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Written By ND

विंदा करंदीकर की कविता

बहुरूपिया

बहुरूपिया
ND
सीना चाहिए
फटे हुए जीवन को
खेतों में फैली हुई अनंत
हरी घास की नोंकदार सुइयों से
मेरी दुकान है दरजी की।
धोना चाहिए
सिलवट पड़े फटे वस्त्रों को
मिट्टी के ढेर और काटती हवाओं में
हँसते हुए पसीने से,
पीढ़ियों से मेरा धंधा धोबी का।
उधेड़ना चाहिए
बचकाने पंडितों का कानूनी कसीदा
और चढ़ाना चाहिए
न मिटने वाला नया रंग गहरा लाल,
जिसमें छिप जाएँ
खूनी रक्त के गहरे दाग।
मिट्टी के रंगों वाला मैं हूँ रँगरेज।
सुलझाना चाहिए
क्रांति की कंघी से
बीमार जिंदगी के उलझे हुए बाल,
और सजाना चाहिए
भोली जनता की शर्मीली दुल्हन को,
अनागत से गहरे प्रणय के लिए
मेरे खून में का पुरोहित हटता नहीं
ब्याह रचाने का शौक घटता नहीं।

मराठी से अनुवाद दिनकर सोनवलकर