लहराते अँधेरे में चहकती हँसी
निर्मल वर्मा की डायरी का अंश व प्रेरित कलाकृति
निर्मल वर्मा हिंदी के अप्रतिम कहानीकार-निबंधकार और उपन्यासकार हैं। उनकी डायरियाँ उनके सोच की पारदर्शी परतें हैं। यहाँ उनकी डायरी का एक अंश प्रस्तुत है उससे प्रेरित कलाकृति। क्या हम बीते हुए दिन को दृश्यों में व्यक्त कर सकते हैं? इच्छा तो यह होती है कि इन पल-छिन बदलते दृश्यों को एक पैटर्न में गूँथा जा सके, समूचे दिन की एक कहानी बन सके। यह वही डेस्परेट इच्छा है जो दुनिया में एक ईश्वर को खोजती है, जो उसे कोई ऑर्डर, कोई अर्थ, कोई संगति दे सके। ऐसा होता नहीं। |
निर्मल वर्मा हिंदी के अप्रतिम कहानीकार-निबंधकार और उपन्यासकार हैं। उनकी डायरियाँ उनके सोच की पारदर्शी परतें हैं। यहाँ उनकी डायरी का एक अंश प्रस्तुत है उससे प्रेरित कलाकृति। |
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जैसे कल शाम सैर करते हुए मैं बार-बार हवा में हिलते पेड़ों और अपनी डायरी के बारे में सोचता रहा। हवा में झिर-झिर करते पेड़, जो कारंत जी के बंगले के पीछे सर्किट हाऊस के समानांतर जाने वाली सड़क पर दिखाई देते हैं। सोचा, घर वापस लौटूँगा तो इसके बारे में लिखूँगा। फिर आकाश में रोशनी का एक छोटा-सा घेरा दिखाई दिया, वह चाँद रहा होगा, जो बादलों के पीछे छुपा हुआ टिमक रहा था...फिर मैं उसे भूल गया और कुछ और सोचने लगा। जब सड़क के दूसरे छोर पर आया तो सचमुच चाँद दिखाई दिया, एक तिहाई कटा हुआ औऱ बादल कहीं न थे। फिर वह रोशनी क्या छलना थी या सोच के बीच अचानक बादल पिघल गया था जिसे मैं न देख पाया था? |
उस शाम सर्किट हाऊस के अँधेरे में लहरा रहे थे और वह हँसी-वह अब तुम न भी सुन सको-उसकी एक महीन सुदूर गूँज तो है जो मैं अपने साथ ले आई हूँ-और देखो यह चमत्कार कि तुम्हारी स्मृति में उनकी हँसी अब भी कमसिन और कुँआरी है... |
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लौटते हुए घर की ओर न जाकर उल्टी तरफ चलने लगा, छोटे तालाब के किनारे, जहाँ धोबियों की झोपड़ियाँ हैं और उनके सामने खड़ी समृद्ध कोठियाँ। मुझे सैर करते हुए मकानों के अंदरुनी झरोखे, बाग के फरफराते पेड़, गेट पर खड़े चौकीदार सब एक स्वप्निल दृश्य-सा दिखाई देता है : भोपाल एक स्वप्न? हर शाम यह शहर अपनी कोई नई तरफ खोल देता है, जैसे हम बचपन में बाइस्कोप देखते थे। सड़क पर चलते हुए मैंने देखा, मैं छात्राओं के होस्टल के सामने से गुजर रहा हूँ। भीतर एक वाटिका थी, बहुत घने पेड़ों के कुंज। वे शायद खाने के बाद वहाँ खड़ी थीं, हँस रही थीं, हवा उनकी हँसी मेरे पास तक ले आती थी। तालाब के पीछे शहर के घरों से किसी लाउडस्पीकर पर कोई फिल्मी धुन हवा में तैरती हुई पास आती थी। मुझे खटका हुआ, एक लड़का कहीं से आया और मुझे घूरता हुआ सामने से निकल गया। उसकी जिज्ञासा स्वाभाविक ही थी। वह शायद हैरान हो रहा था, मैं कौन हूँ जो कभी झील को देख रहा है, कभी आसमान को, कभी चलने लगता हूँ, कभी ठहर जाता हूँ, लड़कियों के होस्टल के सामने, हालाँकि वे कहीं बहुत दूर थीं : मैं सिर्फ उनकी हँसी सुन सकता था...और अब यह सब बीते हुए कल की कहानी मेरी डायरी में कितनी विपन्न, कितनी दयनीय जान पड़ती थी : लेकिन एक चीज रह जाएगी और शायद इन असमर्थ शब्दों की समय पर एकमात्र विजय है कि जब मैं बरसों बाद डायरी के इस पन्ने को पढ़ूँगा तो सहसा वह शाम अतीत की राख झाड़कर उठ खड़ी होगी, कहेगी, देखो यह वह चाँद है जो तुमने हमीदिया कॉलेज के ऊपर देखा था, ये वे पेड़ हैं जो उस शाम सर्किट हाऊस के अँधेरे में लहरा रहे थे और वह हँसी-वह अब तुम न भी सुन सको-उसकी एक महीन सुदूर गूँज तो है जो मैं अपने साथ ले आई हूँ-और देखो यह चमत्कार कि तुम्हारी स्मृति में उनकी हँसी अब भी कमसिन और कुँआरी है जबकि वे अब-तक न जाने कितने बच्चों की माएँ और घर की बहुएँ बन चुकी होंगी।(
भोपाल में 18 अक्टूबर 1982 को लिखी डायरी का अंश)(
अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित समास पत्रिका के गद्य का समय अंक से साभार)