इमारत तो देखी नहीं, पर खंडहर बुलंद थे। सँकरी गलियों के कमरे-दो कमरे वाले मकानों के मुकाबले वह खंडहर भी कोई महल था। कहते तो हैं कि वह असल में किसी राजा का महल था। अब तो वर्षों से जाना न हुआ, पर जब बच्चे थे और बच्चों की ननिहाल थी, ननिहाल में नानी-नाना थे, तब गर्मी की छुट्टियों का मतलब नानी के घर जाना था।
नानी के घर के अलावा और जाने को कौन-से शिमला-मनाली थे। तब तो शिमला-मनाली शहर भी न होते थे, सिर्फ नक्शे में लिखे शहर हुआ करते थे। ये वे शहर होते थे, जहाँ अमीर लोग गर्मियों में जाते थे और भूगोल में राज्य और उनकी राजधानियों के नामों वाले सवाल पर जवाब रटने में, श्रीनगर और शिमला आते थे। मनाली वगैरह तो बाद के एडीशन हैं।
सब बच्चे नानी के घर जाते थे। गर्मियाँ इस शहर की हो या उस शहर की, गर्मियाँ ही होती थीं। एक शहर की गर्मियों में दूसरे शहर की गर्मियाँ आ मिलतीं। बच्चों को पता नहीं चलता कि अपने शहर और नानी के शहर का भेद क्या है, पर वहाँ कुछ खातिर जैसी होती, मतलब ठंडी लस्सी, ठंडाई, खस का शर्बत, शिकंजी। एक दिन लस्सी, एक दिन ठंडाई, एक दिन शर्बत। गा-बजाकर, कि खातिर हो रही है। जब जाने के दिन आते, तो नानाजी कहते कि बच्चों की जाफत करो। समझते कि नानाजी दावत को जाफत बोल जाते हैं या हो सकता है, कि आफत को बदलकर जाफत करते हैं।
पूरी की पूरी नाव और नाव में बस रॉयल साहब और हम। नाव में बैठते हुए न नाव वाले से बातचीत, न उसकी चें-चें, पें-पें, बल्कि वह मुस्करा-मुस्कराकर सलाम और करता है। कोई उल्ली पार, पल्ली पार का झमेला नहीं।
लौटने के दिन करीब आते, तो जाफत शुरू होती। एक दिन मंगोड़े, एक दिन आलू की टिक्की, एक दिन समोसे। बाजार से नहीं। घर पर। सारा घर उसमें लगता और भरपेट खाए जाते। वह खाने का उत्सव होता। घर में पाव-आधा किलो आलू उबलते और नानी के घर एक-दो पंसेरी, टोकरी भर आलू। बड़े-बड़े भगोनों में आलू उबाले जाते। बड़ी-बड़ी परातों पर ठंडे होते। सब मिलकर छीलते और जो कुछ होता वह शाही होता। इस सबमें नाना-नानी का इतना हाथ न था, जितना छोटे नाना का। छोटे नाना शाहों के शाह, शहंशाह आदमी थे।
ननिहाल का हमारा आकर्षण ही शाही खातिर था। नाना पढ़ने-लिखने वाले विद्वान आदमी। और छोटे नाना उनके ठीक उलट। मस्तमौला, शाहखर्च और ऐसे-ऐसे काम करने वाले, कि जो देखे-सुने सो दाँतों में उँगली दबा ले। जमनाजी के पल्ली पार जाना हो तो, तो नाव वाले इकन्नी माँगते। नानी दो पैसे देना चाहती, कि बच्चों को तो आधा किराया ले कढ़ी खाए। बड़ी हील-हुज्जत के बाद नाव वाला मानता।
नाव भी बिना बिछी और सौ-पचास बुरे-बावरे लोगों से भरी। चार चप्पू मारे, कि पटक दिए पल्ली पार। दस पैसे की जलेबी-कचौड़ी भी न खिलाना चाहती- 'कितेक अबेर है गई ए। घाम निकर आई ए। सिदौसी तो निकरौ नाँय जातु।' और यही अगर छोटे नाना उर्फ रॉयल साहब के संग मिल जाए तो, कहना ही क्या। नाना-नानी का मकान था और रॉयल साहब का था महल- बेशक खंडहर ही था। ठीक जमनाजी के तट पर। इधर, भरतपुर वाले राजा की हवेली, उधर राजाधिराज का मंदिर और यह रॉयल साहब का महल।
तीन मंजिला। सब कमरे टूटे पड़े थे। कहीं सोट ही कमरे के बीच में पड़ी है, कहीं छत के तख्ते लटक आए हैं, कहीं बर्र के छत्ते हैं। ठीक-ठाक हालत में एक ही कमरा था, जिसमें वे खुद रहते। कमरे में एक झटोला और एक बकसिया। जिस पर सदा इतना मोटा ताला झूलता रहता, कि जिसकी असली जगह किसी किले के फाटक पर ही थी। एक मंदिर था जिसके बरामदे का, काला-सफेद संगमरमर का फर्श था।
फर्श गर्मियों में इतना ठंडा रहता कि बच्चे दिनभर खेलते और रॉयल साहब आराम से सोते रहते। इतने हँसोड़ थे, कि सब बच्चों को भूत के, प्रेत के ऐसे-ऐसे किस्से सुनाते कि किस तरह भूत को उन्होंने पकड़ा और भूत ऐसे भागा, ऐसे भागा कि उसकी लँगोटी हाथ में आ गई। लाल लँगोट। लेने तो भूत आएगा, सो हनुमानजी को पहना दिया। अब किसी दिन भूत हनुमानजी से उसे वापस माँगने आएगा। तब मान लीजिए कि भूत जीत जाता है और जो वापस आता है, उसे वापस ले जाता है तो इसलिए न मंदिर पर पर्दा लगा देते हैं, पट बंद कर देते हैं। सचमुच गोटा लगा लाल रंग का साटन का पर्दा, हनुमानजी के मंदिर पर लटक रहा होता।
हनुमानजी को पर्दे में बंद कर, उस महल जैसे खंडहर से घाटी-घाटी के रस्ते-रस्ते मंडली जमनाजी के घाट पर पहुँच जाती। बताओ कौन-सी नाव में बैठोगे? नाव में झकाझक सफेद दूधिया चाँदनी, तोशक तकिए लगे हुए और बीच में रंगीन कालीन बिछे होते। किसी पर शेर, किसी पर मोर, किसी पर हिरण बने हैं और अगर कहीं कदम्ब के तले कालिन्दी कुंज में कन्हैया राधाजी के संग बाँसुरी बजाते हुए चित्र में विराजमान हैं, तो पैर बचाकर निकलना चाहिए। राधाजी के या कृष्णजी के लग गया, तो समझो कि ऐसा पाप लगा, कि जो धुल नहीं सकता।
पूरी की पूरी नाव और नाव में बस रॉयल साहब और हम। नाव में बैठते हुए न नाव वाले से बातचीत, न उसकी चें-चें, पें-पें, बल्कि वह मुस्करा-मुस्कराकर सलाम और करता है। कोई उल्ली पार, पल्ली पार का झमेला नहीं। आराम से रेल के पुल तक नाव तैर रही है, जैसे लहर-लहर पर डोल रही हो। कहीं जाने की जल्दी नहीं, कोई पैसे की तंगी नहीं। हम राजा-महाराजा आराम से नाव में बैठे-बैठे आरती देख रहे हैं। जमनाजी की जय!
छोटा बड़े के कान में फुसफुसाता- छोटे नानाजी की जय! हमारे पापा के पास इतने पैसे क्यों नहीं हैं। छोटे नानाजी के पास कितने पैसे हैं। न गिनते हैं, न खर्च करते सोचते हैं- खर्च करे जाओ, करे जाओ। महल तो महल है, बेशक टूट-फूट गया होगा। नाव वाले कोदिए तो बिना हिसाब के चाहे जितने पैसे दे दिए। वापस लेने के लिए खड़े भी न रहे। पल्ली पार गए तो खरबूज-तरबूजों की बारी में बच्चों को भेज दिया। चाहे जो तोड़ लाओ, खा लो। तोल-मोल का मतलब ही नहीं है। बच्चे जितना खा ले, उतने के पैसे ले ले।
'हुजूर, बारी में नुकसान होता है!'
'नुकसान भर देंगे तेरा! सालभर में बच्चे अपने नानी-गाँव आते हैं, समझे कि नहीं!'
आदमी समझे कि नहीं, पैसा सब समझा लेता है। खोमचे वाले का पूरा खोमचा ही खरीद लिया और खुद बैठकर खिला रहे हैं। बच गया तो खोमचे वाले का। ठंडाई में फालसे छन रहे हैं। मालिश करवा रहे हैं। पूरा ताँगा कर शहर की हवा खिला रहे हैं। शादी-ब्याह की चर्चा निकल आई और गुड्डो ने पूछ लिया कि सिंधारा-सोहगी होती क्या है। सुनते ही रॉयल साहब का जलवा देखिए कि पाँच बरस की छोरी को सामानों से ऐसा लादा, जैसे कोई ब्याहुली हो- रेशम की रस्सी, झूला, पटली, साड़ी, सिंगारदान, मखमल का बटुआ, खेल-खिलौने और तो और जाने कहाँ से साड़ी लाए कि गुड्डो ऐसी लगी कि साक्षात राधा-रानी खड़ी हैं सामने।
बच्चे तो समझते थे कि महल उन्हीं का है, बेशक टूट-फूट गया है। उन्हीं के महल में बहत्तर या कि बयासी कमरे थे। हो सकता है कि बासठ ही हों। सही-सही गिनती जानने वाला था ही कौन, बच्चों में। खूब खर्च करते और इतना बेहिसाब खर्च करते, कि सच में राजा आदमी थे। नहीं तो घर-घर हालत ऐसी कि सौर में हाथ-पैर एक साथ समा ही नहीं सकते थे। सिर ढँको तो पैर उघारे और पैर ढँको तो सिर। ऐसे में रॉयल साहब ही ऐसे, कि हर घड़ी जेब पैसों से भरी और खाने-पीने की चीजों में बच्चे गले तक गड़े। बच्चे जो उनके आसपास मँडराते रहते, तो यों कि इतनी मौज और किसी के पास न होती थी। सालभर छुट्टी होने का जैसे इंतजार रहता था, कि कब जाएँ और उनके संग मौज करें।
उनकी बीवी न थी। बच्चे हुए ही न थे। बीवी शादी के बाद जल्दी ही सिधारी और बच्चे हुए ही नहीं।
फिर उन्होंने ब्याह नहीं किया। अम्मा कहतीं- 'यह तो इतना शाहखर्च बनता है, नमक-मिर्च से बासी रोटी ठूँसता है। रोटी पर नमक रखकर टूँगता रहता है। एक बखत रोटी ठोंकता है और चार दिन उसी को खाता रहता है।' अम्मा और नानी की ये बातें सुनी तो थीं, लेकिन भरोसा नहीं किया।
वह तो उसी शहर में जब बब्बू इंजीनियर होने के बाद, तबादले पर पहुँचा और घाटों के जीर्णोद्धार के समय, उस खंडहर के पास ही कैम्प ऑफिस बनाया तो टीन की वही बकसिया उसी खंडहर में थी। ताला बेशक लटका था, लेकिन न चाबी का पता था, न चाबी केमालिक का। जंग खाई बकसिया भी खुली। जिसमें जाने कब की पुरानी गोटा किनारी जड़ी साड़ी थी। साड़ी की तह में पर्ची रखी थी- 'श्रीमानजी, आपके घर आए मुझे दो बरस हो गए। आपने मुझे धोती नहीं दिलवाई, यह फट गई है।'
रॉयल साहब रॉयल क्यों थे, यह आज कोई रहस्य नहीं रह गया है। शायद यह हुए को अनहुआ करने की कोशिश थी।