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Written By WD

शेखर गुप्ता : अंगरेजी पर भारी हिन्दी भाषी

शेखर गुप्ता : अंगरेजी पर भारी हिन्दी भाषी -
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न सिर्फ 'हिन्दी दिवस' पर बल्कि हर दिन हम हिन्दी के विरूद्ध अंगरेजी को खड़ा पाते हैं। अंगरेजी पढ़ना-बोलना और लिखना हिन्दी भाषी व्यक्ति के लिए अक्सर मुश्किल माना जाता है। शेखर गुप्ता एक ऐसा नाम है जो इन समस्त भ्रांतियों को तोड़कर 'अंगरेजी दुनिया' पर भारी है। शेखर उन प्रतिभाशाली युवाओं के लिए प्रेरणा हो सकते हैं जो मात्र अंगरेजी ना बोल पाने की कुंठा के चलते आगे नहीं बढ़ पा‍ते।

हर साल 14 सितम्बर को 'हिन्दी दिवस' को मनाए जाने की रस्म है और अंग्रेजी के इस युग में हिन्दी दिवस महज रस्म अदायगी बनकर रह गया है। अंग्रेजी इस कदर हावी है कि इससे अनजान लोगों को दूसरी नजरों से देखा जाता है। आजादी के 65 साल बीतने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रभाषा का वह दर्जा हासिल करने में नाकाम रही है, जिसकी वकालत देश को चलाने वाले करते आए हैं।

जरुरी नहीं है कि जिन बच्चों ने बचपन में स्कूली शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से नहीं की हो वे अंग्रेजी जानने और समझने वालों से कमतर हों। अंग्रेजी अखबार 'इंडियन एक्सप्रेस' के संपादक शेखर गुप्ता आज इस बात की सबसे बड़ी मिसाल हैं।

शेखर गुप्ता न केवल इंडियन एक्सप्रेस के संपादक हैं बल्कि इस संस्थान में उनकी भागीदारी भी है। गुरुवार के दिन खबरिया चैनल 'एबीपी' न्यूज ने एक रिपोर्ट के साथ इंटरव्यू प्रसारित किया, जिसमें बताया गया कि शेखर ने हरियाणा के सिरसा में पांचवीं कक्षा तक हिन्दी स्कूल में पढ़ाई की और छठी कक्षा में जाकर एबीसीडी क्या होती है, इसे पहली बार अपनी कॉपी में लिखा।

शेखर के अनुसार जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब छठी कक्षा में अंग्रेजी से सामना हुआ और हमारे एक टीचर दिल्ली जाकर कबाड़ी की दुकान से पुरानी 'टाइम' पत्रिका लाया करते थे और उसे हम पढ़ने की कोशिश करते थे। सच पूछा जाए 'टाइम' से मैंने अंग्रेजी नहीं सुधारी बल्कि क्रिकेट के शौक की वजह से मेरी अंग्रेजी दुरुस्त हुई। तब रेडियो पर अंग्रेजी में कॉमेंट्री आती थी और ध्यान से मैं सुना करता था।

क्रिकेट कॉमेंट्री के अलावा बीबीसी रेडियो के जरिए मेरी अंग्रेजी अच्छी होती चली गई। 1977 में मैंने दिल्ली से पत्रका‍रिता की शुरुआत की और वहां पर पाया कि संभ्रांत लोगों में वही बैठ सकता है, जिसे अंग्रेजी का ज्ञान हो। यह वह वक्त था, जब दिल्ली 'एलिट वर्ग' के लोगों से घिरी हुई थी लेकिन जैसे जैसे वक्त बीता मैं इस एलिट वर्ग में रमता चला गया।

शेखर का मानना है कि अंग्रेजी वालों के मुकाबले हिंदी वालों को ज्यादा काम करना पड़ता है और इसी से वे आगे बढ़ते हैं। 'इंडिया टुडे' के संपादक रह चुके शेखर गुप्ता ने बताया कि मैं एक बार इंफोसिस के दीक्षांत समारोह में शामिल होने के लिए बेंगलुरु गया था। वहां पर मैंने दुनियाभर से आए आईटी इंजीनियरों से सवाल किया कि आप में से ऐसे कितने हैं, जो इं‍ग्लिश मीडियम स्कूल से पढ़े हैं? जवाब में 5 फीसदी युवाओं ने हाथ खड़े किए। केवल 1 फीसदी युवा ऐसे थे जो नामी इंग्लिश मीडियम में पढ़े थे और ढाई फीसदी ऐसे थे जो आईआईटी से आए थे।

इस तरह हॉल में बैठे टॉप इंजीनियर्स की पढ़ाई हिन्दी मीडियम के स्कूलों से शुरु हुई थी और बाद में जाकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी। शेखर के अनुसार जब मैंने इंफोसिस के प्रबंधकों से पूछा कि फिर ये टॉप क्लास के युवा विश्वभर में कैसे धूम मचा रहे हैं तो उनका जवाब था कि हम अपनी ट्रेनिंग के दौरान इन्हें और अच्छी अंग्रेजी बोलना सिखलाते हैं। कुल मिलाकर यह कहना बेमानी है कि टॉप क्लास के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़कर ही शीर्ष पर पहुंचा जा सकता है।

हिन्दी पत्रकारिता के अहम हस्ताक्षर रहे स्व. प्रभाष जोशी ने भी उज्जैन के एक सरकारी स्कूल से शिक्षा प्रारंभ की और हिंदी पत्रकारिता करते-करते अपनी अंग्रेजी सुधारी। इंदौर से पत्रकारिता के ‍करियर की शुरुआत करने के बाद वे भोपाल होते हुए दिल्ली गए और बाद में चंडीगढ़ में 'इंडियन एक्सप्रेस' के संपादक हुए।

1992 में रामनाथ गोयनका द्वारा 'जनसत्ता' अखबार की शुरुआत करने के पीछे भी प्रभाष जोशी का ही पूरा तानाबाना था। प्रभाष जी द्वारा लिखी गई गई पुस्तकें आज के दौर में हिन्दी पत्रकारिता करने वालों के लिए प्रेरणास्पद साबित हों सकती है। (वेबदुनिया न्यूज)