बुद्धिवाद : एक उदीयमान दर्शन
पुस्तक समीक्षा
डॉ. आभा होलकर बुद्धिवाद पर चर्चा करते हुए लेखक डॉ. बंदिष्टे कहते हैं कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, किंतु प्रायः उसकी बुद्धि किसी संप्रदाय या पंथ विशेष की गुलाम प्रतीत होती है। यहाँ तक कि उसको मूलगामी (मौलिक) प्रश्न पूछने की अनुमति भी नहीं है। इस स्थिति के विरोधस्वरूप आजकल कुछ स्वर उठने लगे हैं, परंतु उन्हें दबाने की कोशिशें चल रही हैं। डार्विन के विकासवाद को उसके विज्ञान सिद्ध होने के बावजूद कितने ही देशों तथा शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाने नहीं दिया जाता। दर्शन के क्षेत्र में डॉ. बंदिष्टे की यह हिन्दी भाषा में प्रथम पुस्तक है। बुद्धिवाद के विषय में डॉ. बंदिष्टे का तर्क है कि बुद्धिवादी को विभिन्न प्राथमिक ज्ञान किसी न किसी के प्रत्यक्ष अनुभव से ही मिलता है। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान गलत भी हो सकता है, किंतु ये गलतियाँ कोई और प्रत्यक्ष अनुभव ही सुधारता है, किसी अन्य तरह का ज्ञान नहीं। प्रत्येक बुद्धिवादी की यह सोच होनी चाहिए कि 'हो सकता है, मैं गलत हूँ।' इस तरह का दृष्टिकोण यदि विश्वस्तर पर सभी लोग अपनाएँगे तो आधे से अधिक विवाद निरस्त हो सकते हैं। लेखक का आग्रह है कि हमें वास्तववादी भूमिका अपनानी चाहिए, क्योंकि हमें रहने, सुधारने के लिए यह इहलोक मात्र ही है, इसे हमें अपने प्रयत्नों से स्वर्ग बनाना चाहिए। प्रगति का यह प्रवास अनंत है। डॉ. बंदिष्टे मानते हैं कि ज्ञान प्राप्ति की हर प्रक्रिया ज्ञाता को बदलती है, ज्ञेय को नहीं। ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया को सहृदयता का साथ मिले, तो इंसान प्रगति भी कर सकता है। मनुष्य के बदलने से उसके मूल्य भी बदलते हैं, समाज की सुखदायक प्रगति के लिए ही नैतिक मूल्यों का विकास होता रहा है। वे नियतिवाद को मानते हैं, साथ ही स्वातंत्र्य को भी। अपराधी को दंड देने के उनके सुझाव भी नए, किंतु सार्थक लगते हैं। नैतिककर्ता के रूप में वे व्यक्ति के साथ ही समाज को भी जोड़ते हैं। इस बुद्धिवादी दिशा में और लिखा जाना चाहिए। लेखक ने 'बुद्धिवादी' और 'बुद्धिजीवी' का भेद समझाकर एक अच्छा काम किया है। पुस्तक : बुद्धिवाद (एक उदीयमान दर्शन) लेखक : डॉ. डीडी बंदिष्टे प्रकाशक : मप्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर मार्ग, बाणगंगा, भोपाल मूल्य : 120 रु.