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Last Modified: गुरुवार, 21 जनवरी 2021 (01:10 IST)

जब संसद मौन हो जाती है तो सड़कें बोलने लगती हैं

जब संसद मौन हो जाती है तो सड़कें बोलने लगती हैं - Streets start speaking when Parliament becomes silent
जीवन गतिहीन निस्तेज जड़ता न होकर नित नए प्रवाह की तरह निरंतर गतिशील तेजस्विता का पर्याय है। किसी सरकार का आना-जाना बनना-बिगड़ना महज एक घटना है। प्राय: सरकारें लकीर की फकीर की तरह होती हैं पर जनआंदोलन हर बार सृजनात्मक परिवर्तन की नई-नई लकीरें खींचना चाहता है।

हर आंदोलन का मूल विचार एकदम सफल ही हो यह आवश्यक नहीं पर हर आंदोलन में एक सपने को साकार करने की संभावना जरूर छिपी होती है। जीवन एक वैचारिक आंदोलन है तभी तो वह सतत नित नए प्रयोगों के विचारों से प्रवाहमान होता रहता है। सरकारें कई रूप-रंगों की होती हैं पर आंदोलन का एक ही रूप और रंग होता है, जीवन के सवालों को बिना डरे पूरी मानवीय ताकत से उठाना और समाधान तलाशते रहना।

दुनिया में जब तक जीवन है तब तक आंदोलन होते रहेंगे। जिस दिन जीवन ही जड़ हो जाए या अचेतन में चला जायगा तो आंदोलन मंद हो जाएगा पर खत्म नहीं होगा। आंदोलन एक तरह से गतिशील जीवन की जीवनी शक्ति है या जीवन की सनातन विरासत। जीवन ही आंदोलन है या आंदोलन ही जीवन है। अवाम, जनता या लोग कभी आंदोलन से नहीं घबराते, आंदोलन तो अवाम की जीवनी शक्ति की तरह हैं।

अवाम की जीवनी शक्ति से हर रूप-रंग की सरकार की संवेदनशीलता बढ़नी चाहिए पर कोई भी सरकार न तो आंदोलन का स्वागत करती है और न ही खुद होकर आगे बढ़कर संवाद प्रारंभ करती है। उत्तरदायी सरकारें भी आंदोलन के सवालों को लेकर पता नहीं क्यों लगभग हमेशा अनुत्तरदायी या अनमनी ही बनी रहती हैं? अपने ही लोगों से खुलेमन से संवाद में हिचकिचाहट क्यों?

आंदोलनों को लेकर सरकारों का अनमनापन सरकारों के कामकाज करने की मूल दृष्टिहीनता को ही उजागर करता हैं। सरकारें आंदोलनों को कुचलने की बजाय जनमानस के असंतोष या विचारों को देखने समझने का अवसर आंदोलन में देखें, समझें तो देश और दुनिया की सरकारें ज्यादा असरकारी रूप में अपना कामकाज कर पाएंगी। जिस दृष्टि से समस्याओं को सरकारें देख-समझ नहीं पातीं वह दृष्टि और समझ आंदोलनों से खुले संवाद से अनायास ही मिल सकती है।

आंदोलन जनमानस में उठ रहे सवालों को समझने का खुला अवसर है, यह देश और दुनिया की सरकारों को समझ नहीं आता और सरकारें आंदोलन को खत्म करने या कुचलने के तौर तरीकों में उलझकर समस्या के समाधान की बजाय अपने देश के लोगों से ही घमासान में अपनी ताकत झोंक देती हैं। देश और दुनिया में लोगों ने सरकारों को जन्म ही जनसमस्याओं के सहज और निरंतर समाधान के लिए ही दिया है न कि जनमानस की अनसुनी कर निरंतर अपने ही नागरिकों से अकारण घमासान करते रहने के लिए।

शायद दुनिया में लोकमानस की सतत रखवाली करने वाली ऐसी सरकार कभी भी नहीं आएगी जो आंदोलन की राह को लोकमानस में जन्मने ही न दे। इसका मूल कारण सरकार का महज एक घटना होना है। घटना घटती रहती है पर हर समय सरकार जीवंत गतिशील और प्रवाहमय नहीं हो सकती है। सरकारों की यही वैचारिक जड़ता आंदोलनों की असली तासीर को समझे बिना ही अपनी सरकारी ठसक में मगन रहती है।

खेती किसानी जीवन की निरंतरता को बनाए रखने वाला बुनियादी प्राकृतिक काम है। खेती किसानी करने वाली जमातें प्राय: खेती किसानी जैसे सतत प्राकृतिक उत्पादक कामकाज में ही जुटी रहती हैं। विधि-विधान बनाने का विधायी कामकाज संसद और विधायिका का सामान्य कामकाज है। पर इन दिनों भारत के लोकतंत्र में सवाल उठाने वाली जमातें प्राय: मौन हो चली हैं और मौन रहने वाली जमातें बुनियादी सवाल बुलंदी से उठा रही हैं। जब संसद मौन हो जाती है तो सड़कें बोलने लगती हैं। सड़कों पर आवाज बुलंद होने का अर्थ ही है कि संसद बहस चर्चा विचार विमर्श के बजाय चुप हो गई है।

संसद में बहस न हो तो विधायी कार्य यंत्रवत जड़ता में बदल जाता हैं। जीवंत और समग्रता से निर्भीक बहस ही संसदीय प्रणाली की जान है। संसद में सन्नाटे से ही सड़कें मुखरता से आवाज उठाती हैं। सड़कों पर उठे लोगों के सवाल लोकतंत्र को निखारते हैं। सड़क महज आवागमन का जड़ साधन नहीं लोगों की आवाज उठाने वाला प्रभावी औजार भी है। आवाज़ उठाते लोग व्यवस्था को निरन्तर सतर्क और चाक-चौबंद बनाए रखने में मदद करते हैं। जब अवाम सड़क पर आती है तो देश दुनिया की सारी सरकारें कहने लगती हैं कि लोगों को आवागमन में परेशानी हो रही है।

सरकारें लोकजीवन की परेशानी को निरंतर समझने और सुलझाने में प्राणप्रण से रुचि नहीं लेतीं और जब लोगों के पास कहीं  सुनवाई का कोई रास्ता नहीं बचता तो वे मजबूर होकर सड़क पर आते हैं और सरकारों को अपने मूल दायित्व से भटकने से बचाते  हैं। तभी तो भारत के संविधान में शांतिपूर्ण तरीके से लोगों को एकत्रित हो अपनी बात अभिव्यक्त करने का मूल अधिकार रखा  गया है।

आजादी के आंदोलन में चंपारण के किसानों ने बुनियादी सवाल उठाया था। आज आजाद और लोकतांत्रिक भारत के किसान भी  बुनियादी सवाल उठा रहे हैं। भारत की खेती-किसानी का बुनियादी ढांचा कैसा होगा? किसान स्वयं अपना मालिक होगा या बाजार का एक अदना मोहरा? बाजार का राज चलेगा या खेती किसानी में स्वराज रहेगा। मंडी या खेती किसानी या उपज के न्यूनतम मूल्य, क्रय-विक्रय और भंडारण से संबंधित तीनों कानून को जिस तरह से वर्तमान संसद और सरकार ने पारित किया उस तरीके ने सोती हुई जनता को जगा दिया और आमतौर पर चुप रहने वाली खेतिहर जमातें जिस तेजस्विता और तेवर से सवाल उठा रही हैं  उससे समूचे देश में यह खुला संदेश गया है कि हमारे लोकतंत्र का तंत्र भले ही जड़ हो गया हो पर लोक तो चैतन्य है।

सरकार जब यह मानने लगती है कि हम तो सरकार हैं, हम जो करेंगे उसे सब मानेंगे ही तो सरकार असरकारी नहीं रह पाती। वही सरकार असरकारी हो सकती है जो सब को साथी सहयोगी माने, किसी से न तो कुछ छिपाए और न ही किसी को डराए। अच्छे कानून वे होते हैं जो आम जनता को अपने आप समझ आ जाएं, अभियान चलाकर या रैलियां कर समझाना न पड़ें। जैसे सूरज उगता हैं तो उजाला अपने आप आ जाता हैं वैसे ही कानून को बनाने का तरीका भी हर देशवासी के मन को शंका से परे हर बार खुला और पारदर्शी रहना ही चाहिए।

चुनी हुई सरकारें भी गलती से परे नहीं है। संसद भी गलती से परे नहीं है। लोकतंत्र का मतलब ही है कि हम सब अपनी जानी अनजानी गलतियों से निरंतर अवगत होते रहें और अपने निर्णयों व व्यवहार में हुई गलतियों को स्वीकार कर सुधारते रहें। लोकतंत्र सतत चलने वाली वह लोक व्यवस्था है, जिसमें हम मिलजुलकर खुले मन से एक दूसरे से सीखते-सिखाते हैं। लोकतंत्र में सीखने की तो अंतहीन गुंजाइश है पर अपनी गलती पर अवाम को सबक सिखाने का कोई अवसर ही नहीं है। भारत में खेती किसानी एक जीवनपद्धति है। लाभ-हानि का व्यापार नहीं।

भारतीय खेती किसानी यंत्रवत उत्पादन और वितरण का व्यवहार न होकर जीवन की सनातन सभ्यता है। सभ्यता की जीवनी शक्ति ही भारतीय खेती किसानी की मूल ताकत है। भारत का किसान जानता समझता है कि खेती किसानी का कुदरती तरीका क्या है। किसानी करने वाले नौकर-चाकर और वेतनभोगी यंत्रवत व्यवस्थागत कामकाज करने वाली जमातें न होकर इस देश के चप्पे चप्पे में अपनी समझ, साधन, सहयोग के साथ अकेले अपनी रोटी ही नहीं अपने गांव देश और दुनिया की रोटी की खुराक पैदा करने में सदियों से बिना रुके और झुके लगी हुई विकेन्द्रित जीवंत बिरादरी है, जो केवल खुद की ही नहीं प्राणीमात्र की जीवन की जरूरत यानी खुराक को पैदा करने में अपना सब कुछ लुटाती आई है और लुटाती रहेगी।

यही आज के भारत में चल रहे किसान आंदोलन की जीवनी शक्ति और हम सब के जीवन का खुला सवाल है, जिसका हल हमें हिल मिलकर खोजना ही होगा। हिल-मिलकर जीना और सबको समझना समझाना यही आंदोलनकारी जीवन का सरल-सहज अर्थ है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।) 
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