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Last Updated : शनिवार, 9 जून 2018 (00:11 IST)

फुटबॉल में पहली बार 1970 में लगा था पहला 'पेनल्टी शूट आउट'

फुटबॉल में पहली बार 1970 में लगा था पहला  'पेनल्टी शूट आउट' - Football, History of Penalty Shootout
फुटबॉल में भले ही 'पेनल्टी शूट आउट' को ज्यादा पसंद नहीं किया जाता हो, लेकिन वास्तविकता ये है कि निर्धारित समय तक गोल‍रहित बराबरी पर छूटने वाले मैचों को परिणाम की हद तक लाने का ये सबसे कारगर तरीका साबित हुआ।
 
 
1970 में फुटबॉल में पहली बार पेनल्टी शूट आउट का प्रयोग किया गया। उससे पहले 'ड्रॉ' को तोड़ने के लिए लॉटरी या सिक्के की उछाल का सहारा लिया जाता था। लेकिन एक जर्मन रैफरी कार्ल वाल्ड ने पेनल्टी शूट आउट का प्रस्ताव यूएफा के सामने रखा तो सभी को आश्चर्य हुआ कि यह एक गोलकीपर और एक खिलाड़ी के बीच 5 किक का आदान-प्रदान किसी मैच का फैसला कर सकता है, लेकिन वाल्ड का प्रयोग सफल रहा।
 
जर्मन रैफरी कार्ल वाल्ड 90 साल से ज्यादा जीये। उन्होंने 1936 में विश्व कप में पहली बार रैफरी की भूमिका निभाई थी। 40 वर्षों में 1 हजार मैचों में रैफरी का दायित्व निभाने वाले वाल्ड ने अपने तमाम विरोधियों को मात देकर 1970 से प्रत्येक फुटबॉल प्रतियोगिता में पेनल्टी शूट आउट को अनिवार्य करा दिया था।
यूएफा द्वारा इसे मान्यता देते ही जर्मन फुटबॉल एसोसिएशन ने इसे मान लिया और उसके बाद फीफा ने भी पेनल्टी शूट आउट की मदद से जिस पहली बड़ी प्रतियोगिता का फैसला हुआ था, वह 1976 की यूरोपियन चैंपियनशिप थी जिसमें जर्मनी ने चेकोस्ल‍ावाकिया से यादगार मात खाई थी।

1982 के फीफा विश्व कप ने पहली बार पेनल्टी शूट आउट को देखा। जर्मनी इस बार भागीदार जरूर बना, लेकिन वह जीता फ्रांस के विरुद्ध सेमीफाइनल में पेनल्टी शूट आउट में। लेकिन 1994 में ऐसा पहली बार हुआ, जब विजेता का फैसला ही फाइनल में पेनल्टी शूट आउट से हुआ।

आज से 24 साल पहले पासाडेना, कैलिफोर्निया स्टेडियम में 1 लाख 35 हजार दर्शकों की मौजूदगी में ब्राजील ने इटली को पेनल्टी शूट आउट में हराकर चौथी बार विश्व कप जीता। फुटबॉल इतिहास का वह इकलौता फाइनल था, जिसका फैसला शूट आउट से हुआ।