क्या चीन हमारा दोस्त है?
सांस्कृतिक संबंधों की तलाश करती पुस्तक
सत्येंद्र रंजन चीन को लेकर भारत में अक्सर दो तरह की धारणाएँ हम देखते हैं। एक तरफ चीन की अद्भुत आर्थिक प्रगति लेकर लोग हैरत में नजर आते हैं, तो दूसरी तरफ दुश्मनी का पुराना भाव जब-तब उभरता रहता है। तेज आर्थिक विकास के पैरोकार चीन से सबक लेने की सलाह देते हैं, तो चीन के हर कदम के पीछे भारत को घेरने की चाल तलाशना अपने मीडिया का प्रिय शगल है। यह कहा जा सकता है कि मुख्यधारा की चर्चाओं में अब तक यह तय नहीं किया जा सका है कि चीन हमारा दोस्त है, या एक ऐसा पड़ोसी है जिससे दुश्मनी कभी खत्म नहीं होगी। इन दोनों ही तरह के अतिवादी विचारों के पीछे निश्चित रूप से एक बड़ी वजह जानकारियों की कमी है। चंद दिनों की चीन के बड़े शहरों की यात्राएँ चमत्कृत करती हैं, तो पाँच दशक पुरानी घटनाओं की छाया, जिसे मीडिया लगातार गहराए रखने की कोशिश करता है, चीन के प्रति हमारी सोच को प्रभावित करती रहती है। संभवतः ये दोनों ही मान्यताएँ बदल सकती हैं, अगर चीन को गहराई से जाना जाए और चीनी जन मानस की असली सोच को समझा जाए। रश्मि झा की किताब 'चीन के दिन' इस जरूरत को काफी हद तक पूरा करती है। '
चीन के दिन' एक यात्रा वृतांत है, मगर इससे कुछ अधिक भी है। लेखिका वहाँ चीनी चिकित्सा पद्धति का अध्ययन करने गईं लेकिन अपनी जिज्ञासा और उत्साह की वजह से उन्होंने 35 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा कर डाली। इस दौरान उनका चीन के आम लोगों से परिचय हुआ, उन लोगों से मन के रिश्ते बने। उनकी दोनों चीन यात्राएँ 1990 के दशक के मध्य में हुईं। जो बकौल लेखिका चीन गणराज्य के नव-निर्माण का काल था। रश्मि झा के मुताबिक अपने चीन प्रवास के दौरान उन्होंने 'चीन की भूमि पर भारतीय संस्कृति के प्रकाशवृत्त में खड़े होकर शेष विश्व को देखा।' यह अनुभव कैसा रहा, नए संदर्भों में आधुनिक भारत के निर्माण से सरोकार रखने वाले हर शख्स के लिए यह दिलचस्पी का विषय होना चाहिए। नया चीन कैसा है, वहाँ के लोग क्या सोचते हैं और भारत के बारे में उनकी क्या धारणाएँ हैं, इसका इस पुस्तक में जीवंत और उपयोगी वर्णन है। राजू यानी फिल्म 'आवारा' के राज कपूर का जादू वहाँ आज भी कितना कायम है और इन स्मृतियों का क्या संदेश है, ये बातें दोनों देशों की जनता के बीच आपसी रिश्ते कायम करने के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हैं। रश्मि झा के अनुभव कई गलतफहमियाँ तोड़ते हैं और भारत-चीन संबंधों को देखने के लिए कुछ नई चीजें उपलब्ध कराते हैं, यह बात किताब को पढ़ते हुए सहज सामने आती है। पाँच दशक पुरानी घटनाओं का जिक्र करते हुए लेखिका की यह टिप्पणी गौरतलब है- 'बुद्ध, फाह्यान, ह्वेनसाँग, डॉ. कोटनीस, डॉ. सुनयात सेन और सिल्क रूट के सर्जकों, व्यापारियों ने जितने सांस्कृतिक सेतु निर्मित किए थे, वे सब अविश्वास की धुंध में गुम हो गए।' इस किताब को उन रास्तों को फिर से ढूँढ निकालने की कोशिशों का एक हिस्सा माना जा सकता है।पुस्तक : चीन के दिन लेखिका : रश्मि झा प्रकाशक : सामयिक बुक्स, नई दिल्ली मूल्य : 300 रुपए