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Written By समय ताम्रकर

जोधा-अकबर की प्रेम गाथा

जोधा अकबर आशुतोष गोवारीकर रितिक रोशन ऐश्वर्या राय
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निर्माता : आशुतोष गोवारीकर-रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : आशुतोष गोवारीकर
संगीत : ए.आर. रहमान
कलाकार : रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, सोनू सूद, कुलभूषण खरबंदा, इला अरुण, निकितिन धीर, प्रमोद माउथो
रेटिंग : 3.5/5

आशुतोष गोवारीकर अपनी फिल्मों को विस्तार से बनाते हैं। ‘जोधा अकबर’ की प्रेम कहानी को भी उन्होंने लगभग पौने चार घंटे में समेटा है।

इतिहास में कल्पना का समावेश कर सोलहवीं सदी की इस प्रेम कथा को परदे पर पेश किया गया है। फिल्मकार का मानना है कि जोधा-अकबर की प्रेम कहानी को वो श्रेय नहीं मिला है, जो मिलना चाहिए था। जोधा के प्रेम से अकबर को अपनी सोच में एक नई दिशा मिली। वहीं दो भिन्न धर्म और संस्कृतियों का मिलन भी हुआ।

फिल्म की शुरुआत एक भीषण युद्ध से होती है और इससे फिल्म की भव्यता का अंदाजा लग जाता है। इस युद्ध का फिल्मांकन इतना शानदार है कि मुँह से वाह निकल जाता है।

इसके बाद बाल अकबर को दिखाया गया है, जो खून-खराबे के खिलाफ है, लेकिन उसके नाम पर उसके सहयोगी अपनी क्रूरता को अंजाम देते हैं। कहानी छलांग लगाकर युवा अकबर (रितिक रोशन) पर आती है, जो अपने फैसले खुद लेने का निर्णय लेता है।

आमेर के राजा भारमल (कुलभूषण खरबंदा) अपने राज्य की प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर मुगलों से दोस्ती करने का फैसला करता है। भारमल चाहता है कि उसकी बेटी जोधा (ऐश्वर्या) से अकबर शादी करें। बिना जोधा को देखे अकबर निकाह के लिए राजी हो जाता है।

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जोधा निकाह करने के पहले अकबर के सामने दो शर्त रखती हैं। वह अपना धर्म नहीं बदलेगी और उसे महल के अंदर एक मंदिर बनवाकर दिया जाएगा। अकबर दोनों शर्त कबूल कर लेता है। एक हिंदू लड़की से निकाह करने के बदले अकबर को कट्‍टरपंथियों की नाराजगी झेलना पड़ती है।

निकाह के बाद अकबर से जोधा दूर-दूर रहती है। वह कहती है कि फतह करना और मन जीतना दोनों अलग-अलग है। फिर शुरू होता है अकबर और जोधा का रोमांस। इस मुख्य कथा के साथ-साथ राजनीति, षड्‍यंत्र की उपकथाएँ भी चलती रहती हैं।

फिल्म में अकबर और जोधा के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला गया है। अकबर एक न्यायप्रिय होने के साथ-साथ सभी धर्मों के प्रति आदरभाव रखता था। जोधा के कहे गए वाक्य फतह करना और मन जीतना दोनों अलग-अलग बात हैं का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

वह जनता के बीच जाकर उनके हालात पता करता है। हिंदू तीर्थयात्रियों पर लगने वाले कर को हटाता है और लोगों का मन जीतता है। वो हिंदुस्तान को अपना मुल्क मानता है। उसके विचार आज भी सामयिक हैं।

राजकुमारी जोधा राजपूत तेवरों के साथ पेश की गई है। आत्मसम्मान वाला गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था। उसने निडरता के साथ मुगल सम्राट अकबर के आगे अपनी शर्त रखी और मनवाने में कामयाब भी हुई। तलवारबाजी और घुड़सवारी में निपुण जोधा एक बहादुर स्त्री थी।

आशुतोष गोवारीकर की इस फिल्म में भव्यता नजर आती है। उनका इस विषय पर किया गया शोध नजर आता है परंतु कुछ कमियाँ भी हैं। पटकथा अच्छी है, लेकिन बहुत शानदार नहीं है।

इस फिल्म में जबरदस्त ड्रामा की गुंजाइश थी, परंतु आशुतोष ने गहराई में जाने के बजाय सतह पर तैरना पसंद किया। जोधा-अकबर की प्रेम कहानी अच्छी है, लेकिन वह दिल को छूती नहीं। न ही आशुतोष ने उस दौर की परिस्थितियों में भीतर तक जाने की कोशिश की है।

संवाद इस फिल्म का दूसरा कमजोर पहलू है। इस तरह की कहानियों में संवाद बेहद दमदार और असरदार होना चाहिए जो दर्शकों को तालियाँ पीटने पर मजबूर कर दें, लेकिन इस तरह के संवाद फिल्म में कम हैं। संवाद में बेहद सरल हिंदी और उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जिसे समझने में कोई परेशानी महसूस नहीं होती है।

फिल्म में कुछ दृश्य उल्लेखनीय हैं। मसलन जोधा द्वारा अकबर का नाम लिखना और अनपढ़ होने के कारण अकबर का उसे पढ़ने में असमर्थ होना। वह जोधा को पढ़ने को कहता है और जोधा विचित्र परिस्थि‍ति में फँस जाती है कि एक हिंदू स्त्री अपने पति का नाम कैसे ले।

जोधा का निकाह के पहले अकबर के सामने शर्त रखना।

बावर्चीखाने में जोधा का अकबर के लिए खाना बनाना। वहाँ पर उसका अकबर की दाई माँ (इला अरुण) से वाक् युद्ध। बाद में उसे सबके सामने खाना चखकर यह साबित करना कि उसने खाने में कुछ नहीं मिलाया है और अकबर का बाद में उसी थाली में भोजन करना। अंत में अकबर और शरीफुद्दीन के बीच की लड़ाई।

अकबर के रूप में रितिक थोड़े असहज नजर आए। ‍वे अकबर कम और रितिक ज्यादा लगे। ऐश्वर्या राय उन पर भारी पड़ीं। पहली फ्रेम से दर्शक उन्हें जोधा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। अभिनय की दृष्टि से ‘जोधा अकबर’ ऐश्वर्या की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक गिनी जाएगी।

सोनू सूद (राजकुमार सुजामल), इला अरुण (महाम अंगा), कुलभूषण खरबंदा (राजा भारमल), निकितिन धीर (शरीफुद्दीन), उरी (बैरम खान), प्रमोद माउथो (टोडरमल) का अभिनय भी उम्दा है। नीता लुल्ला के कास्ट्यूम उल्लेखनीय हैं। किरण देओहंस का कैमरावर्क अंतरराष्ट्रीय स्तर का है।

एआर रहमान का संगीत फिल्म देखते समय ज्यादा अच्छा लगता है। ‘जश्ने बहारा’, ‘अज़ीम ओ शान शहंशाह’ और ‘ख्वाजा मेरे ख्वाजा’ सुनने लायक हैं। रहमान का बैकग्राउंड संगीत फिल्म को अतिरिक्त भव्यता प्रदान करता है।

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फिल्म की लंबाई थोड़ी ज्यादा जरूर है, लेकिन बोरियत नहीं होती। यदि फिल्म संपादित कर तीस मिनट छोटी कर दी जाए तो इससे फिल्म में कसावट आ जाएगी।

‘जोधा अकबर’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए। ऐसा लगता है जैसे टाइम मशीन में बैठकर हम सोलहवीं सदी में पहुँच गए हैं और सब कुछ हमारी आँखों के सामने घट रहा है।