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Written By ND

ऐसी सास सबको मिले

ऐसी सास सबको मिले -
- मुबीना खालि

ND
शीला के ससुर रामशरण भटनागर और सास कौशल्या भटनागर की शादी की पचासवीं सालगिरह मनाई जा रही थी। सास साहिबा की सहेलियों को, शुभेच्छुओं को, बहनों व भाइयों को निमंत्रण दिए जा चुके थे। उनमें से ज्यादातर बेहतरीन कपड़ों में तोहफों के साथ शरीक हुए थे। इसी तरह ससुर साहब के भी सभी दोस्त और भाई-बहन उपस्थित थे। स्नेहभोज और सजावट की पूरी जिम्मेदारी शीला के ही जिम्मे थी।

सब मेहमान शीला की प्रशंसा कर रहे थे। खाना अति स्वादिष्ट बना था। मंच पर बैठे सास-ससुर भी बहुत खुश थे। उनकी शादी के पचास साल बहुत हँसी-खुशी गुजरे थे। दोनों को सबसे कामयाब कपल कहा जाता था। बेटों, बेटियों, भाई-बहनों और दोस्तों ने तोहफे दिए। सबसे शानदार तोहफा शीला के पति कुलदीप ने दिया था जो शीशे के मर्तबान में ताजमहल का नमूना था। सास-ससुर ने तोहफा कुबूल करके बेटा-बहू को आशीर्वाद और शीला को कहा कि इसे ऊँची जगह पर रख देना।

शीला हाथ में लेकर चली ही थी कि साड़ी के पल्लू में पैर उलझ गया। खुद भी गिरी और छनाक की जोरदार आवाज के साथ ताजमहल गिर गया और चकनाचूर भी हो गया।

मेहमान लानत-मलामत करने लगे, देखकर चलना था। शर्म नहीं आती। शीला का शौहर भी गुस्से में लाल-पीला हो गया। शीला आँखों में आँसू लिए हाथ जोड़कर खड़ी ताने सह रही थी कि सास खड़ी हो गई। दौड़कर उन्होंने शीला के सर पर हाथ रखा, और बोली- बहू तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है। होनहार थी सो हो गई। फिर वे मेहमानों की ओर मुड़ीं तथा बोलीं- 'मैं भी कभी बहू थी।

नुकसान होने पर और कई मौकों पर बहुत लताड़, डाँट-डपट, प्रताड़ना और अपमान सहना मुश्किल हो जाता था तो तन्हाई में बैठकर रोती थी और खुदकुशी करने की सोचती थी। मैंने वो दिन बड़ी मुश्किलों में गुजारे, पर अब मैं, अपनी बहू के साथ ऐसा नहीं होने दूँगी।'

उनके इतना कहते ही अचानक माहौल बदल गया। सारे मेहमान सासू माँ की प्रशंसा करने लगे और वातावरण की बोझिलता दूर हो गई। शीला फिर उसी उत्साह से सबकी अगवानी में लग गई। वह मन ही मन सोच रही थी- काश! ऐसी सास सबको मिले।