देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद में जिस तरह का अभूतपूर्व गतिरोध इस बजट सत्र के दौरान बना, उसे देखते हुए डेढ़ दशक पुराना वाकया याद आता है। साल 2003 की बात है। उस समय देश में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राष्ट्रीय गठबंधन की सरकार थी। अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया था। विपक्षी पार्टियां संसद में अमेरिका के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कराने की मांग कर रही थीं। विदेश मंत्रालय एक वक्तव्य जारी कर उस हमले की निंदा कर चुका था, लेकिन तत्कालीन विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा संसद में निंदा प्रस्ताव लाने के पक्ष में नहीं थे। कुछ दिनों तक हंगामे की वजह से संसद में गतिरोध बना रहा। अंतत: वाजपेयी ने सिन्हा और तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री सुषमा स्वराज को बुलाकर उन्हें समझाइश दी कि संसद सुचारू रूप से चले यह जिम्मेदारी सरकार की होती है, लिहाजा हमें विपक्ष से सिर्फ मीडिया के माध्यम से ही संवाद नहीं करना चाहिए, बल्कि संसद से इतर अनौपचारिक तौर पर भी बात करते रहना चाहिए।
बातचीत के इसी सिलसिले में गतिरोध का हल छिपा होता है। वाजपेयी की इस नसीहत के बाद सिन्हा और सुषमा स्वराज की स्पीकर के कक्ष में विपक्षी नेताओं से बातचीत हुई। उसी बातचीत के दौरान निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर भी सहमति बनी और गतिरोध खत्म हुआ। इस वाकए के प्रकाश में अगर मौजूदा सरकार के रवैए को देखें तो क्या लगता कि सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी का नेतृत्व कर रहे लोग अपने राजनीतिक पुरखे की सीख के मुताबिक विपक्ष से अनौपचारिक संवाद करने और संसद चलाने की इच्छा रखते हैं? बीते पांच मार्च से शुरू हुआ संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी लगभग पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ गया। सत्र के पहले चरण में भी राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई कर्कश बहस तथा उसके जवाब में प्रधानमंत्री के नरेंद्र मोदी के छिछले कटाक्षों से भरे भाषण के अलावा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं हो पाया था। सत्र के दूसरे दौर में भी हंगामे के चलते संसद का करीब 127 घंटे से ज्यादा समय यूं ही बर्बाद हो गया।
इस दौरान लोकसभा में करीब 28 विधेयक पेश किए जाने थे, वहीं राज्यसभा के एजेंडे में 39 विधेयक शामिल थे, लेकिन लोकसभा में सिर्फ पांच विधेयक ही पारित किए जा सके, जिनमें वित्त विधेयक भी शामिल हैं। वहीं राज्यसभा में सिर्फ एक ग्रेच्युटी भुगतान संशोधन विधेयक 2017 ही पारित हो सका। कामकाज के लिहाज से यह सत्र बीते 10 सालों का सबसे हंगामेदार सत्र साबित हुआ। संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर देश की जनता का लगभग ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं यानी एक सत्र के दौरान एक दिन की बर्बादी पर तकरीबन 18 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान देश को होता है।
इससे भी ज्यादा नुकसान देश की अर्थव्यवस्था का, दुनियाभर में भारत की छवि का और देश की आम जनता के विश्वास का होता है। केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, उसकी कोशिश संसद को कम से कम चलाने, उसकी उपेक्षा करने या उससे मुंह चुराने और उसका मनमाना इस्तेमाल करने की रही है। उसकी इसी प्रवृत्ति के चलते देश की सबसे बड़ी पंचायत में हंगामा और नारेबाजी अब हमारे संसदीय लोकतंत्र का स्थायी भाव बन चुका है। पिछले कुछ दशकों के दौरान शायद ही संसद का कोई सत्र ऐसा रहा हो, जिसका आधे से ज्यादा समय हंगामे में जाया न हुआ हो। देश के 70 वर्ष के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है, जब देश का 24 लाख करोड़ रुपए का बजट और वित्त विधेयक लगभग बिना बहस के पारित हो गया।
दोनों सदनों में एक भी दिन न तो प्रश्नकाल और न ही शून्यकाल ठीक से चल पाया। संसदीय लोकतंत्र में संसद चले और जनहित के मुद्दों पर बहस हो, यह जिम्मेदारी विपक्ष की भी होती है मगर सरकार की उससे कहीं ज्यादा होती है, लेकिन पूरे सत्र के दौरान सरकार की ओर से इस तरह की कोई इच्छा या कोशिश नहीं दिखाई दी। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के सांसद अपने-अपने सूबे से संबंधित मसलों पर बहस की मांग को लेकर हंगामा करते रहे और पीठासीन अधिकारी उनसे शांति बनाए रखने की औपचारिक अपील कर सदन की कार्यवाही स्थगित करते रहे। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की ओर से भी इस सिलसिले में ऐसी कोई संजीदा पहल नहीं की गई, जिससे कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चल सके।
दोनों सदनों में हंगामा और कार्यवाही का बार-बार स्थगित होना सरकार के लिए भी बेहद मुफीद रहा। अगर यह स्थिति नहीं बनती और संसद सुचारू रूप से चलती तो सरकार को गिरती अर्थव्यवस्था, नित नए उजागर हो रहे बैंक घोटाले, उन घोटालों में सत्तारुढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व से करीबी लोगों की संलिप्तता और उनका विदेश गमन, किसानों का और बेरोजगारी का संकट, रॉफेल विमानों का विवादास्पद सौदा, देश के विभिन्न भागों में जातीय और सांप्रदायिक तनाव, चीनी घुसपैठ, कश्मीर के बिगड़ते हालात आदि मसलों पर विपक्ष के सवालों का सामना करना पड़ता, जो कि उसके लिए आसान नहीं था। इसके अलावा विपक्ष की ओर से आने वाला अविश्वास प्रस्ताव तथा सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव भी सरकार की मुसीबतों में इजाफा ही करता। जाहिर है कि सरकार भी नहीं चाहती थी कि संसद चले।
अलबत्ता सरकार की ओर से संसदीय कार्यमंत्री और अन्य वरिष्ठ मंत्री मीडिया के सामने यह घिसा-पिटा वाक्य जरूर नियमित रूप से दोहराते रहे कि सरकार हर मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार है, लेकिन विपक्ष बहस से भाग रहा है। संसद के प्रति अपनी संजीदगी प्रदर्शित करने के लिए सरकार ने अपने गठबंधन के सांसदों से यह फैसला करवा दिया कि वे बजट सत्र के दूसरे चरण के 23 दिनों का वेतन-भत्ता नहीं लेंगे, लेकिन यहां सवाल उठता है कि संसद में हंगामा तो पिछले चार साल के दौरान हर सत्र में हुआ और कई-कई दिन काम नहीं हो पाया, फिर यह फैसला इस बार ही क्यों! हंगामे से भरे सत्र का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी रहा कि पूरे सत्र के दौरान गतिरोध की स्थिति पर प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे।
उन्होंने चुप्पी तोड़ी भी तो सत्र समाप्ति के बाद नाटकीय और हास्यास्पद अंदाज में। उन्होंने संसद में हंगामे के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया और जो स्थिति बनी उसे अपनी बहुप्रचारित पारिवारिक और जातीय पृष्ठभूमि से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि कहा कि एक पिछड़ी जाति और गरीब मां के बेटे का प्रधानमंत्री बनना विपक्ष को रास नहीं आ रहा है। संसद के ठप होने पर देश के प्रधानमंत्री की इतनी हल्की और सतही प्रतिक्रिया, देश की सबसे बड़ी विधायी संस्था और लोकतंत्र के प्रति आम आदमी के मन में खत्म होते सम्मान और भरोसे को थामने कतई मददगार नहीं हो सकती। उनकी यह प्रतिक्रिया लोकतंत्र के भविष्य के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। जिस संसद की सीढ़ियों पर माथा टेक कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंसू छलकाए थे, अगर वे उसी संसद में चर्चा के लायक माहौल बनाने की कोशिश करते दिखते तो लोकतंत्र के भविष्य को लेकर इतनी आशंकाएं नहीं सतातीं।