अहमदाबाद। देश में गुजरात विकास मॉडल के नए प्रतिमान गढ़ने वाले राज्य के साथ ऐसा राज्य भी है जहां नीची जातियों के लोगों के लिए अलग श्मशान की भी व्यवस्था नहीं है। कहने का अर्थ है कि राज्य के दलितों के साथ छुआछूत का भेद मरने के बाद भी बना रहता है।
श्मशान और कब्रिस्तान जैसे शब्द उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान खूब दोहराए गए और यह दो शब्द लोगों के धर्म की पहचान बताने के लिए काफी हैं। लेकिन, गुजरात के कई जिलों में आप श्मशान और कब्रिस्तान से दलितों के धर्म का पता नहीं लगा सकते हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले मुद्दों की पड़ताल के दौरान यह बात सामने आई है कि राज्य के दलितों के पास ‘श्मशान’ नहीं है इसलिए वे अपने परिजनों को मुस्लिमों की तरह से दफनाते हैं।
राज्य के सुरेंद्रनगर जिले के ज्यादातर गांवों में वाल्मिकी समाज और दलितों को दफनाया जाता है। धर्म से हिंदू होने के बावजूद इनका अंतिम संस्कार मुस्लिमों की तरह होता है। हिंदू और मुसलमानों के दफनाने में बस फर्क इस बात का है कि मुसलमानों की तरह दलित हिंदू मकबरा नहीं बनाते हैं। हिंदू दलित दफनाने के बाद मिट्टी को ऊंची नहीं करते हैं, जबकि इस्लाम में ऐसा किया जाता है।
इस जिले में दफनाने की परंपरा सिर्फ नीची जाति के लोगों के लिए ही है। लेकिन ऐसा क्यों है, इसकी कोई साफ वजह पता नहीं चलती है। हालांकि राज्य में हर जगह ऐसा नहीं होता है और कुछ इलाकों में दलितों को जलाया भी जाता है लेकिन दफनाने की परंपरा के पीछे एक वजह वायु प्रदूषण से बचाव भी है।
ऐसा माना जाता है कि वर्षों पहले गुजरात के इस समुदाय ने वायु प्रदूषण से बचने के लिए मरने के बाद जलाने के बजाय दफनाना शुरू कर दिया लेकिन इस बात के ठोस प्रमाण नहीं हैं। जबकि असलियत यह है कि यहां ऊंची और नीची जातियों के बीच का फर्क इतना ज्यादा होगा कि उन्हें सामान्य हिंदू रीति रिवाजों को अपनाने की भी छूट नहीं थी।
वर्षों से चली आ रही इस परंपरा यह फर्क आज भी साफ नजर आता है। यही वजह है कि कई जिलों में सवर्णों के लिए अलग श्मशान है और नीची जातियों के लोगों के लिए अलग श्मशान की व्यवस्था की गई है। यानी छुआछूत का भेद मरने के बाद भी जारी रहता है। तीसरी तर्क यह भी हो सकता है कि ये लोग पहले मुसलमान होंगे, जिन्होंने बाद में धर्म बदल लिया होगा।
कहते हैं मौत के बाद जीवन का संघर्ष खत्म हो जाता है, लेकिन सुरेंद्रनगर जिले के शयानी गांव के दलित और वाल्मिकी जाति के लोगों का संघर्ष मौत के बाद भी जारी रहता है। 70-80 साल के बूढ़े लोगों की झुर्रियों में धंसी आंखों में यह उम्मीद है कि मौत के बाद उन्हें चैन से दो गज जमीन नसीब हो सकती है।
लेकिन, गांव के इस समुदाय के लिए यह किसी सपने से कम नहीं है। यह लोग कहते हैं कि पूरी जिंदगी हमारी छुआछूत में बीत गई अब मरने के बाद भी हमें सम्मान नहीं मिलता है।’ गांव में करीब 10 हजार घर हैं, इनमें से 30 घर वाल्मिकी और लगभग 50 घर दलितों के हैं। बाकी सवर्णों के घर हैं, इस गांव में छुआछूत का असर इतना ज्यादा है कि दलितों और वाल्मिकी समाज के लिए अलग श्मशान की व्यवस्था है।
हालांकि यह बात अलग है कि वाल्मिकी समाज के लिए जहां श्मशान की जमीन मिली है वह पानी में डूबी रहती है। जमीन का यह छोटा सा टुकड़ा एक नहर के बीच है लिहाजा उसमें हमेशा पानी भरा रहता है। मरने के बाद भी वाल्मिकी समाज के लोगों की विदाई ठीक से नहीं हो पाती हैं। यहां मुसलमानों की तरह ही दलितों और वाल्मिकी समाज के लोगों को दफनाने की परंपरा है। मौत के बाद उसी पानी में समाज के लोगों को दफनाया जाता है।
एक युवा दलित गौतम माकिवान (25) से जब यह पूछा गया कि क्या वह चाहते हैं कि उनका दाह संस्कार हिंदू रीति रिवाज से हो? उन्होंने कहा कि हम भी चाहते हैं कि हमें जलाया जाए। लेकिन इसके लिए न तो हमारी हैसियत है और न जमीन। वह बताते हैं कि अगर हम हिंदू रीति रिवाज से जलाना भी चाहें तो भी हम लकड़ियां नहीं खरीद सकते।
सवर्णों का श्मशान बगीचे के बीचोंबीच है। वहां नल है, नहाने और पूजा करने के लिए व्यवस्था है। दलितों के श्मशान तक पहुंचने के लिए नाली के गंदे पानी से होकर गुजरना पड़ता है। यहां भी आपकी जाति ही तय करती है कि मौत के बाद आपके साथ क्या सलूक होगा? एक अपमानजनक जिंदगी का संघर्ष मरने के बाद भी खत्म नहीं होता है।