विपश्यना : 'मोह' से मुक्ति का मार्ग
- सत्यनारायण गोयनका
शांति और चैन किसे नहीं चाहिए, जबकि सारे संसार में अशांति और बेचैनी छाई हुई नजर आती है? शांतिपूर्वक जीना आ जाए तो जीने की कला हाथ आ जाए। समझें! धर्म कैसे शांति देता है?पहले यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं? गहराई से सोचने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है तब वह अशांत हो जाता है, चाहे क्रोध हो, लोभ हो, भय हो, ईर्ष्या हो और कुछ, उस समय विक्षुब्ध होकर हम संतुलन खो बैठते हैं। क्या इलाज है जिससे हमें क्रोध, ईर्ष्या, भय इत्यादि आए ही नहीं और आए भी तो इनसे हम अशांत न हो उठे।यहाँ एक बात यह विचारणीय है कि किसी व्यक्ति द्वारा अयोग्य व्यवहार करने पर यानी उसमें दोष के कारण क्षोभ या विकार क्यों होता है? इसका कारण मुझमें यानी मेरे अचेतन मन में संचित अहंकार, आसक्ति, राग, द्वेष, मोह आदि की गाँठें हैं जिन पर उक्त घटना का आघात लगने पर क्रोध, द्वेष आदि विकार चेतन मन पर उभरते हैं। इसलिए जिस व्यक्ति का अंतरमन परम शुद्ध है, उसे ऐसी घटनाओं से कोई विकार या अशांति नहीं हो पाती। परंतु प्रश्न यह है कि जब तक अंतरमन परम शुद्ध नहीं हो जाता, तब तक क्या किया जाए? मन में पूर्व संचित संस्कारों की गंदगियाँ तो हैं ही और इन्हीं के कारण किसी भी अप्रिय घटना का संपर्क होते ही नए विकारों का उभार आता ही है, ऐसी अवस्था में क्या करें? इसी समस्या के समाधान की खोज आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व इसी देश में भगवान गौतम बुद्ध ने की और लोगों के कल्याण के लिए इसे सर्वसुलभ बनाया। उन्होंने अपनी अनुभूतियों के बल पर जाना कि ऐसे अवसर पर पलायन न करके वस्तुस्थिति का सामना करना चाहिए, वस्तुतः क्रोध आने पर हमें होश नहीं रह पाता। बाद में होश आने पर पश्चाताप करने से लाभ नहीं होता। चोर आए तब तो सोए रहें, परंतु उसके द्वारा घर का माल चुरा ले जाने के बाद जल्दी-जल्दी ताले लगाएँ तो इसे क्या लाभ? अतः हमारे सामने दो समस्याएँ हैं। एक तो यह कि विकार के जागते ही हम सचेत कैसे हों? और दूसरी यह कि सचेत हो जाएँ तो अमूर्त विकार का साक्षीभाव से निरीक्षण कैसे कर सकें? उस महापुरुष ने प्रकृति की सच्चाइयों को गहराई तक खोज करके यह देखा कि किसी कारण से जब कभी मन में कोई विकार जागता है, तब एक साँस की गति में अस्वाभाविकता आ जाती है और दूसरे शरीर के अंग-प्रत्यंग में सूक्ष्म स्तर पर किसी न किसी प्रकार की जीव रासायनिक क्रिया होने लगती है। यदि इन दोनों को देखने का अभ्यास किया जाए तो परोक्ष रूप से अपने मन के विकार को देखने का काम ही होने लगता है और विकार स्वतः क्षीण होते-होते निर्मूल होने लगते हैं।अतः काम की बात यह है कि विकार जागते ही उसको साक्षीभाव से देखकर उसकी शक्ति क्षीण कर दी जाए ताकि वह अधिक लंबे अर्से तक चलकर गहराई में न उतर सके। यह प्रकृति का नियम है कि जब हमारे मन में कोई विकार जागता है, तब हम अशांत हो जाते हैं और विकारों से छुटकारा पाते ही अशांति से छुटकारा पा लेते हैं। सुख-शांति भोगने लगते हैं। प्रकृति के इस नियम को जानकर विकारों से छुटकारा पाने का कोई तरीका कोई महापुरुष धर्म के रूप में दुखियारे लोगों को देते हैं, परंतु अपने पागलपन से उन तरीकों को अपनाने के बजाए यानी धर्म को धारण करने के बजाए हम उसे वाद-विवाद का विषय बनाकर सिद्धांतों की लड़ाई में पड़ जाते हैं और कोरे दार्शनिक बुद्धि-विलास से पारस्परिक विद्रोह बढ़ाकर अपनी हानि करते हैं। विपश्यना दार्शनिक सिद्धांतों का संघर्ष नहीं है। हर व्यक्ति ज्ञानचक्षु द्वारा अपने आपको देखे, स्व का निरीक्षण करे, अपने भीतर जब विकारों की आग लगे तब उसे स्वयं देखकर बुझाए।सौभाग्य से यह आत्मनिरीक्षण यानी स्वनिरीक्षण का अभ्यास, विपश्यना की साधना-विधि ब्रह्मदेश में दो हजार- पच्चीस सौ वर्ष से आज तक अपने शुद्ध रूप में जीवित है। मुझे सौभाग्य से इस विधि को वहीं सीखने का कल्याणकारी अवसर प्राप्त हुआ। शारीरिक रोग के साथ-साथ मानसिक विकारों और आसक्तिभरे तनावों से छुटकारा पाने का रास्ता मिला। सचमुच एक नया जीवन ही मिला। उस समय मेरे पास बाँटने के लिए दुःख ही था। अब जी चाहता है कि इस कल्याणकारी विधि में जितना-जितना विकारों से मुक्त हुआ और फलतः जो भी यत्किंचित सुख-शांति मिली, उसे लोगों में बाँटूँ। इसे बाँटने पर सुख-संवर्द्धन होता है, मन प्रसन्न होता है।इन दस दिनों के शिविरों में लोग अक्सर मुरझाए हुए चेहरे लेकर आते हैं और शिविर समाप्ति पर खिले हुए चेहरे से घर लौटते हैं तो सचमुच मन सुख-संतोष से भर उठता है। अधिक से अधिक लोग इस मंगलकारी विधि का लाभ उठाकर सुखलाभी हों, अधिक से अधिक लोगों का भला हो, कल्याण हो, मंगल हो, यही धर्म कामना है।