निशा माथुर
कल रात दर दो कदम बबूलों से गुजर के आई,
देह पर अपने खरोंचों के कुछ सिलसिले ले आई।
बहुत से टूटते सपने सलते दुखते हुए रो रहे थे,
मरुस्थल से जलते मन पर जैसे छाले पड़ गए थे।
अरमानों का टपकता लहू मेरी आंखें धो रही थीं ,
सिसकती चांदनी भी दिल के घाव सहला रही थी।
वक्त कुछ यूं किस्से सुना रहा था मुझे खंडहरों के,
कैसे जिंदगी के पल बीत रहे हैं, संग पतझरों के।
मैं, बेचैन-सी सिरहाने नींद धर-धर के जागती रही,
आखों में यादों के कितने, बीहड़ जमा करती रही।
छांव का कोई छींटा नहीं, मौसम टीसों-सा ठहरा है,
काटे नहीं कटते सन्नाटे, होंठो पे चुप का पहरा है।
कोई छत नहीं, कैसे देखो सिर पर खड़ी बरसात है?
जिंदगी की क्या बात करूं, हाथ कागज की नाव है।