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Written By ND

जीवन दर्शन : एक कहानी

जीवन दर्शन : एक कहानी -
- शरद उपाध्या
ND

''हाँ, जतिन आदमी है ही ऐसा। हमेशा जीवन के सच को देखता रहता है। हमारे आसपास इतना सब कुछ घट रहा है, पर हम कोई सबक नहीं ले रहे हैं। पता है, जतिन, बुद्ध ने एक दिन एक अर्थी को देखा और बस, अपने जीवन को बदल लिया। ऐसा कुछ होना चाहिए जीवन में। अब देखो न! एक दिन हम बा को लेकर आए थे। आज अम्मा को लेकर आए हैं। जीवन का अंत कितना सहज है। अम्मा की सारी तकलीफों और परेशानियों का अंत, सिर्फ एक पल में कल हम अस्थि विसर्जन कर वापस चले जाएँगे।''

हर की पौड़ी पर भीड़ बिलकुल नहीं थी। दिसंबर का महीना और तिस पर रात के आठ बजे। सर्दियों में जहाँ दिन में ही धूप नहीं निकलती थी, वहाँ रात का तो कहना ही क्या। चारों तरफ छाया सर्द कुहासा। मैं और जतिन दोनों घाट पर बनी एक बैंच पर बैठे हुए थे।

अम्मा नहीं रही थीं, और हम आज ही अस्थि-विसर्जन के लिए हरिद्वार पहुँचे थे। शाम को पंडे से बात करके सीधे यहीं आ गए थे। ठंड बहुत ज्यादा थी। बचाव के लिए जितने कपड़े ले गए थे, तकरीबन सभी हमने पहन रखे थे। पाँव में जूते-मोजे, सिर पर टोपी, हाथ में दस्ताने, स्वेटर पर चमड़े का जर्किन और उस पर ओढ़ी हुई लोई। फिर भी ठंड भीतर घुसे जा रही थी।

मंदिर में दर्शन के लिए जूते उतारने पड़े। फर्श पर पाँव पड़ते ही ठंड के मारे रूह काँप गई। जैसे-तैसे दर्शन कर दुबारा जूते पहने, तो जान में जान आई। फिर धीमे-धीमे कदमों से चलकर, दूसरी ओर एक घाट किनारे बैठ गए।

''यह जगह मुझे बहुत ही अच्छी लगती है। पता है जतिन, एक दिन मैं बा को विदा करने भी यहीं आया था और आज अम्मा...'' मेरी आँखों में आँसू आ गए। जतिन ने, जो कि मेरा चचेरा भाई था, मेरी पीठ थपथपाई। मैंने आँसू पोंछे, ''यह जीवन भी कितना अजीब है, आदमी पैदाहोता है... जीवनभर कितने प्रपंचों में लिप्त रहता है, दुःख-सुख, ईर्ष्या, जलन, द्वंद्व, बड़ा-छोटा, ऊँच-नीच। पर अंत में क्या होता है। सब निरर्थक साबित हो जाते हैं।''

जतिन भी मेरी बात से सहमत था- ''हाँ, आप सही कह रहे हैं। हर आदमी जानता है, कि उसे एक दिन जाना है। यहाँ तो वो सिर्फ कुछ दिनों का मेहमान भर है। फिर भी संसार के प्रति हमारा मोह हमें बाँध लेता है।''

''हाँ, जतिन आदमी है ही ऐसा। हमेशा जीवन के सच को देखता रहता है। हमारे आसपास इतना सब कुछ घट रहा है, पर हम कोई सबक नहीं ले रहे हैं। पता है, जतिन, बुद्ध ने एक दिन एक अर्थी को देखा और बस, अपने जीवन को बदल लिया। ऐसा कुछ होना चाहिए जीवन में। अबदेखो न! एक दिन हम बा को लेकर आए थे। आज अम्मा को लेकर आए हैं। जीवन का अंत कितना सहज है। अम्मा की सारी तकलीफों और परेशानियों का अंत, सिर्फ एक पल में कल हम अस्थि विसर्जन कर वापस चले जाएँगे। यानी कि अम्मा का कोई वजूद ही नहीं रहा। इस दुनिया में कोई अस्तित्व नहीं रहा। क्या यही जीवन का सार है?'' मैं सुबकने लगा था।

''क्या करें भाई साहब, हम कर ही क्या सकते हैं। हमारे हाथ में है ही क्या।'' जतिन बोला।

  हम दोनों साथ-साथ चलने लगे। अचानक मेरी निगाह, किनारे पर नहाते एक आदमी पर पड़ी। वह डुबकी लगा रहा था। ''ये लोग पता नहीं, इतनी रात गए क्यों नहाते हैं। रात को स्नान से कौनसा पुण्य मिल रहा है।'' ''पर भाई साहब, यह आदमी तो जब हम आए थे, तबसे नहा रहा      
मैं थोड़ी देर चुप रहा, ''है क्यों नहीं। जब हम जीवन को इतना समझते हैं, तो क्यों विवेकपूर्ण नहीं जी सकते। क्यों हम इतनी मोह-माया में पड़ जाते हैं? गीता में कहा है कि, आत्मा अमर है, शरीर मिट्टी है। तो इस शरीर के लिए क्यों परेशान होना, जो वाकई एक दिन मिट्टमें मिल जाएगा। हमें इस सत्य से कुछ सीखना होगा, जतिन।''

''हाँ, भाई साहब, आप सही कहते हैं।'' वो खड़ा हो गया। इन बातों ने उसके अंदर बेचैनी उत्पन्ना कर दी, ''हम बदलेंगे भाई साहब, हम अपने आपको बदलेंगे। हम बताएँगे दुनिया को, कि जीना किसे कहते हैं।''

मैं भी उठ गया। ठंड बहुत अधिक हो गई थी। इतने लबादों में लिपटे होने के बाद भी, मैं ठंड के मारे काँप रहा था।

''हाँ वाकई, अब हमें नए सिरे से जीवन की शुरुआत करना होगी। जीवन का क्या भरोसा। एक पल है, दूसरे पल नहीं है। जतिन, अब हम प्रण करते हैं कि हमारे जीवन को कोई लोभ, लालच, मोह, माया नहीं छू पाएगी।''

''हाँ, भाई साहब।'' हम दोनों साथ-साथ चलने लगे। अचानक मेरी निगाह, किनारे पर नहाते एक आदमी पर पड़ी। वो डुबकी लगा रहा था।

''ये लोग पता नहीं, इतनी रात गए क्यों नहाते हैं। रात को स्नान से कौनसा पुण्य मिल रहा है।''

''पर भाई साहब, यह आदमी तो जब हम आए थे, तबसे नहा रहा है।'' जतिन ने बताया। मैं चौंक गया। हम करीब एक घंटे से वहाँ बैठे थे।

''जतिन, अभी हम यही बात तो कर रहे हैं। देखो, विचारधाराओं में कितना फर्क है। एक तरफ हम चिंतन से जीवन को नई दिशा देने की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर हमारे सामने ही अंधविश्वास हमारे विश्वास की कैसी धज्जियाँ उड़ा रहा है। रात को नहाने से कौनसा स्वर्ग मिल रहा है।

जतिन भी हँसा, ''पता नहीं, क्या गणित है। शायद सोचता हो कि एक डुबकी का जितना पुण्य मिल रहा है, इसी हिसाब से, डुबकी लगाता रहे, तो एक दिन भगवान खुद ही लेने आ जाएँगे।

हम हँस पड़े। हम उसके नजदीक जा पहँुचे। वो बार-बार डुबकी लगा रहा था।

''क्यों भाई, इतनी ठंड में तुम कौनसा पुण्य कमा रहे हो?'' उसने जवाब में डुबकी लगाई और जब निकला तो दोनों हाथ हमारे सामने कर दिए। उसके हाथों में दो सिक्के रखे हुए थे। मैं समझ गया। मुझे काटो तो खून नहीं। चंद सिक्के पाने के लिए, वो रात की भीषण ठंड में, गंगाजी के बर्फीले पानी में, एक घंटे से डुबकी लगा रहा है।

''तुम... तुम्हें ठंड नहीं लग रही?'' मेरी आवाज कमजोर पड़ गई। वो हँसा, ''बाबूजी, पेट की आग सारी ठंड दबा देती है।'' भाई भी स्तब्ध था, ''इतने ठंडे पानी से तुम मर जाओगे।'' वो फिर हँसा, ''कुछ नहीं होगा। अगर ठंडे पानी में नहीं उतरा तो मेरे साथ पूरा परिवार ही मर जाएगा।'' कहकर उसने फिर डुबकी लगा ली। मैं सन्ना रह गया। मुझे लगा, मेरे पाँव जवाब दे गए हैं। जतिन ने मेरा कंधा पकड़ा। हम दोनों चुपचाप होटल पहुँच गए। रास्ते भर दोनों मौन थे, निःशब्द। कमरे का ताला खोलकर लाइट जलाई। मैं धड़ाम से बिस्तर पर जा गिरा। मैं अपने आपको बेहद थका महसूस कर रहा था। जतिन सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। सामने खूँटी पर अम्मा का अस्थिकलश टँगा हुआ था। थोड़ी देर बाद जतिन ने कहा, ''भाई साहब, भूख लग रही है। खाना खा लेते हैं।'' मैंने सहमति में सिर हिला दिया, ''हाँ, चलो, नहीं तो होटल बंद हो जाएँगे।''और हम चल दिए।