पार रूप के : कला रस का आस्वाद
रूप और भावरूप का समग्र साक्षात्कार
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संदीप राशिनकर ऐतिहासिक स्थानों के पर्यटन में गाइड की महत्ता को समझने वाले पर्यटक जानते हैं कि दृश्य परिवेश को जब ऐतिहासिक संदर्भों के साथ देखा जाता है तो जड़ दृश्य रूप न सिर्फ जड़ता तोड़ आपसे संवादरत होता है वरन परिवेश की भावभूमि आपके आनंद को द्विगुणित करती है। जो हम देख रहे हैं, वह तो रूप का हिस्सा मात्र है किंतु उसे जब सृजन की भावभूमि से जोड़कर देखें तो रूप की समग्रता के वे दर्शन होते हैं, जो दर्शक को भाव-विभोर कर देते हैं।कला के समग्रता में आस्वाद की जिजीविषा से सृजित हुई है अभिनव कृति 'पार रूप के'। लेखक नर्मदाप्रसाद उपाध्याय भारतीय कला क्षेत्र के वे जिज्ञासु अभ्यासक हैं जिन्होंने इसके पूर्व भी 'भारतीय चित्रांकन परंपरा' नाम की एक महत्वपूर्ण कृति लिखी है। अपने लालित्यपूर्ण निबंधों से शब्दों के प्रभावी रूपाकार गढ़ने वाले इस लेखक ने भारतीय कला के श्रमसाध्य अभ्यास के दौरान रूप को निहारने की प्रक्रिया में उसकी भावभूमि का शोध किया है। कला के मर्म को संपूर्णता में समझने की प्रक्रिया में रूप को उसकी भावभूमि के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित कर उसे समग्रता में देखने, सोचने और विचारने की अभिनव कला-दृष्टि के विकास की पहल की है।अभिव्यक्ति के विभिन्न अनुशासनों की पड़ताल में उभरे कला और साहित्य के अंतरसंबंधों को व्याख्यायित करते इस प्रयास में रूप और रूप के पार का समग्र सौंदर्य पूरी शिद्दत से उभरकर एक अलौकिक कला रस की उत्पत्ति करता है। भारतीय चित्रांकन की समृद्ध परंपरा से साक्षात कराने के उद्देश्य से वैदिक युग से मुगलकाल तक की कला परंपरा का परिचय इस पुस्तक में विभिन्न आलेखों के जरिए दिया गया है। मध्यकालीन विभिन्न आंचलिक लघु चित्रों के संदर्भ में परिश्रमपूर्वक एकत्रित की गई महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ ही तात्कालिक चित्रकारों की अभिनव जानकारियाँ पुस्तक की सामग्री को अमूल्य बनाती हैं। साहित्य की भावभूमि से चित्रों के अंतरसंबंध का रेखांकन कृति को विराट आयाम देता है। यह कृति इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि संभवतः भारतीय लघुचित्रों के बारे में इतनी वृहद सामग्री हिन्दी में प्रथम बार ही आई है। इसमें निहित कला, कला दृष्टि और इसके साहित्यिक अंतरसंबंधों को खंगालती अभिनव मौलिक दृष्टि कला के शिक्षार्थियों के लिए अनुपम सौगात है। यह प्रयास इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि एक साहित्यिक मर्मज्ञ ने कला अनुशासन की दीर्घ साधना कर कला क्षेत्र को एक बहुआयामी देन से नवाजा है। साथ ही साहित्य व कला अनुशासन में अपेक्षित रचनात्मक आवाजाही के लिए नए दालान खोले हैं। प्रामाणिक कला-विषयक पुस्तकों के अकाल से जूझते हिन्दी पुस्तक विश्व में ऐसी खोजपूर्ण, सामग्रीपरक पुस्तक का आना निश्चित ही स्वागतयोग्य है। पुस्तक के अंत में प्रकाशित चित्र वीथिका भारतीय लघु चित्रों की समृद्ध परंपरा से साक्षात कराती है।पुस्तक : पार रूप केलेखक : नर्मदा प्रसाद उपाध्यायप्रकाशक : श्री बेनी माधव प्रकाशन गृह, हरदामूल्य : पाँच सौ रु.