हिन्दी सिनेमा की नायिकाओं में आशा पारेख की इमेज टॉम-बॉय की रही है। हमेशा चुलबुला, शरारती और नटखट अंदाज। यही वज़ह रही कि आशा के समकालीन नायकों ने उनसे दूर रहने में ही भलाई समझी।
शम्मी कपूर जैसे दिल हथेली पर लेकर चलने वाले नायक को वह शुरू से चाचा कहकर पुकारती थीं और उनके आखिरी समय तक यही सम्बोधन जारी रहा। आशा के बारे में मीडिया में कभी अभद्र गॉसिप या स्केण्डल नहीं छपे। अलबत्ता आशा का साथ पाकर उनके नायकों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सिल्वर तथा गोल्डन जुबिली मनाती रहीं।
इसके बावजूद आशा को अभिनय के क्षेत्र में वह मान्यता तथा प्रतिष्ठा नहीं मिली जो नूतन, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगौर अथवा वैजयंती माला को नसीब हुई थी। यह अफसोस आशा के मन में लंबे समय तक कायम रहा।
बचपन से डांस का शौक
महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिवस दो अक्टोबर 1942 को जन्मी आशा की मां सुधा सामाजिक कार्यकर्ता के अलावा आजादी के आंदोलन में सक्रिय थीं। वह उसी दिन एक रैली में भाग लेने चली गई थीं। आशा के मामा बड़ी मुश्किल से अपनी बहन को समझाइश देकर घर लाए। उसी रात आशा की किलकारियां घर में गूंजी थी।
बचपन से आशा को डांस का शौक था। पड़ोस के घर में संगीत बजता, तो घर में उसके पैर थिरकने लगते थे। बाद में मां ने कथक नर्तक मोहनलाल पाण्डे से प्रशिक्षण दिलवाया। बड़ी होने पर पण्डित गोपीकृष्ण तथा पण्डित बिरजू महाराज से भरत नाट्यम में कुशलता प्राप्त की।
अपनी नृत्यकला को आशा ने जन-जन तक फैलाने के लिए हेमा मालिनी एवं वैजयंती माला की तरह नृत्य-नाटिकाएं चोलादेवी एवं अनारकली तैयार की और उनके स्टेज शो पूरी दुनिया में प्रस्तुत किए। उन्हें इस बात का गर्व है कि अमेरिका के लिंकन-थिएटर में भारत की ओर से पहली बार नृत्य की प्रस्तुति दी थी।
स्टार मटेरियल नहीं
स्कूल के एक कार्यक्रम में फिल्कार बिमल राय ने आशा को फिल्म बाप-बेटी में एक छोटी भूमिका दी थी, लेकिन फिल्मकार विजय भट्ट ने अपनी फिल्म गूंज उठी शहनाई में आशा को यह कहकर मना कर दिया कि उसमें 'स्टार मटेरियल' नहीं है।
आशा के करियर को संवारने-निखारने का काम डायरेक्टर नासिर हुसैन ने किया। वे उनकी लाइफ में एक तरह से गॉड फादर की तरह आए। वह उन दिनों शशधर मुखर्जी की फिल्म 'दिल देके देखो' के लिए नई तारिका की तलाश में थे। जिस दिन बात फाइनल हुई, उस दिन आशा का सत्रहवां जन्मदिन था। यह फिल्म जन्मदिन का गिफ्ट बनकर उनके जीवन में आई।
1959 से लेकर 1971 तक यानी कि दिल दे के देखो से लेकर कारवां फिल्म तक नासिर हुसैन गीत-संगीत से भरपूर रोमांटिक लाइट मूड की फिल्में बनाते रहे और आशा ने उनकी फिल्मों में मस्ती के साथ काम किया।
मैं तुलसी तेरे आंगन की
नासिर हुसैन के अलावा दूसरे बैनर्स में काम करने से आशा की इमेज बदलने लगी। उन्हें सीरियसली लिया जाने लगा। राज खोसला निर्देशित मैं तुलसी तेरे आंगन की, दो बदन और चिराग, शक्ति सामंत की कटी पतंग ने उन्हें गंभीर भूमिकाएं करने तथा अभिनय प्रतिभा दिखाने के अवसर प्रदान किए।
शम्मी कपूर, राजेश खन्ना, मनोज कुमार, राजेंद्र कुमार, धर्मेन्द्र, जॉय मुखर्जी जैसे उस दौर के मशहूर सितारों के साथ आशा ने काम किया। शम्मी कपूर के साथ उनकी कैमिस्ट्री खूब जमी और फिल्म तीसरी मंजिल ने तो कमाल कर दिखाया।
आशा की समकालीन अभिनेत्री नंदा, माला सिन्हा, सायरा बानो, साधना एक-एक कर गुमनामी के अंधेरे में खो गई, लेकिन आशा अपनी समाज सेवा तथा इतर कार्यों के कारण लगातार चर्चा में बनी रहीं।
अपनी मां की मौत के बाद आशा के जीवन में एक शून्यता आ गई। उसे समाज सेवा के जरिये भरने की उन्होंने सफल कोशिश की है। मुंबई के एक अस्पताल का पूरा वार्ड उन्होंने गोद ले लिया। उसमें भर्ती तमाम मरीजों की सेवा का काम किया। जरूरतमंदों की मदद की।
फिल्मी दुनिया के कामगारों के कल्याण के लिए लंबी लड़ाइयां भी उन्होंने लड़ी है। सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन की छः साल तक वे अध्यक्ष रहीं। केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन् मण्डल (मुंबई) की चेयर परसन बनने वाली वह प्रथम महिला हैं। इस कांटों के ताज वाली कुर्सी पर बैठकर जब उन्होंने निष्ठापूर्वक काम किया, तो तरह-तरह के लोगों से उनका सामना हुआ।
फिल्मों में हिंसा और अश्लीलता के दृश्यों पर जब आपत्तियां ली गई, तो आशा को आड़े हाथों लिया गया। सबसे कडुआ अनुभव उन्हें शेखर कपूर से हुआ। उनकी फिल्म 'बैंडिट क्वीन' जब सेंसर बोर्ड में पास होने आई, तो कुछ संवाद तथा सीन काटने के आदेश जारी हुए।
फिल्म के डायरेक्टर शेखर कपूर मीडिया में गए और आशा पर अनेक तरह के आरोप लगाए। आशा ने उसका डटकर सामना किया। आखिर में फिल्म के निर्माता बेदी आगे आए और आशा ने जो कट्स सुझाए थे, उन्हें निकाल कर फिल्म भारत में रिलीज की।
सीरियल श्रृंखला
फिल्मों में चरित्र नायिका के कुछ रोल करने के बाद आशा ने एक तरह से फिल्मों से संन्यास ले लिया। उन्होंने कोरा कागज तथा कंगन जैसे पारिवारिक धारावाहिक बनाए और अपनी लोकप्रियता को जारी रखा।
उन्हें शादी नहीं करने का मलाल नहीं है। वह कहती हैं कि यदि शादी हो गई होती तो आज जितने काम वह कर पाई हैं उससे आधे भी नहीं हो पाते। वहीदा रहमान और नंदा से उनकी दोस्ती बड़ी मशहूर रही है। नंदा के गुजर जाने से वे उदास हैं।
प्रमुख फिल्में
दिल देके देखो, आए दिन बहार के, आन मिलो सजना, आया सावन झूम के, कटी पतंग, कारवां, दो बदन, घराना, लव इन टोकियो, मेरे सनम, फिर वहीं दिल लाया हूं, तीसरी मंजिल, जब प्यार किसी से होता है, प्यार का मौसम, मेरा गांव मेरा देश, साजन, जिद्दी, हीरा, मैं तुलसी तेरे आंगन की, पगला कहीं का इसके अलावा दो गुजराती, दो पंजाबी और एक कन्नाड़ फिल्म भी उन्होंने की है।