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Written By ND

खास आदमी

खास आदमी -
- मीनाक्षी स्वाम
ND
अब खास आदमी को अपनी पत्नी की याद आने लगी। उसने उसी धुन में अपना मोबाइल ऑन किया। पत्नी से बात करने की कोशिश की। मगर पत्नी का मोबाइल 'आउट ऑफ रेंज' (दायरे के बाहर) था। आम से खास बनने में पत्नी कब आउट ऑफ रेंज हो गई, पता ही नहीं चला। फ्रेंड को यथास्थान छोड़ वह जैसे-तैसे घर पहुँचा। रात हो ही गई थी। सारा घर रोज की तरह रोशनी से जगमगा रहा था। वह भारी कदमों और रीते मन से कंपाउंड से बरामदे में और लंबे बरामदे से होते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ा। पूरे घर में रोशनी के बावजूद उसके कमरे में अँधेरा था

कम्प्यूटर से जल्दी ही ऊब चुकी सानिका फिर नानी के पास आई। नानी की पीठ पर झूलकर मचलते हुए बोली- 'नानी, और कहानी सुनाओ ना!'

'बस-बस सुनाती हूँ। आम आदमी की कहानी तो हो गई। अब सुनाऊँ राजा-रानी, परी की कहानी?' नानी ने सानिका को चिढ़ाया।

सानिका फिर खीझ गई- 'ओ नानी, कहाँ हैं राजा-रानी? मुझे सुनाओ आज के लोगों की कहानी।'

कुछ पल सोचकर नानी ने कहा, 'आज मैं तुम्हें सुनाती हूँ खास आदमी की कहानी।'

'नानी, ये खास आदमी कैसा होता है?' सानिका ने उत्सुकता से पूछा। मगर नानी ने बड़ी तसल्ली से कहा- 'समझ लो कि जैसे पहले राजा होता था, वैसा अब खास आदमी होता है।'

'तो क्या वह भी मुकुट लगाता है? सोने के सिंहासन पर बैठता है? रत्नों से जड़े गहने पहनता है? हाथी पर बैठकर युद्ध करने जाता है?' सानिका ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

'नहीं बिटिया रानी। दिखने में तो हमारे जैसा ही दिखता है। मगर वास्तव में वो राजा जैसा ही रहता है। मुकुट नहीं लगाता, हाथी पर बैठकर युद्ध करने नहीं जाता। मगर अपने एयरकंडीशन कमरे में बैठे-बैठे ही आम लोगों के बीच युद्ध करवाकर, खून की नदियाँ बहा देता है। एसी के बिना साँस ही नहीं ले पाता। प्लेन में देश-विदेश घूमा करता है। सुबह दिल्ली में, दोपहर मुंबई में, शाम को फिर दिल्ली में। छुट्टियाँ मनाने विदेश जाता है।'

'खास आदमी लांग ड्राइव पर नहीं जाता है क्या नानी?' सानिका की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी।

'जाता है... अब सवाल करना बंद करो और कहानी सुनो। हाँ, तो एक था खास आदमी। खास शहर में, खास जगह पर रहता था। खास शहर यानी बड़ा शहर, जहाँ हर तरह की सुविधाएँ थीं। देश-विदेश जाने के लिए ढेरों उड़ानें, क्लब, शॉपिंग मॉल, पाँच सितारा होटल वगैरह। और खास जगह यानी शहर की चुनिंदा जगह। जहाँ साफ-सुथरी, चिकनी, सरपट सड़कें हों, खूब हरियाली हो, शोर-शराबा न हो, आवारा जानवर न हों। बगैर पूछे उसके बंगले में आम आदमी तो क्या, मच्छर भी न आ सके। जहाँ नल में दिन-रात खूब पानी आता हो, बिजली कभी न जाती हो, फोन लाइन हमेशा ठीक रहती हो यानी कि जहाँ सारी सुविधाएँ हों। और तो और, उसकी बस्ती में रहने वाले दूसरे लोग भी खास। उसका दफ्तर भी घर के पास। उसकी गाड़ी पर मुकुट जैसी बत्ती। पुलिस वाला देखे तो ट्रैफिक रूल तोड़ने पर भी सलाम ठोंके और भीड़ देखकर उसका ड्राइवर गाड़ी में लगा सायरन बजा दे, तो भीड़ वैसे ही रास्ता छोड़ दे।

अब एक दिन आसमान में काले बादल छाए थे। रिमझिम फुहारें बरस रही थीं। ऊँचे दफ्तर के केबिन में, घूमने वाली कुर्सी से पीछे मुड़कर देखा, तो ऐसी फुहारों में खास आदमी का मन लांग ड्राइव पर जाने के लिए मचलने लगा।'

'तो क्या खास आदमी का भी आम आदमी जैसा ही मन होता है नानी?'

'हाँ बिटिया, भगवान ने तो सबको एक जैसा ही बनाया है। जैसा आम आदमी का मन, वैसा खास आदमी का मन। अंतर बस इतना ही, कि खास आदमी को मन की हसरतें पूरी करने के साधन, सुविधा सब दूर मिल जाते हैं। बेचारे आम आदमी के मन की हसरतें तो साधन-सुविधा जुटानेमें ही खत्म हो जाती हैं। हाँ, तो खास आदमी का मन लांग ड्राइव पर जाने का हुआ, तो उसने अपने सहायक को बुलाया। सहायक हाथ बाँधे उसके सामने आकर खड़ा हो गया। खास आदमी का सहायक जैसे समझो अलादीन के चिराग का जिन। बस खास आदमी के मुँह से बात निकली, कि उसने खटाखट इंतजाम किया।'

'तो वह किसी के लिए भी इंतजाम कर सकता है नानी?'

'नहीं बिटिया, वह तो खास आदमी के इंतजाम के लिए ही तैनात रहता है। खास आदमी का नाम लेने पर ही तो उसकी बात आम लोग सुनते हैं। तो, खास आदमी ने अपने सहायक से कहा, 'इतना सुहाना मौसम है, हम लांग ड्राइव पर जाना चाहते हैं।'

'जी सर।' कहते हुए सहायक बाहर आया। दफ्तर के बाहर दूर-दूर के इलाकों के बहुत सारे लोग अपने काम कराने के लिए बैठे थे।'

'तो क्या खास आदमी को सबका काम करना होता है?' सानिका ने फिर टोका।

'हाँ हाँ, खास आदमी इसीलिए तो खास होता है। वह चाहे तो आम लोगों के कठिन से कठिन काम चुटकी में कर सकता है और न चाहे, तो आसान-सा काम भी रोक दे।'

'तो क्या खास आदमी सुपरमैन होता है?' सानिका के दिमाग में अब भी खास आदमी की तस्वीर नहीं बन पा रही थी।

'कुछ ऐसा ही समझो। सत्ता के बूते पर वह किसी का कोई भी काम कर सकता है या रोक सकता है। तो सहायक ने देखा, उन ढेर सारे लोगों में किसी को बिजली की परेशानी थी, किसी को पानी की, किसी को नौकरी चाहिए थी, किसी को तबादला। ढेर सारे लोग मुआवजे के लिए बैठे थे। हैरान-परेशान, भूखे-प्यासे। कोई महीनों से चक्कर लगा रहा था, कोई हफ्तों से। कोई कई दिनों से खास आदमी के खास शहर में डेरा डाले पड़ा था। वे लोग कभी खास आदमी के घर के चक्कर लगाते, कभी दफ्तर के। उनमें ज्यादातर लोग तो वे ही थे जिन्होंने उस आदमी को खास आदमी बनाया था। सहायक ने उन पर उड़ती हुई निगाह डाली और भीतर अपने कमरे में आ गया। फोन करके बड़ी-सी गाड़ी मँगवाई। खास आदमी की गर्लफ्रेंड के बॉस को फोन करके, उसके ऑन ड्यूटी आने का इंतजाम किया।'

'तो क्या खास आदमी के पास पत्नी नहीं होती?'

'होती है, पर वह भी तो खास होती है। वह आराम करती है। क्लब, किटी पार्टी में जाती है, ब्यूटी पार्लर जाती है, शॉपिंग करती है। उसे भी अपने पति के साथ लांग ड्राइव पर जाने की फुर्सत नहीं होती। लांग ड्राइव तो क्या, वे दोनों मन की बातें भी एक-दूसरे से नहीं बाँट पाते। एक घर में रहते हैं फिर भी कई दिनों तक एक-दूसरे को देख नहीं पाते। दोनों अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त-मस्त रहते हैं। खास आदमी का मन भी पत्नी के साथ जाने का नहीं होता। उनकी तो ढेर सारी गर्लफ्रेंड होती हैं। वे उनके साथ जाते हैं।'

'तो उनकी गर्लफ्रेंड को काम नहीं होता क्या नानी?'

'होता है। मगर जब खास आदमी के साथ जाना हो, तो वह भी काम का ही हिस्सा होता है। इसीलिए वह ऑन ड्यूटी खास आदमी के साथ लांग ड्राइव पर जाती है। तो तुरत-फुरत सारा इंतजाम करके, सहायक खास आदमी के पास पहुँचा। खास आदमी अच्छे मूड में था। वह पिछले दरवाजे से निकला। बड़ी-सी गाड़ी में गर्लफ्रेंड उसका इंतजार कर रही थी। कई दिनों बाद उसे देख, मन बाग-बाग हो गया। खुद ड्राइव करने लगा खास आदमी। मोबाइल वगैरह सब बंद, काम बंद, बस लांग ड्राइव। दूर तक चिकनी, काली, सरपट सड़क पर दौड़ती बड़ी-सी गाड़ी। पास में बैठी खूबसूरत गर्लफ्रेंड। आसमान में काले बादल, रिमझिम फुहारें। उन्होंने शीशा खोल दिया। फुहारें हवा के साथ उन्हें भी छूने लगीं। खास आदमी का मन आसमान में उड़ने लगा।

उधर खास आदमी के दफ्तर के बाहर काम करवाने की आशा में बैठे आम आदमी परेशान। जो बाहर थे, उन्हें दरबान अंदर न जाने दे। जो पहले से अंदर थे, वे बार-बार सहायक से पूछें और सहायक हर बार यही जवाब दोहराए, कि अंदर बहुत जरूरी मीटिंग चल रही है। बस खत्म होतेही साब आपसे मिलेंगे। आम आदमी के सब्र का बाँध टूटा जा रहा था। मगर धीरज और सहनशीलता तो उसकी फितरत में है। आशा लगाए कभी बैठते, कभी उठते, कभी दरवाजे तक जाकर झाँकने की नाकाम कोशिश करते, कभी सहायक से पूछते। ज्यादा ऊब होने पर बाहर जाने की सोचते मगर फिर आने का अवसर और जगह खोने के भय से मन मारकर रह जाते।

इधर खास आदमी ड्राइव करते हुए जरा ज्यादा ही लांग निकल गया। बरसात के पुराने फिल्मी गाने उसकी खास कमजोरी थे। भीगे मौसम में एक के बाद एक सारे गाने सुनते हुए मन नहीं भरा। वे ही गाने बार-बार सुनते, दूर दिखते बादलों को छूने के अंदाज में, आगे बढ़ते गए।मगर बादल थे, कि फिर दूर निकल जाते।

शाम होने आई। फुहारों भरी शाम जहाँ खास आदमी के मन को खास उल्लास से भर रही थी, वहीं उसके दफ्तर में प्रतीक्षारत आम आदमी बेचारे, ढलती शाम और फुहारों से आतंकित हो रहे थे। सबकी एक जैसी ही चिंता थी कि यह जगह तो शहर से इतनी दूर है, देर होगई तो मुकाम तक पहुँचने के साधन भी नहीं मिलेंगे। बारिश और रात देख जो साधन मिलेंगे वे भी दोगुने, चौगुने रुपए लेंगे। रास्ते में कहीं लाइट होगी, कहीं नहीं। जहाँ ठहरे हैं, वहाँ एक रात का किराया और ज्यादा देना होगा।

परेशानी ज्यादा सिर उठाने लगी, तो किसी ने सहायक से पूछा। अबके सहायक ने और ज्यादा आत्मविश्वास से आश्वस्त किया, वह भी झिड़की के साथ- 'देखते नहीं, साहब सुबह से भूखे-प्यासे आप लोगों की भलाई के लिए ही जरूरी मीटिंग कर रहे हैं और आप हैं कि... अरे कहाना मीटिंग से निपटकर जरूर मिलेंगे सबसे। हम झूठ नहीं बोलते।' मगर प्रतीक्षारत आम लोग अब आश्वासन के प्रति आशंकित हो रहे थे।

खास आदमी प्रसन्न, प्रफुल्लचित्त और उमंग में और आगे बढ़ने की मनःस्थिति में था। बीच में जरा देर गाड़ी रोकने की स्थिति बनी। उसकी फ्रेंड गाड़ी में ही बैठी रही। वो निपटकर लौटा तो उसे मोबाइल पर किसी से बात करते सुना। वह कह रही थी- क्या करूँ? अभी वो बुड्ढाऔर घूमने के मूड में लग रहा है। ...हाँ...हाँ... आपके काम की बात कर ली है मैंने...। कोशिश करती हूँ, जल्दी लौटने की। आपके जरूरी काम की फाइल नहीं अटकी होती, तो जाती भी नहीं...। क्या करें अपनी मजबूरी है...। खास आदमी ने साफ-साफ सुना, मगर गर्लफ्रेंड उसे नहीं देख पाई। आसमान में बादलों के बीच गोते लगा रहा खास आदमी, जमीन पर गिरा। उसे नीचे से जमीन भी खिसकती-सी लगी। जैसे-तैसे खुद को सम्हाला

फ्रेंड पर कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया। अंदर से बुझ गया, मगर ऊपर से वही प्रसन्नाता का खोल ओढ़े सामान्य भाव से, अपनी फ्रेंड से बोला- देर हो गई। अब चलो लौटते हैं। लौटने की बात पर गर्लफ्रेंड की आँखों में चमक को साफ पढ़ा उसने। जबकि वह कह रही थी- अच्छालग रहा है, और भी चल सकते हैं। भीतर के सारे भावों को खास आदमी ने मन में छिपा लिया। मगर अपने आप से कैसे छिपाता। गाड़ी की गति तेज थी, वही बरसात के पुराने गाने चल रहे थे, फुहारें अब भी हौले से छू रही थीं, मगर अब वे फुहारें खास आदमी को चुभ रही थीं।उसे पता नहीं कौन-सा गाना कब शुरू हुआ, कब खत्म। अब वह गुनगुना भी नहीं रहा था। उसका ध्यान कहीं और था।

वह सोच रहा था, उसकी गर्लफ्रेंड का सारा जुड़ाव तो अपने पति से है। इसका पति आम होकर भी कितना खास है, जिसके पास ऐसे वैभवशाली रिश्ते हैं और वह खास होकर भी कितना खोखला है। अपने साथ पत्नी को भी खास बनाना चाहता था वह। पत्नी तो खास बनना भी नहीं चाहती थी, पर उसी ने तो उसे मजबूर किया था, इसके लिए। वरना वह भी तो दिन-रात मेरे ही इर्द-गिर्द घूमती थी। मेरे दुःख में दुखी होती थी, खुशी में खुश होती थी। जब पहली बार उसने मेरे साथ चलने से मना किया था, तो मैं कितना खुश हुआ था कि मेरी पत्नी खास है, जो अपने में व्यस्त-मस्त है। अब खास आदमी को अपनी पत्नी की याद आने लगी। उसने उसी धुन में अपना मोबाइल ऑन किया।

पत्नी से बात करने की कोशिश की। मगर पत्नी का मोबाइल 'आउट ऑफ रेंज' (दायरे के बाहर) था। आम से खास बनने में पत्नी कब आउट ऑफ रेंज हो गई, पता ही नहीं चला। फ्रेंड को यथास्थान छोड़ वह जैसे-तैसे घर पहुँचा। रात हो ही गई थी। सारा घर रोज की तरह रोशनी से जगमगा रहा था। वह भारी कदमों और रीते मन से कंपाउंड से बरामदे में और लंबे बरामदे से होते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ा। पूरे घर में रोशनी के बावजूद उसके कमरे में अँधेरा था। अपना निजी कमरा वह बंद करके ही जाता था। पत्नी अब भी घर नहीं लौटी थी।

उसके साथ तेजी से आते अर्दली ने जल्दी से खास आदमी के खास कमरे का ताला खोला, लाइट जलाई। कमरा रोशनी से भर गया। खास आदमी ने दरवाजा बंद किया, एयरकंडीशन ऑन किया, पैग बनाया और भीतर के खोखलेपन को बाहरी वैभव से भरने की नाकाम कोशिश करनेलगा।'

'ओह नानी, तब तो वह न खास रहा न आम।' सानिका ने कहा।