हिन्दी कविता : कली
सूर्य की पहली रूपहली किरण
जब इस धरातल पर पड़ी
दमक उठा पर्वतों पर उसका सोना
झरनों नदियों में चमकी चांदी की लड़ी
उसके हंसते ही अंकुर भी लहलहा उठे
कलियों की आंखों में आया पानी
कहता है चमन 'निर्जन'
ऐ मुझे रोशन करने वाले खुदा
अब कोई माली ही मुझे मिटाएगा
हर फूल को चमन से जुदा कराएगा
यूं तो आसमां भी तेरी मुट्ठी में है
चांद-तारे भी तेरी जागीर हैं
ऐ मेरे! परवर-दिगार-ए-आलम
क्या?
एक फूल की इतनी ही उम्र लिखी है
खिलता है ज्यों ही घड़ी भर को वो
उजड़ने की उसकी वो आखिरी घड़ी है
कोई वहशी किस पल आएगा
ये सोच
आज कली बेहोश पड़ी है।