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Written By अनहद

आतंकवाद के खिलाफ आम आदमी का रोल

आतंकवाद के खिलाफ आम आदमी का रोल -
आतंकवाद के खिलाफ नाटक करने के लिए नेताओं को माफ किया जा सकता है, पर टीवी वालों और फिल्म वालों को नहीं। कई बार नेता लोग फोटो छपाने की खातिर आम जनता को आतंकवाद के खिलाफ शपथ दिलाते हैं। आतंकवाद न हुआ ठेके की शराब हो गया कि कसम खाते हैं आज से नहीं पिएँगे। ऐसा लगता है कि आतंकवाद मोहल्ले-मोहल्ले घूमता है और लोग उसे देखकर आँखें फेर लेते हैं। नेता शपथ दिला दे तो लोग उसे मिलकर मारेंगे। आतंकवाद से लड़ने के लिए आम आदमी क्या कर सकता है? मान लीजिए कहीं कुछ संदिग्ध नजर आ जाए तो उसे पुलिस को खबर देने के सिवा क्या करना चाहिए? क्या खुद टूट पड़ना चाहिए? आतंकवाद से लड़ना सुरक्षा एजेंसियों का काम है। इसमें उन्हें खुफिया विभाग से मदद मिलती है। आम आदमी को कैसे पता चलेगा कि कौन आतंकवादी है, कौन नहीं?

एक चैनल पर इन दिनों एक रिअलिटी शो आ रहा है। इसमें युवाओं को आतंकवाद के खिलाफ कमांडो ट्रेनिंग दी जा रही है। जाने अनजाने ये विचार स्थापित हो रहा है कि आतंकवाद के खिलाफ आम जनता को लड़ना चाहिए। बेशक लड़ना चाहिए मगर बिना ये जाने कि कौन आतंकवादी है, आम आदमी कैसे लड़ेगा? "मुंबई मेरी जान" में केके मेनन ने ऐसे आदमी का किरदार निभाया है, जो हर मुस्लिम को आतंकी समझता है। फिल्मों में आतंकियों का जो रंगरूप दिखाया जाता है, वो मजहबी मुस्लिमों के बहुत करीब है। क्या आतंकवाद से लड़ने की ट्रेनिंग लेने वाले शंका-कुशंका में किसी दीनदार मुस्लिम पर हमला नहीं कर सकते? दंगे में क्या होता है? केवल पहचान देखकर वार किया जाता है। इस तरह की ट्रेनिंग और इस तरह की बातें बहुत खतरनाक हैं। इस बात का खयाल रखना होगा कि आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर हम कहीं दंगाई तो पैदा नहीं कर रहे?

फिल्म "ए वेडनसडे" का संदेश भी यही था कि आम आदमी आतंकवाद से लड़े। नायक जेल में बंद आरोपियों को बहाने से बाहर निकलवाता है और मार डालता है। क्या किसी भी सभ्य देश में आतंकवाद से निपटने का ये तरीका हो सकता है? अदालत नहीं, गवाही नहीं, बस गिरफ्तारी और सजा-ए-मौत! असल समस्या हकीकत में यह नहीं है कि आतंकवाद से लड़ने वाले कम पड़ रहे हैं। लड़ने वाले बहुत हैं। पुलिस है, फौज है। समस्या यह है कि आतंकवादियों को हम पकड़ नहीं पाते हैं। मुंबई पर हमला करने वाले चंद लोगों से लड़ने के लिए हमें फौज और पुलिस के जवान कम नहीं पड़े। कसाब को फाँसी की सजा सुनाए जाने के लिए कानून कम नहीं पड़ा। आम आदमी को आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए फौजी ट्रेनिंग देना या हिंसा के लिए उकसाना खतरनाक है। आम नागरिक शक और अफवाहों के आधार पर अपने जैसे ही दूसरे नागरिकों को निशाना बना सकते हैं। आतंकवाद के खिलाफ हमारी एजेंसियों का रवैया ठीक है। वे आम आदमी से यह अपेक्षा रखते हैं कि संदिग्ध वस्तु या व्यक्ति के खिलाफ उन्हें सूचित किया जाए। यहाँ तक बिलकुल सही है। मगर जब आप आम आदमी से एक्शन लेने के लिए कहते हैं, तो अराजकता और हिंसा को बढ़ावा देते हैं। टीवी पर तैयार किए जाने वाले कमांडो जिंदगी भर असली आतंकवादी नहीं ढूँढते रह सकते। वे ताकत और ट्रेनिंग का प्रयोग आपसी झगड़ों में भी कर सकते हैं।