ओशो कहते हैं कि जो लोग सवाल खड़े करना भूल गए हैं वे अच्छे को आने देने का रास्ता रोक रहे हैं इसीलिए सवाल पूछना जरूरी है। सकारात्मक आलोचना करना जरूरी है। जो अच्छा होगा वह आलोचना की आग में निखरकर और चमकेगा और जो बुरा होगा वह आपकी आलोचना के खिलाफ कुछ करेगा या उसकी उपेक्षा कर देगा। यहां किसी क्रिया या ध्यान की आलोचना नहीं कि जा रही है बल्कि सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
आठवें पायदान पर ध्यान : योग में ध्यान आठवीं स्टेप है। इससे पहले यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा है। योग और भारतीय दर्शन अनुसार ध्यान के पूर्व यम, नियम, प्राणायाम का पालन किया जाना चाहिए तभी ध्यान का फल मिलता है। योग में ध्यान का सीधा-सीधा अर्थ है कि यह कोई क्रिया नहीं है। ध्यान और प्राणायाम को मिलाकर आजकल जिस तरह का ध्यान किया-कराया जाता है वह कितना उचित है इस पर विचार किया जाना जरूरी है।
प्रचलित ध्यान क्रियाएं कितनी सही? : आजकल ओशो की ध्यान विधि 'सक्रिय ध्यान योग' ज्यादा प्रचलित है। उसी का एक रूप है 'सुदर्शन क्रिया' और वही 'भावातीत ध्यान' है। इसी तरह वर्तमान में गौतम बुद्ध द्वारा प्रणीत 'विपश्यना' ध्यान के नए रूप का प्रचलन भी बढ़ा है। सवाल यह उठता है कि ध्यान की परंपरागत विधि को छोड़कर इसका जो वर्तमान स्वरूप है वह सही है या कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये क्रियाएं ध्यान विरुद्ध हैं?
बाजारू ध्यान : क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि बाजारवाद के चलते आजकल 'ध्यान' को इस तरह का लुक दिया जा रहा है कि जिसमें प्राणायाम भी हो और कसरत भी? मतलब संपूर्ण पैकेज जिसका अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं। बस, कुछ देर या दिन के लिए आदमी को हल्का कर देने की तकनीक भर।
महज धकान और तनाव मिटाने वाला ध्यान : क्या यह स्थाई शांति या दिमाग को बेहतर बनाने वाला ध्यान है? लोगों से मोटी रकम लेकर ध्यान कराए जाने का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। क्या सचमुच ही लोगों को इससे फायदा होता है या कि यह महज सोना बाथ, मसाज आदि से प्राप्त आराम जैसा या कि महज थकान मिटाने वाला है?
ध्यान का असर : ध्यान कराने वाले लोग लगातार ध्यान करते हैं तो फिर अब तक तो उन्हें ज्ञान को उपलब्ध हो जाना चाहिए था? उन्हें तो संसार से हट जाना चाहिए था, क्योंकि हमने तो सुना है और शास्त्रों में पढ़ा भी है कि लगातार ध्यान करते रहने से व्यक्ति की मनोदशा शांतचित्त और मौन हो जाती है और वह समाधि में लीन होने लगता है।
कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति फिर समाज में सक्रिय भूमिका निभाने के बजाय अकेले में आनंद लेते हुए मुमुक्षु बन जाता है, लेकिन हम तो देख रहे हैं कि ये ध्यान कराने और करने वाले लोग ध्यान की मार्केटिंग भी कर रहे हैं और लोगों से न्यूज चैनल पर आने वाली बहस जैसी बहस भी कर रहे हैं।
* अब दूसरा सवाल : सक्रिय ध्यान करने में पहली क्रिया है 'रेचक' अर्थात अपने भीतर के पागलपन को निकालना, जिसमें कि ध्यान करने वाले लोग चीखते हैं, चिल्लाते हैं, रोते हैं, हंसते हैं और न जाने क्या-क्या करते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि सभी को पागलपन का दौरा पड़ गया है।
ठीक है, मान भी लेते हैं कि हमारे भीतर बहुत से फ्रस्ट्रेशन है उसे निकाल देने में ही भलाई है, लेकिन हम इतने भी पागल नहीं है कि बार-बार फ्रस्ट्रेड हों और बार-बार उसे निकालने जाएं। क्या यह एक नई प्रकार की आदत नहीं बन जाएगी? जो लोग ध्यान कराते हैं वे क्या बार-बार रेचक करते हैं? यह तो हद दर्जे का पागलपन ही होगा कि पागलपन निकालने के लिए बार-बार पागल बन जाओ।
मौन ही ध्यान की शुरुआत : हमने तो सुना और पढ़ा है कि मौन रहने से ही सभी तरह के पागलपन समाप्त हो जाते हैं। कहते हैं कि पागलपन मन में रहता है तो मौन होने से ही मन की मौत हो जाती है। हमने तो कहीं नहीं सुना कि कोई साधु रेचक करके मोक्ष चला गया या ज्ञान को उपलब्ध हो गया। ओशो से पूछा जाना चाहिए कि क्या आप रेचक करते हुए ज्ञान को उपलब्ध हुए? यह वैसी ही बात है कि गांधीजी ने कभी टोपी नहीं पहनी, लेकिन...
सुदर्शन क्रिया : अब बात करते हैं सुदर्शन क्रिया की। बाबाओं के गुरु श्रीश्री को कौन नहीं जानता। श्रीश्री को ओशो की जिरॉक्स कहे तो कोई आपत्ति तो नहीं है? यदि आपत्ति है तो कहा होगा- 'ओ माई गॉड।'
बड़ा अजीब लगता है जब लोग राम, श्रीकृष्ण और शिव को छोड़कर ओशो और श्रीश्री के चित्रजड़ित लॉकेट गले में लटकाकर घूमते हैं? ऐसा सिर्फ और सिर्फ वही व्यक्ति कर सकता है जिसने ओशो या श्रीश्री के अलावा जीवन में कभी कुछ दूसरा नहीं पढ़ा। हरि ओम... हरि ओम, मधुर-मधुर राम श्रीहरि बोल। निश्चित ही यह धर्म परिवर्तन जैसा है कि आप चाहे क्रॉस लटका लें या श्रीश्री की माला। खैर।
सुदर्शन क्रिया श्रीश्री का एक बेहतरीन प्रॉडक्ट है, जो उसे नेटवर्किंग? के थ्रू बेचते हैं। यह महज योग के प्राणायाम की एक विधि है जिसे वे नए तरीके से कराते हैं। इसमें हमारी श्वासों को लयबद्ध करना सिखाया जाता है।
सुदर्शन क्रिया के नियमित अभ्यास से जीवन में शांति, स्थिरता और रस का अनुभव होता है। लेकिन सर, वह तो प्राणायाम से भी हो सकता है तो फिर आप इसे अलग नाम क्यों दे रहे हैं?
आर्ट ऑफ लिविंग- हां, इसी नाम से लोगों को जीवन जीने की कला सिखाई जाती है। इस कला और क्रिया के लिए बाकायदा डेमो होता है। फिर कोर्स को ज्वॉइन करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाता है। किताब, सीडी और कैसेट बेचने के लिए मार्केटिंग की जाती है बिलकुल ईसाई मिशनरियों की तरह प्रचार-प्रसार किया जाता है। धन्यवाद...।- - योगा शिक्षकों से बातचीत पर आधारित