मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025
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Written By WD

हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार देश भारत

हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार देश भारत - Weapons Import In India
राजकुमार कुम्भज
किसी भी दृष्टिकोण से यह कोई उपलब्धि नहीं है और न ही किसी तरह से भी गर्व करने वाली बात ही कही जा सकती है, कि भारत एक अर्से से दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार बना हुआ है ? यह तो विस्मय का विषय हो सकता है, कि विश्वशांति और अहिंसा का चरम पक्षधर देश भारत लगातार तीसरे बरस भी दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक रहा।


 


स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) द्वारा जारी ताजा रिपोर्ट के मुताबिक हम दुनिया में सबसे ज्यादा 14 फीसदी हथियार खरीदते हैं, जो कि चीन और पाकिस्तान की तुलना में तीन गुना ज्यादा हैं। युद्ध, अशांति और तनाव की स्थितियां ही देश और दुनिया को हथियारखोर बना रही हैं।
 
भारत सबसे ज्यादा हथियार रूस से खरीदता है, जहां तक निर्यात का प्रश्न है, तो अमेरिका 33 फीसदी के साथ पहले स्थान की स्थिति में स्थित है, जबकि 25 फीसदी के साथ रूस दूसरे स्थान पर चस्पा है। हमने सबसे ज्यादा हथियार खरीदने (14 फीसदी) का जो रिकार्ड बनाया है, वह चीन से तीन गुना ज्यादा है। सिप्री की रिपोर्ट के मुताबिक भारत द्वारा बड़ी मात्रा में हथियार आयात करने का एकमात्र कारण यही रहा है कि भारतीय हथियार उद्योग अभी तक स्वदेशी डिजाइन वाले प्रतिस्पर्धी हथियार बनाने में सफलता अर्जित नहीं कर सके हैं। अमेरिका दुनिया में सबसे ज्यादा 96 देशों को हथियार निर्यात करता है।
 
कई-कई मामलों में विकास और आत्मनिर्भरता का दावा ठोंकते रहने के बावजूद अपनी रक्षा जरूरतों की आपूर्ति में दूसरों पर आश्रित रहना क्या हमारी अब तक की संपूर्ण विकास यात्रा पर कुछ अधिक अनिवार्य और एक भारी-भरकम प्रश्नचिन्ह नहीं है ? सुरक्षा जरूरतों की आपूर्ति में आत्मनिर्भरता की बजाए दूसरे देशों पर निर्भर हो जाने से क्या हमें कुछ भी नुकसान नहीं उठाना पड़ता है ? आखि‍र यह कैसे संभव किया जा सकता है, कि हथियार निर्माता देश हमें पुरानी रक्षा प्रौद्योगिकी का निर्यात नहीं करें ? हथियार सौदों में शर्तों का एकतरफा निर्धारण कैसे उचित ठहराया जा सकता है ? अभी भी अधिकतर रक्षा सौदों के मामलों में यही होता आया है, कि हथियार निर्माता देश हमें अपनी मनमानी शर्तों पर पुरानी रक्षा प्रौद्योगिकी पकड़ा देते हैं, जिसका कि हमें बाद में भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है।
 
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) की रिपोर्ट प्रत्येक 5 बरस में इस आशय के आंकड़े जारी करती है। अभी जारी हुई ताजा रिपोर्ट से ही जाहिर हुआ है, कि वर्ष 2006-10 और 2011-15 के बीच हमने दुनिया में सबसे ज्यादा अर्थात्‌ 14 फीसदी हथियार आयात किए, जो चीन और पाकिस्तान की तुलना में तीन गुना ज्यादा है। सबसे अधिक चौंकाने वाली सूचना भी यही रही कि हमारे हथियार आयात में 90 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। वाकई यह भी क्या खूब है कि शांति का अग्रदूत देश हथियार आयातक देशों का भी अग्रदूत हो गया है और वह भी लगातार तीसरी बार ?
 
दुनिया के 46 फीसदी हथियार एशिया और ऑस्ट्रेलिया में बिकते हैं और इधर पांच बरस में हथियारों की यह बिक्री 26 फ़ीसदी बढ़ी है। भारत, सऊदी अरब, चीन, संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया यह पांच देश ऐसे हैं, जो दुनिया के 34 फीसदी हथियार आयात कर लेते हैं। इस कुल आयात में सबसे अधिक 33 फीसदी आयात अमेरिका से ही आता है, जिसमें सबसे बड़ा ग्राहक देश सऊदी अरब है, जबकि 25 फीसदी आयात के साथ रूस दूसरे क्रम पर और तकरीबन 6 फीसदी की खरीदी के साथ चीन तीसरे स्थान पर है।
 
चीन की रणनीति हथियार आयात की बजाय हथियार निर्यातक बनने की है। वर्ष 2006-10 के दौरान दुनियाभर के कुल निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 3.6 फीसदी थी, जो वर्ष 2011-15 में बढ़कर 5.9 फ़ीसदी हो गई। चीन में बने हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार पाकिस्तान है। चीन तक़रीबन 35 फीसदी हथियार पाकिस्तान को निर्यात करता है। चीन द्वारा पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में हथियार बेचे जाने पर भारत कई बार अपनी ओर से कठोर आपत्ति दर्ज करवा चुका है, किंतु सभी जानते हैं कि चीन और पाकिस्तान के बीच निकटता की वजह रणनीतिक के अलावा आर्थिक भी है।
 
हमारी दुनिया में, हमारी दुनिया के कुल 58 देश ऐसे हैं, जो अपने हथियार दुनियाभर में निर्यात करते हैं, लेकिन थोड़ी पड़ताल करने पर पता चलता है कि इनमें से 74 फीसदी हथियार अकेले पांच देश (अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और जर्मनी) मिलकर करते हैं। इन पांचों हथियार निर्माता-निर्यातक देशों का यह हथियार कारोबार लगातार दिन-दोगुना, रात-चौगुना की रफ्तार से फल-फूल रहा है।
 
इसी इंटरनेशनल रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है, जबकि हथियार निर्यातक देशों में अमेरिका की बादशाहत बरकरार बनी हुई है। इसी बीच हम पाते हैं, कि आर्थिक मोर्चों पर बेहद मुश्किलों का सामना कर रहा पाकिस्तान भी हथियार आयात मामले में शीर्ष दस देशों की सूची में शामिल है। अगर दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार खरीदकर हम पहले क्रम पर खड़े हैं, तो हमारा प्रिय पड़ोसी देश पाकिस्तान भी हमसे कुछ ही कदम नीचे सातवें क्रम पर हाजिर है। अन्यथा नहीं है कि अशांति का सीधा असर हथियारों के आयात पर पड़ता है। 
 
साफ-साफ देखा जा सकता है कि वर्ष 2011 से 2015 तक की समयावधि पश्चिम एशिया के लिए अशांति और अव्यवस्थाओं से भरपूर रही है, जिसका सीधा असर हथियार आयात पर आया। हथियारों के आयात-निर्यात को मुख्यतः किसी भी देश की भीतरी-बाहरी शांति-अशांति ही प्रभावित करती है, अगर समूची दुनिया में शांति स्थापित हो जाए और कहीं भी युद्ध नहीं हो तो हथियारों की जरूरत ही क्या रह जाएगी, किंतु क्या कभी यह संभव हो सकता है ? तब उन देशों का क्या होगा, जो दुनियाभर में हथियार बेचते हैं ? पूछा जा सकता है कि हथियार बेचने वाले देश क्या वाकई सिर्फ हथियार ही बेचते हैं और शेष-विशेष' कुछ नहीं ?
 
दुनिया जानती है कि हथियार निर्माता-निर्यातक देश अपनी अर्थव्यवस्था की दृढ़ता बनाए-बचाए रखने के लिए दुनियाभर के शांत-अशांत देशों में नाना-विधि नाना-प्रपंच कैसे रचते रहते हैं ? पश्चिम एशिया की अशांति का सीधा असर हथियारों के आयात पर साफ-साफ देखा जा सकता है। वर्ष 2011-2015 की अवधि में सऊदी अरब ने 27.5 फीसदी से कुछ अधिक हथियारों की खरीदी की, वहीं कतर ने इसी दौरान लगभग उतने ही याने 27.9 फीसदी से कुछ अधिक के हथियारों का आयात किया। अब अगर संयुक्त अरब अमीरात द्वारा खरीदे गए हथियारों में 35 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हुई है, तो मिश्र का हाल भी करीब-करीब एक जैसा ही रहा। मिश्र ने संयुक्त अरब अमीरात से 2 फीसदी अधिक अर्थात्‌ 37 फीसदी अधिक हथियार आयात किए।
 
हथियार निर्यातक देश दुनिया के किसी भी आयातक देश को सैन्य उपकरण और हथियार तो बेच देते हैं, किन्तु अपनी प्रौद्योगिकी को बचाए रखते हैं। अधिकतर हथियार निर्माता देश अपनी पुरानी रक्षा प्रौद्योगिकी ही दुनिया को बेचते हैं और वह भी तमाम-तमाम शर्तों और प्रतिबंधों के साथ। यहां बतौर उदाहरण देखा जा सकता है, कि अमेरिका अपने सैन्य-उपकरण और हथियार भारत को जब बेचता है, तो उसके साथ ही शर्तों और प्रतिबंधों का पुलिंदा भी लपेट देता है, जैसे यहीकि अमेरिका द्वारा निर्यात किए गए सैन्य उपकरणों और हथियारों का भारत कोई हमलावर इस्तेमाल नहीं करेगा और यह भी कि इस्तेमाल की जांच-पड़ताल के लिए अमेरिका कभी भी अपने प्रतिनिधि भारत में भेज सकेगा। कई-कई हथियार निर्यातक देश तो यहां तक की हरकत करते हैं कि तयशुदा सौदे-समझौते का उल्लंघन करते हुए अचानक ही किसी हथियार की मूल्य-वृद्धि कर देते हैं और पुराने सैन्य-विमान, सैन्य-उपकरण और हथियारों के सुधार-परिष्कार निमित्त, मुंहमांगी कीमत हड़प लेते हैं। कई-कई बार तो तयशुदा सौदों में तयशुदा कीमत के मूल सौदों से अलग, वे अधिक कीमत की मांग भी करते हैं।
 
दरअसल सैन्य-सौदे करने वाली ज्यादातर विदेशी कंपनियां व्यवसायिक होती हैं और अपने-अपने व्यवसायिक हितों की पूर्ति में ही हमें हथियारों की आपूर्ति करती हैं। सैन्य-उपकरण और हथियार उत्पादक व निर्यातक कंपनियों की ज्यादातर बातचीत हथियार सौदों तक ही केन्द्रित और सीमित रहती है, क्योंकि किसी भी सैन्य-उपकरण अथवा हथियार की तकनीक' पर कंपनी का कोई हक नहीं होता है। तकनीक पर एकमात्र अधिकार वहां की सरकारों का होता है। किसी भी देश की कोई भी सरकार तकनीक को अपना रणनीतिक-सौदा समझती है, इसलिए तकनीक के निर्यात पर नियंत्रण भी सरकार का ही होता है। ऐसी दयनीय स्थिति में हमारे समक्ष एकमात्र उपाय यही हो सकता है कि सैन्य-उपकरणों आदि के संदर्भ में हमें आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए। 
 
 
हमारे रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने अभी-अभी कहा भी है कि हम भारत में ही उच्च तकनीक से लैस, दुनिया के सबसे विकसित लड़ाकू विमान की उत्पादन-प्रक्रिया पर काम कर रहे हैं। रक्षामंत्री से पहले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अपनी एक महत्वाकांक्षी योजना मेक इन इंडिया के अंतर्गत लड़ाकू विमान बनाने के लिए खुली प्रतिस्पर्धा की घोषण कर ही चुके हैं। बहुत संभव है कि सैन्य-उपकरणों के संदर्भ में हमारी आत्मनिर्भरता की रक्षार्थ, रक्षा मंत्रालय और उद्योग जगत शीघ्र ही अपनी ठोस योजनाएं साकार करेंगे। अन्यथा नहीं है कि अगर डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेन्ट ऑर्गेनाइजेशन (डी.आर.डी.ओ.) के वैज्ञानिक ठान लें, तो बहुत कुछ संभव करते हुए सैन्य उपकरणों की आत्मनिर्भरता का सपना साकार किया जा सकता है।

अगर इसरो के वैज्ञानिक, अंतरिक्ष-तकनीक में भारत को किसी एक हद तक आत्मनिर्भर बना सकते हैं, तो डी.आर.डी.ओ. के वैज्ञानिक रक्षा क्षेत्र में काम आने वाले सैन्य-उपकरण बनाने वाली तकनीक में भारत को क्यों नहीं स्वावलंबी बना सकते हैं ? वैसे देखा जाए तो सैन्य-उपकरणों की निर्भरता से अधिक कारगर उपकरण कुशल सुरक्षा-कूटनीति का होता है। बेहतर है कि युद्ध, अशांति और तनाव की स्थितियां ही पैदा न हो, ये कैसे संभव हो ?