सभ्यता बनी और सदियों से चली आ रही है। अगर यह सभ्यता जड़ होती तो कभी की मर गई होती। सब तरह के लोग भारत में आए। हम उन सबको हजम कर गए और वे सब भारतीय हो गए। जब भी देश में समन्वय की क्षमता कम हुई, भारत कमजोर पड़ा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा या विश्व का कोई अन्य नेता भारत के इतिहास और संस्कृति की तारीफ केवल कूटनीतिक भाषण के लिए नहीं करते।सच यही है कि भारत जब बहुत गतिशील था तब भारतीय अपने धर्म, भाषा, संस्कृति, आचार-विचार, कला और पुरातत्व को लेकर समूचे दक्षिण पूर्व एशिया, पश्चिम तथा मध्य एशिया तक पहुँचे। सम्राट अशोक ने सारी दुनिया में अपने मिशन भेजे। फिर संस्कृति में गतिरोध आने और धर्म-जाति-क्षेत्र की संकीर्णता आने पर बिखराव होने लगा। हमें परतंत्रता के दुर्दिन झेलने पड़े। महात्मा गाँधी और उनके साथ आए महान स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों और प्रयासों से आज हम राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र हैं। वर्तमान संकट मात्र आर्थिक नहीं है। यह आंतरिक संकट राष्ट्रीय चरित्र और पहचान का है।आजादी की वर्षगाँठ पर देश को सोचना होगा कि सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को क्या हिंसा और आंदोलनों से निपटा जा सकेगा? निःसंदेह सरकार की अपनी जिम्मेदारी है। लेकिन क्या प्रत्येक नागरिक का कोई उत्तरदायित्व नहीं है। भ्रष्टाचार में हमारे अपनों की कितनी भूमिका है। भ्रष्ट कर्मचारी, अधिकारी, नेता क्या हमारे-आपके बीच से नहीं हैं? क्या वे परदेस से आकर सत्ता-व्यवस्था में बैठे हैं? अनाज महँगा करने में सरकार से अधिक क्या बिचौलिए और व्यापारी जिम्मेदार नहीं हैं, जो किसानों को भी उनकी मेहनत का सही मूल्य नहीं देते? आय-कर की सर्वाधिक चोरी कौन करता है? सभी व्यापारी या अधिकारी या नेता बुरे नहीं होते, लेकिन जो गड़बड़ करते हैं- उसका नतीजा देश भुगतता है। जो लोग टैक्स नहीं देते, मिलावटी दवाइयाँ या खाद्य पदार्थ बेचते हैं, जमाखोरी और तस्करी से काला धन कमाते हैं, वे देश के दुःख-संकट के लिए जिम्मेदार हैं। वे भारत की स्वाधीनता के लिए खतरे पैदा करते हैं। एक दूसरा वर्ग है, जो हथियारों के बल पर स्वाधीनता तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही तहस-नहस करने की कोशिश में है। नागरिक अधिकारों का ऐसा दुरुपयोग दुनिया के किसी मुल्क में नहीं होता। देश की लगभग आधी आबादी युवाओं की है। उन्हें सही दिशा और सशक्त भारत की आवश्यकता है। ऐसा कोई देश नहीं है जिसने कठिनाइयों या खतरों का सामना किए बिना भविष्य सँवारा हो। गरीबी, भेदभाव, सामाजिक बुराइयों और निराशा से देश कमजोर होता है। यह युग गौरवशाली अतीत तथा उज्ज्वल भविष्य को जोड़ने वाली एक कड़ी है। राजनीतिक दलों, स्वयं सेवी संगठनों, किसानों, मजदूरों यानी समाज के हर वर्ग का दायित्व है कि वह देश की एकता के साथ तरक्की के लिए सक्रिय भूमिका निभाए। शहरों में थोड़ी खुशहाली दिखाई देती है, लेकिन गाँवों और गरीबों के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। अनाज के भंडार भरे हुए हैं, फिर भी लाखों लोग कुपोषण के शिकार हैं। महात्मा गाँधी भी मानते थे कि अधिकारों के साथ कर्तव्य पालन जरूरी है। हम अधिकारों की जोरदार आवाज उठाते हैं, लेकिन कर्तव्य पालन की ओर ध्यान देने को कतई तैयार नहीं होते। अगर अमेरिका या चीन दुनिया में आगे हैं, तो असली वजह है वहाँ के नागरिकों का कठिन परिश्रम और कर्तव्य पालन। व्यक्तिगत जीवन हो या राष्ट्र जीवन- लेखा-जोखा जरूरी होता है। लेखा-जोखा करते समय एक गलती अक्सर हो जाती है। खासकर अपने देश में हम अपनी उपलब्धियाँ कम आँकते हैं और कमजोरी को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। इससे देश में निराशा का वातावरण बनता है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि 'आत्म प्रशंसा मूर्खों का लक्षण है', लेकिन अनावश्यक आत्म निंदा भी आत्महत्या के समान है। स्वाधीनता दिवस पर यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि इसी आजादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था के बल पर इतनी प्रगति हुई है और पश्चिम के देश भी हमें चीन की तरह अपना प्रतियोगी स्वीकारने लगे हैं। इसी दिन पाकिस्तान भी अलग देश बना था, लेकिन सेनाशाही, तानाशाही और आतंकवाद से उसकी हालत कितनी खराब है। पड़ोसी की यह दशा भी खतरनाक और चिंताजनक है। लेकिन आत्मावलोकन के समय संसदीय लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाना भी घातक है।इसी आजादी और लोकतंत्र की वजह से पिछले 64 वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों में भारी राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं। पंचायत से संसद तक सत्ता परिवर्तन जनता की शक्ति से हुए हैं। दुःखद यह है कि संसद और विधान मंडलों में सदस्य अशोभनीय तथा गैर जिम्मेदार व्यवहार करने लगे हैं। उनके व्यवहार, स्वार्थ तथा भ्रष्टाचार से लोकतांत्रिक आस्थाएँ टूटने लगती हैं। उनकी विफलताओं का लाभ विध्वंसकारियों-देशद्रोहियों को मिलता है। जिस तिरंगे की आन और शान के लिए प्राणोत्सर्ग तक के गीत गाए जाते हैं, उसी तिरंगे और संविधान की शपथ लेने वाले कुछ लोग हिंसक तरीके अपनाने वाले सिरफिरे संगठनों का समर्थन करते दिखाई देते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखा है कि चाहे सुख हो, चाहे दुख, चाहे कठिनाई हो, चाहे आराम हो- इन सबको जरा संतुलन से देखना चाहिए। लेकिन होता यह है कि थोड़ी उपलब्धि पर हम आसमान पर चढ़ जाते हैं और कठिनाई सामने आने पर पाताल में पहुँचना महसूस करने लगते हैं। निरंतर रुदन और विरोध से राष्ट्र शक्तिशाली नहीं हो सकता। हर जागरूक और जिम्मेदार नागरिक का यह भी कर्तव्य है कि वह आत्मविश्वास पैदा करे। स्वतंत्र भारत में सत्ता और व्यवस्था बनाने की सबसे बड़ी ताकत संविधान और वोट में है। संवैधानिक व्यवस्था का सम्मान किए बिना आजादी सुरक्षित नहीं रखी जा सकती है। इसलिए स्वाधीनता दिवस पर दिल्ली से अधिक गाँव-देहात तक जागरूकता, आत्मविश्वास और कर्तव्य निष्ठा के संकल्प की जरूरत है। इस आजादी को अक्षुण्ण रखने की शुभकामनाएँ।