अंडे सेवे कोई बच्चे लेवे कोई
कौए का एक जोड़ा आम के एक वृक्ष पर अपना घोंसला बना रहा था। उस वृक्ष पर रोज आने वाली एक कोयल शाखाओं पर कूदती-फिरती और अपनी मधुर आवाज में गाने गाती। जल्दी ही उसने कव्वी से दोस्ती कर ली, जिसे उसके गीत सुनने में बड़ा आनंद आता था। इस बीच घोंसला तैयार हो गया। कुछ समय बाद कव्वी ने उसमें अंडे दिए। एक दिन जब दोनों भोजन की तलाश में गए थे, तभी कोयल ने वहाँ आकर अपने अंडे दिए और कव्वी के उतने ही अंडे गिरा दिए। कहते हैं कि कौए और कोयल के अंडों में अंतर करना मुश्किल होता है। इसी बात का फायदा कोयल ने उठाया। जब कौआ-कव्वी वापस आए तो उन्हें पता ही नहीं चला कि उनके पीछे कोयल क्या चालाकी कर गई है। कव्वी पूरे जतन से सभी अंडों की देखभाल करती, उन्हें सेती। समय आने पर उनसे चूजे निकले। दोनों भली प्रकार से उनका लालन-पालन करने लगे। दूर बैठी कोयल उन्हें ऐसा करते देखती, लेकिन करती कुछ नहीं थी। उसने कभी अपने बच्चों को नहीं चुगाया। धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे। जल्द ही वे घोंसले के बाहर आकर पेड़ की डाल पर बैठने लगे। उन पर नजर रख रही कोयल को लगा कि अब समय आ गया है। वह उड़कर अपने बच्चों के पास पहुँची। कुछ देर उनके साथ बैठकर उड़ी तो उसके बच्चे भी पीछे-पीछे उड़ गए।दोस्तो, इसी को कहते हैं 'अंडे सेवे कोई, बच्चे लेवे कोई' यानी पालन-पोषण किसी और ने किया और बच्चे कोई और ले गया। कहते हैं कोयल कभी अपने घोंसले में अंडे नहीं देती। वह ऐसा इसलिए करती है, क्योंकि वह बच्चों को पालने-पोसने के झंझट से बचना चाहती है।
अपने ही बच्चों की देखभाल करने से वह कतराती है। उसके बच्चे कौए के घोंसले में भले ही भूखे मर जाएँ, लेकिन वह उन्हें कभी कुछ भी नहीं चुगाती। उसके बच्चों के लिए माँ के सारे फर्ज कव्वी निभाती है। जब बच्चे बड़े होकर उड़ने लायक हो जाते हैं, तो कोयल उन्हें लेकर उड़ जाती है। तब न कोयल पीछे मुड़कर देखती है न उसके बच्चे। काम निकल जाने के बाद मुँह फेर लेने के ऐसे उदाहरण हमारे बीच भी मिलते हैं। आजकल के आधुनिक युग में कई महिलाएँ अपने बच्चों की देखभाल करने से कोयल की ही तरह कन्नी काटती हैं। उनके बच्चों की देखभाल या तो धाय माँ यानी आयाएँ करती हैं या वे झूलाघरों में बड़े होते हैं। हालाँकि झूलाघरों में अधिकतर वे बच्चे पलते हैं, जिनकी माएँ कामकाजी होती हैं और घर में उनकी देखभाल के लिए कोई नहीं होता। ऐसे में उनकी मजबूरी तो समझ में आती है, लेकिन कुछ माएँ तो केवल स्टाइल के लिए अपने बच्चों की ओर ध्यान नहीं देतीं। उन्हें बच्चे से ज्यादा अपने सर्कल, अपनी किटी पार्टियों की चिंता रहती है।यदि आप भी ऐसा ही करती हैं, तो जान लें कि सिर्फ संतान को जन्म देना ही माँ का फर्ज नहीं है। बच्चों की देखभाल करना भी आपका दायित्व है। तभी तो बच्चा वैसा बनेगा, जैसा आप उसे बनाना चाहती हैं। वरना यदि उसे कोई दूसरा पालेगा तो बच्चा भी उसी के दिए संस्कार के अनुरूप ढलेगा। ऐसा बहुत कम होता है कि किसी देवकी को अपने बेटे को पालने के लिए यशोदा जैसी माँ मिल जाए, जो कि बच्चे को कृष्ण बना दे। ऐसे में आप बाद में इस बात का पश्चाताप करें कि बेटा हाथ से निकल गया तो फिर कुछ नहीं होने वाला। जब आपने अपने हाथों के पालने में उसे झुलाया ही नहीं होगा, तो वह आपके हाथ में रहेगा ही क्यों?और अंत में, आज 'संतान सप्तमी' है। इसलिए आज से ही अपने व्यवहार को बदलकर अपने बच्चे की देखभाल खुद करें। यदि आप कामकाजी महिला हैं तो उसके लिए अलग से समय निकालें ताकि उसे अपनी माँ की कमी महसूस न हो और वो भी बने आपका कन्हैया। अरे भई, सुना है आपका बच्चा अपनी आया को ही मम्मी बोलता है।