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हिन्दी गजलों में सराहनीय है दुष्यंत कुमार की भूमिका

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हिन्दी गजल हिन्दी साहित्य की एक नई विधा है। नई विधा इसलिए है, क्योंकि गजल मूलत फारसी की काव्य विधा है। फारसी से यह उर्दू में आई। गजल उर्दू भाषा की आत्मा है। गजल का अर्थ है प्रेमी-प्रेमिका का वार्तालाप। आरंभ में गजल प्रेम की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम थी, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ इसमें बदलाव आया और प्रेम के अतिरिक्त अन्य विषय भी इसमें सम्मिलित हो गए। आज हिन्दी गजल ने अपनी पहचान बना ली है। हिन्दी गजल को शिखर तक पहुंचाने में समकालीन कवि दुष्यंत कुमार की भूमिका सराहनीय रही है। वे दुष्यंत कुमार ही हैं, जिन्होंने हिन्दी गजल की रचना कर इसे विशेष पहचान दिलाई।
 
दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के गांव राजपुर नवादा में हुआ था। उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने आकाशवाणी भोपाल में सहायक निर्माता के रूप में कार्य शुरू किया था। प्रारंभ में वे परदेशी के नाम से लिखा करते थे, किन्तु बाद में वे अपने ही नाम से लिखने लगे। वे साहित्य की कई विधाओं में लेखन करते थे। उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत, छोटे-छोटे सवाल, आंगन में एक वृक्ष, दुहरी जिंदगी सम्मिलित हैं। उन्होंने एक मसीहा मर गया नामक नाटक भी लिखा। उन्होंने काव्य नाटक एक कंठ विषपायी की भी रचना की। उन्होंने लघुकथाएं भी लिखीं। उनके इस संग्रह का नाम मन के कोण है।  उनका गजल संग्रह साये में धूप बहुत लोकप्रिय हुआ।
 
दुष्यंत कुमार की गजलों में उनके समय की परिस्थितियों का वर्णन मिलता है। वे केवल प्रेम की बात नहीं करते, अपितु अपने आसपास के परिवेश को अपनी गजल का विषय बनाते है। वे कहते हैं-
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा
यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा
 
उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भ्रष्टाचार का उल्लेख किया। वे कहते हैं-
इस सड़क पर इस कद्र कीचड़ बिछी है
हर किसी का पांव घुटने तक सना है
 
शासन-प्रशासन की व्यवस्था पर भी वे कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं-
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा
 
वे सामाजिक परिस्थितियों पर भी अपनी लेखनी चलाते हैं। समाज में पनप रही संवेदनहीनता और मानवीय संवेदनाओं के ह्रास पर वे कहते हैं-
इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां
 
वे पलायनवादी कवि नहीं हैं। उन्होंने परिस्थितियों के दबाव में पलायन को नहीं चुना। वे हर विपरीत परिस्थिति में धैर्य के साथ आगे बढ़ने की बात करते हैं। उनका मानना था कि अगर साहस के साथ मुकाबला किया जाए, तो कोई शक्ति आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। वे कहते हैं-
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों
 
वास्तव में दुष्यंत कुमार आम आदमी के कवि हैं। उन्होंने आम लोगों की पीड़ा को अपनी गजलों में स्थान दिया। उनके दुखों को गहराई से अनुभव किया। वे कहते हैं-
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
 
वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें कोई अभाव में न रहे। किन्तु देश में गरीबी है। लोग अभाव में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उन्हें भरपेट खाने को भी नहीं मिलता। इन परिस्थतियों से दुष्यंत कुमार कराह उठते हैं. वे कहते हैं-
कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए
जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
 
दुष्यंत कुमार ने बहुत कम समय में वह लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी, जो हर किसी को नहीं मिलती. किन्तु नियति के क्रूर हाथों ने उन्हें छीन लिया. उनका निधन 30 दिसम्बर, 1975 में हुआ. केवल 42 वर्ष की अवस्था में हिन्दी गजल का एक नक्षत्र हमेशा के लिए अस्त हो गया। हिन्दी साहित्य जगत में उनकी कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता। 
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