मैं और मेरे नारी पात्र (2)
महिला रचनाकारों द्वारा रचे गए नारी चरित्र
प्रस्तुत है, कुछ चर्चित उपन्यासों के नारी चरित्रों के बारे में उन्हें गढ़ने वाली प्रमुख महिला रचनाकारों के अपने बयान कि किन स्थितियों ने उन्हें प्रेरित किया, कैसे उन चरित्रों ने आकार लिया और कागज पर उतरने के बाद उन चरित्रों ने कितनी समानधर्मा पाठिकाओं के अंतस को छुआ और एक दिशा दी। सुधा अरोड़ा :यहीं कहीं था घर' की दो चरित्र 50
साल पहले की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास 'यहीं कहीं था घर' आधुनिकता और परंपरा के द्वन्द्व में उलझा है। जब मैंने यह उपन्यास लिखा था, न मेरे दिमाग में कोई मुद्दा था, स्त्री की सामाजिक स्थिति को लेकर कोई चिंतन, न औरतों की समस्याओं का विश्लेषण करने की गंभीर मन:स्थिति। थी तो बस एक छोटी-सी इच्छा कि जो सबकुछ हमारे आसपास इतना बेआवाज घटित हो जाता है, उसे उसकी पूरी सचाई और पारदर्शिता के साथ बयान कर सकूँ। जब लिख चुकी तो देखा कि घटनाओं के विवरण के बीच विमर्श तो खुद ब खुद दबे पाँव चले आता है। उपन्यास में दो घर है। पहला घर उस अच्छी लड़की का है, जो अरेंज्ड मैरिज के रीति रिवाजों और परंपरा की बलि चढ़ीं। और दूसरा घर उस लड़की का जिसने प्रेम विवाह किया। औसत भारतीय प्रेम विवाह की तरह यह भी वहीं से शुरु हुआ जहाँ प्रेम समाप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं केवल सामंती संस्कार। एक तरफ लड़की के पैदा होने से लेकर हिदायतों के बीच बड़े होने फिर जड़ समेत घर की मिट्टी से उखड़ने की कहानी है दूसरी तरफ लड़की से औरत बनने के दौरान तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों से निहत्थे जूझने और अपने घर को बचाए रखने में सारी ऊर्जा खपा देने की व्यथा है।
मन्नू भंडारी : 'आपका बंटी' की शकुन '
मेरे उपन्यास 'आपका बंटी' की समीक्षाओं-चर्चाओं में हमेशा बंटी ही छाया रहा। शकुन तो एक तरह से हाशिये में जा पड़ी। उसे अपेक्षित महत्त्व मिला ही नहीं जब कि मेरे हिसाब से वह उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण चरित्र है। जरूरी है कि एक आधुनिक स्त्री के सन्दर्भ में उसके चरित्र के बारे में मै कुछ कहूँ। हमसे पहले वाली पीढ़ी का ना तो कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व होता था, ना ही कोई स्वतंत्र पहचान, वह तो मात्र रिश्तों से ही पहचानी जाती थी। रिश्तों से परे भी उसका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है, उसका अपना कोई नाम भी है, इस बात का उसे कोई बोध तक नहीं था। न उसे, न उसके परिवार के लोगों को, बल्कि कहूँ कि समाज को। समय के साथ-साथ शिक्षा, जागरूकता,आर्थिक स्वतंत्रता, और बाहरी दुनिया से बढ़ते रिश्तों ने उसके भीतर इस बोध को जगाया कि रिश्तों से परे भी उसकी अपनी एक स्वतंत्र सत्ता है। सबसे नाजुक रिश्ता होता है माँ और बच्चे का। मातृत्व की उपेक्षा कर किसी भी माँ के लिए अपने व्यक्तित्व की बात सोचना, आशाओं-आकांक्षाओं की बात सोचना असंभव चाहे न हो पर कठिन तो है ही। मातृत्व और व्यक्तित्व का यह द्वन्द्व ही शकुन के चरित्र की कुंजी है।
नासिरा शर्मा : ' शाल्मली' की शाल्मली शाल्मली, मेरे तीसरे उपन्यास की पात्र है। शाल्मली संस्कृत भाषा में सेमल के दरख्त को कहते हैं। पाताल में बहने वाली नदी और एक नर्क का नाम भी शाल्मली है। शाल्मली की लकड़ी जल में जितना भीगे उतनी ही मजबूत होती है। ना जाने क्यों सेमल का दरख्त मुझे औरत से मिलता-जुलता लगा। जिसके फूलों के पराग को चूसने के लिए परिंदे और रेंगने वाले कीड़े भरे रहते हैं वृक्ष की डालियों पर। उपन्यास की मुख्य पात्रा का नाम शाल्मली रखा। वह सारे सवाल जो मुझे पति-पत्नी के बीच अहम लगते थे, मैंने शाल्मली और नरेश के माध्यम से व्यक्त किए। शाल्मली एक भारतीय या कहूँ कि एशियाई औरत का चरित्र है। यह चरित्र मैंने यूँ ही नहीं गढ़ा था बल्कि अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में विश्व भर की महिलाओं से मिलने का जो मौका मुझे मिला, उनके और मेरे अनुभव के आधार पर रचा गया था। शाल्मली को लिखने में जो सुख मिला वह छपने के बाद कपूर बन उड़ने लगा। मेरे उठाए सवालों से पढ़ने वालों के सवाल टकराने लगे और वे उन सवालों को कर रहे थे जो उनके अपने अनुभवों के आधार पर खड़े हुए थे। आजादी के बाद जिस नई औरत ने आँखें खोली थी उसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया। औरत अब घर-बाहर दोनों का ख्वाब देखती है। आज शाल्मली को छपे 25 वर्ष हो रहे हैं और मेरे सवाल अब ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठें हैं। शाल्मली के चरित्र ने मुझे एक अनुभव दिया कि लेखक चरित्र को गढ़ने में ही अपने को होम नहीं करता बल्कि चरित्र को पाठक द्वारा स्वीकार किए जाने का भी इंतजार करता है। शाल्मली एक जिंदा किरदार बना जो बरसों को पार करता आज भी अहम है।
मृदुला गर्ग : 'कठगुलाब' की नर्मदा नर्मदा गरीब तबके की अनाथ बच्ची है जो शादीशुदा बहन के घर रह कर चूड़ी कारखाने में बाल श्रमिक की तरह काम करती है। भट्टी की तेज आग के सामने 14 घंटे काम करके व गर्म पिघले शीशे को सलाखों पर लेकर दौड़ते हुए, जब-तब जल जाने से कमजोर पड़ जाने पर निकाल दी जाती है। तब घरेलू नौकरानी की तरह काम करती है। उसका जीजा उससे जबरन शादी कर लेता है। वह विरोध नहीं कर पाती क्योंकि मानसिक रूप से बीमार भाई को छोड़ नहीं सकती। तमाम दुख दर्द के बावजूद वह कटु नहीं होती। मानवीय संवेदना से ओतप्रोत रहती है। वह दबंग होने के साथ करुणामयी है। एक वक्त वही ठसके से महिला पत्रकार से कहती है,' चौराहे पर खड़ा बालक खुद अपनी तकलीफ बयान करे तो कोई सुनने को तैयार ना हो पर वहीं सब यह (पत्रकार) दोहराएगी तो वही लोग पैसा खर्च करके दुख खरीदेंगे। जाओ, वहीं चौराहे पर खड़ी रहो मुझे ना बेचनी दुख-तकलीफ अपनी।
सूर्यबाला : 'संधिपत्र' की शिवा 70
के दशक में धर्मयुग में प्रकाशित होने वाला मेरा पहला उपन्यास 'मेरे संधिपत्र' आज भी मर्मज्ञ पाठकों की चहेती कृति बना हुआ है। इसकी नायिका शिवा को जिस आदर भाव से लोगों ने स्वीकारा उसने मुझे विस्मित और अभिभूत कर दिया। एयरफोर्स के किसी अधिकारी का लिखा एक वाक्य मुझे कभी नहीं भूलता कि ' अगर शिवा आपको कभी मिले तो उसे मेरा प्रणाम दीजिएगा। कुछ पाठकों ने लिखा था, ' शिवा, विद्रोह क्यों नहीं करती? वह जीवन में समझौते क्यों करती है? अपने लिए क्यों नहीं जीतीं? आपने शिवा को समर्थ स्त्री क्यों नहीं बनाया? मेरी समर्थ स्त्री की परिभाषा थोड़ी भिन्न है। मेरी दृष्टि में स्वयं अपने लिए सबकुछ समेटने वाली स्त्री से ज्यादा समर्थ वह स्त्री है जो दूसरों के हक और हित में खड़ी होती है। अपनी विडंबनाओं का रोना ना रोकर बगैर शोर किए विवेक से निर्णय लेती है। शिवा मेधावी, कुशाग्र और अति संवेदनशील है। मैंने अक्सर महसूस किया है कि बाहरी संघर्षों से ज्यादा मर्मांतक मानसिक अंतर्द्वंद्वों की लड़ाइयाँ होती है। शहर के समृद्ध रायजादा परिवार ने विपन्न परिवार की शिवा को अपने घर की बहू बनाया है। पहली पत्नी की संतान शिवा पर जान छिड़कती है और पति भी वफादार है। ऐसे में शिवा किसका विरोध करे? क्या सिर्फ इसलिए कि उसका पति विचार और संवेदका के स्तर पर शिवा से हीन है? यहाँ शोषण किया नहीं जा रहा है मगर हो रहा है। और दोषी कोई नहीं। यह मानसिक लड़ाई कहीं ज्यादा गहरी और त्रासद है। स्त्री के अदृश्य मानस लोक की यही दुर्दम्य लड़ाई शिवा ने लड़ी है। अपनी संवेदना के बूते पर। और एक मूल्यवान जीवन जीने की राह निकाली है। यह राह आत्सम्मान और खुद्दारी की है। एक स्वतंत्र चेता स्त्री के विवेक की है। यह राह लेने से ज्यादा देने में विश्वास रखती है। मेरी समझ से आज समूचे विश्व को ऐसी स्त्री की जरूरत ज्यादा है।
कमल कुमार : 'मैं घूमर नाचूँ' की कृष्णा रूपकुवँर सती हुई थी तो सती स्थल पर नहीं जाने दिया गया था। पर मैं वहाँ के चप्पे-चप्पे घुमी थी। वहाँ की प्रकृति, दुर्ग, गढ़ी, स्तूप, बावड़ियाँ, मंदिर, लोकगीतों, लोकधुनों और जादू-टोनों के साथ वहाँ की औरत 'सती', 'विधवा' और सधवा का भी भीतरीकरण हो गया था। मैं घूमर नाचूँ की कृष्णा भी बरसों तक मेरे भीतर साँस लेती रही। आख्यातीज की गोद में बनी दुल्हन और 9 वर्ष की उम्र में हुई विधवा, विधवा और सधवा दोनों के अर्थ से अनभिज्ञ सामाजिक लाँछन, प्रताड़ना और उत्पीड़न सहती, कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं। जीवन उत्तरार्ध के अकेलेपन में बचपन के कला संस्कारों ने उसके भीतर एक बड़े कलाकार को उद्घाटित किया। सैकड़ों कलाकृतियों का संग्रह आँगन के कोनों में बढ़ता रहा। दूसरी ओर अपने से बहुत छोटे डॉ. आयुष के साथ स्त्री प्रकृति के अनुरूप आत्मिक संबंध बना जो देह पर प्रतिफलित हुआ। इस रिश्ते ने उसे उर्जस्वित किया। स्त्री आकांक्षाओं की पूर्ति की। सवाल यह उठता है कि क्या इस संसार में जिया गया जीवन निर्दोष हो सकता है? स्त्री के संदर्भ में उसके जीवित रहने के निश्चय से ही पाप हो जाते हैं? औरत की मुक्ति उसके मस्तिष्क से शुरू होती है उसकी देह से नहीं।