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Written By BBC Hindi
Last Modified: शुक्रवार, 25 नवंबर 2022 (12:40 IST)

लचित बरफुकन: वो असमिया योद्धा जिसके सैनिक राक्षस बनकर मुग़लों से लड़े

लचित बरफुकन: वो असमिया योद्धा जिसके सैनिक राक्षस बनकर मुग़लों से लड़े - Lachit Borphukan 400th birth anniversary
अशोक कुमार पांडेय, इतिहासकार और लेखक, बीबीसी हिंदी के लिए
24 नवंबर 2022 असमिया योद्धा लचित बरफुकन की 400वी जयंती का दिन है। सोलहवीं सदी में मुग़ल विस्तारवाद को सफल चुनौती देने वाले लचित असम के समाज में एक नायक की तरह प्रतिष्ठित हैं और हर वर्ष उनकी जयंती 1930 से ही पूरे असम में 'लचित दिवस' के रूप में धूमधाम से मनाई जाती रही है।
 
1999 में भारतीय सेना ने हर साल नेशनल डिफेंस अकादमी (NDA) के सर्वश्रेष्ठ कैडट को लचित बरफुकन स्वर्ण पदक देने का निर्णय लिया गया था।
 
1930 में अहोम विद्वान गोलप चंद्र बरुआ ने देवधाय पंडित के पास उपलब्ध बुरांजी (शाब्दिक अर्थ-अज्ञात कथाओं का भंडार, असम के प्राचीन पंडितों की इतिहास की पोथियाँ) का मूल सहित जो अंग्रेज़ी अनुवाद किया था उसमें भी लचित बरफुकन की कहानी विस्तार से आती है।
 
आज़ादी के तुरंत बाद 1947 में ही असम सरकार ने इतिहासकार एसके भूइयांने उन पर लिखी किताब 'लचित बरफुकन एंड हिज़ टाइम्स' प्रकाशित की और अमर चित्रकथा सीरीज़ के तहत भी उन पर एक कॉमिक्स प्रकाशित हुई लेकिन असम से बाहर आज भी उन्हें कम लोग जानते हैं।
 
अहोम वंश और मुग़ल आक्रमण
1970 में प्रकाशित अपनी किताब 'असम इन अहोम एज' में निर्मल कुमार बासु बताते हैं कि तेरहवीं सदी में असम में अहोम वंश का वर्चस्व स्थापित हुआ था। महान ताई वंश की शान शाखा के अहोम योद्धाओं ने सुखपा के नेतृत्व में स्थानीय नागों को पराजित कर वर्तमान असम पर क़ब्ज़ा किया और अगले 600 वर्षों तक असम पर इनका आधिपत्य रहा।
 
इस इलाक़े का वर्तमान नाम असम भी इसी अहोम वंश के नाम पर है। अहोम वंश का आरंभिक धर्म बांगफ़ी ताई धर्म, बौद्ध धर्म और स्थानीय धर्म का मिला-जुला रूप था और 2010 में सूचना मंत्रालय की तपन कुमार गोगोई के निर्देशन में बनी डाक्यूमेंट्री 'हिज़ मेजेस्टी द अहोम्स' के अनुसार अठारहवीं सदी में जाकर ही वहाँ हिन्दू धर्म पूरी तरह स्थापित होता है।
 
बासु के अनुसार सोलहवीं सदी से ही वहाँ वैष्णव संप्रदाय का प्रभाव बढ़ने लगा था। बासु बताते हैं कि आम तौर पर अहोम राजा दूसरे धर्मों के प्रति काफ़ी सहिष्णु थे।
 
सत्रहवीं सदी के आरंभ तक असम अहोम शासकों के अंतर्गत पूरी तरह से स्वाधीन राज्य था और इसकी सीमाएं पश्चिम में मनहा नदी से पूरब में सादिया की पहाड़ियों तक कोई 600 मील में फैली थीं जिसकी औसत चौड़ाई पचास से साठ मील तक की थी। सादिया पहाड़ियों से तिब्बत के लिए कई रास्ते खुलते थे जबकि मनहा नदी के पूर्वी तट तक मुग़ल साम्राज्य की सीमा थी।
 
उन दिनों राज्य की राजधानी पूर्वी इलाक़े में गरगांव हुआ करती थी और गुवाहाटी लोअर असम के प्रमुख बरफुकन का मुख्यालय था। यह दौर मुग़ल असर के बढ़ते जाने का था और 1639 में अहोम सेनापति मोमाई-तामूली बरबरुआ और मुग़ल सेनापति अल्ला यार खान के बीच हुई एक संधि में गुवाहाटी सहित पश्चिम असम मुग़लों के हाथ में चला गया।
 
लेकिन 1648 में अहोम साम्राज्य के प्रमुख बने राजा जयध्वज सिंह ने शाहजहाँ की बीमारी का लाभ उठाकर मुग़लों को मनहा (मानस) नदी के उस पार धकेल दिया और ढाका के क़रीब मुग़ल इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करके अनेक मुग़ल सैनिकों को बंदी बना लिया। इसी समय कूच बिहार ने भी खुद को आज़ाद घोषित कर दिया।
 
मीर जुमला का अभियान
दिल्ली की सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के बाद औरंगज़ेब ने मीर जुमला को पूर्वी भारत पर फिर से मुग़ल आधिपत्य स्थापित करने के लिए भेजा। कूच बिहार पर विजय हासिल करने के बाद मीर जुमला 1662 के आरंभ में असम पहुंचा और मनहा नदी से गुवाहाटी के बीच का इलाक़ा आसानी से जीत कर आगे बढ़ा।
 
इतिहासकार भूइयां बताते हैं कि एक कायस्थ को लोअर असम का शासक नियुक्त करने के राजा के फ़ैसले से सामंत वर्ग नाराज़ था और उसने बेमन से मीर जुमला के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी जिसकी वजह से वह लगभग निर्विरोध विजय हासिल करता गया।
 
हालाँकि मुग़ल सेना के कालियाबार तक पहुँच जाने के बाद अहोम सैनिक चेते लेकिन मीर जुमला के सेनापति दिलेर खान दाऊदज़ई ने 26 फरवरी 1662 को सिमलुगढ़ का क़िला फतह कर लिया। राजा जयध्वज सिंह पहाड़ियों में भाग गए और 17 मार्च 1662 को मीर जुमला ने राजधानी गरगांव पर क़ब्ज़ा कर लिया।
 
लेकिन असमिया जनता ने प्रतिकार ज़ारी रखा और जयध्वज सिंह के निर्देश में चले संघर्ष के दौरान मीर जुमला को भी एहसास हो गया कि वहाँ बने रहने में कोई चतुराई नहीं है। अंततः जनवरी 1663 में घिलाझारी घाट में एक संधि हुई जिसमें अहोम राजा ने पश्चिमी असम मुग़लों को दे दिया और युद्ध के हर्जाने के रूप में तीन लाख रुपयों और नब्बे हाथियों के साथ, बीस हाथियों का वार्षिक नज़राना देने का वादा किया।
 
साथ ही, उन्होंने अपनी इकलौती बेटी और भतीजी मुग़ल हरम में भेज दी। इसके बाद फरवरी 1663 में मीर जुमला 12000 असमिया बंधकों के साथ लोअर असम की कमान राशिद खान को सौंपकर वापस चला गया।
 
लचित बरफुकन ने पलटा पासा
संधि के बाद हालाँकि ऊपरी तौर पर राजा संधि की शर्तों को निभाते रहे लेकिन भीतर-भीतर अपने राज्य को मुग़ल प्रभुत्व से छुड़ाने के लिए कोशिशें भी करते रहे। अपनी सेना को मज़बूत करने के अलावा उन्होंने आसपास के राज्यों से भी सहयोग की अपील की। लेकिन नवंबर 1663 में राजा जयध्वज सिंह की मृत्यु हो गई और उनके चचेरे भाई चक्रध्वज सिंह नए शासक बने।
 
नए राजा ने पद संभालने के साथ ही मुग़ल सेना के खिलाफ़ लड़ाई का इरादा ज़ाहिर किया लेकिन मंत्री और दरबारियों की सलाह पर अगले दो साल तक हर तरह की तैयारी की गई। इसमें युद्धकाल के लिए पर्याप्त अनाज़ की व्यवस्था, सेनाओं का पुनर्गठन और जल सेना को मज़बूत किया जाना शामिल था।
 
अब सबसे बड़ा सवाल था अहोम सेना के लिए सेनापति का चुनाव। हफ़्तों चली मंत्रणा के बाद लचित बरफुकन को यह जिम्मेदारी दी गई।
 
लचित बरफुकन पूर्व सेनापति मोमाई-तामूली बरबरुआ का सबसे छोटा बेटा था जिन्होंने जहांगीर और शाहजहाँ के समय मुग़ल सेना से युद्ध किए थे।
 
लचित की बहन पाखरी गभारू की शादी राजा जयध्वज सिंह से हुई थी और उसकी बेटी रमानी गभारू की शादी घिलाझारी घाट संधि के अनुसार औरंगज़ेब के तीसरे बेटे सुल्तान आज़म से हुई थी।
 
लचित की सैन्य और बाक़ी शिक्षा एक वरिष्ठ सामंत के जैसी ही हुई थी और वह अहोम सेना के सर्वोच्च पद पर पहुँचने के पहले घोड़ा-बरुआ (घुड़साल प्रमुख), दुलिया बरुआ, सिमलगुरिया फुकन (कर वसूली का प्रमुख) तथा डोलाकाशरिन बरुआ (पुलिस प्रमुख) रह चुके थे।
 
इन पदों पर रहते हुए उसने जो योग्यता प्रदर्शित की थी उसी के चलते उन्हें अहोम सेनापति की ज़िम्मेदारी दी गई थी, मुक़ाबला उस समय की सबसे मज़बूत मुग़ल सेना से था और चुनौती आसान नहीं थी। लेकिन अपनी सूझ-बूझ और वीरता से लचित बरफुकन ने जो किया वह इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया।
 
युद्ध का आरंभ और राजा राम सिंह से मुक़ाबला
20 अगस्त 1667 को अहोम सेना ने मुग़लों से अपनी ज़मीन छीनने के लिए प्रस्थान किया। लंबे युद्ध के बाद 2 नवंबर 1667 को इटाखुली का महत्त्वपूर्ण क़िला और गुवाहाटी का नियंत्रण जीत लिया गया। शत्रु को मनहा नदी के पार भेज दिया गया तथा मीर जुमला के बंदी अहोम सैनिकों को रिहा कराने के साथ कई मुग़ल सरदारों को गिरफ़्तार भी कर लिया गया।
 
जीते गए इलाक़ों की नए सिरे से क़िलेबन्दी की गई ताकि भविष्य में होने वाले किसी आक्रमण का सामना किया जा सके।
 
औरंगज़ेब भी चुप नहीं बैठने वाला था। उसने असम पर फिर से क़ब्ज़े के लिए राजा जय सिंह के बेटे राजा राम सिंह को भेजा।
 
इतिहासकार भूइयां इसे एक तरफ़ उनकी योग्यता का सम्मान बताते हैं तो दूसरी तरफ़ शिवाजी और गुरु तेगबहादुर, दोनों राम सिंह की ही निगरानी को चकमा देकर पलायन करने में सफल रहे थे, जिससे मुगल राम सिंह से नाराज़ थे।
 
कहते हैं कि इन घटनाओं के बाद राम सिंह की पदवी और दरबार में शामिल होने का अधिकार छिन जाने से जय सिंह इतने आहत हुए थे कि उन्होंने प्राण त्याग दिए। जय सिंह की मृत्यु के बाद राम सिंह को पदवी और अधिकार तो मिले लेकिन खलिश रह गई।
 
मीर जुमला की मृत्यु के बाद बादशाह की नज़रों में राम सिंह सबसे क़ाबिल व्यक्ति थे और 6 जनवरी 1668 को उन्हें असम आक्रमण का सेनापति नियुक्त किया गया। वहीं जल सेना की कमान इस्माइल सिद्दीक़ी के हाथ में थी।
 
राजा राम सिंह की सेना में 21 राजपूत सामंत, 30 हज़ार की पैदल सेना, 18 हज़ार तुर्की घुड़सवार और 15 हज़ार तीरंदाज शामिल थे। ढाका में इसमें दो हज़ार सैनिक और शामिल हो गए, पटना से गुरु तेगबहादुर सिंह और पाँच मुस्लिम पीरों को कामरूप में किसी संभावित काले जादू का मुक़ाबले करने के लिए साथ ले लिया गया।
 
इसी यात्रा के दौरान गुरु तेग बहादुर को पटना में गोबिंद के जन्म की ख़बर मिली। असम के धुबरी में गुरु तेगबहादुर ने एक गुरुद्वारा भी बनवाया था।
 
अहोम सेना जानती थी कि राजा राम सिंह का मुक़ाबला आसान नहीं। यही वह दौर था जब शिवाजी ने गुरिल्ला तकनीक अपनाकर काफ़ी सफलता अर्जित की थी। चक्रध्वज सिंह इससे परिचित थे और इसके प्रशंसक भी। लचित बरफुकन ने इसी तकनीक का सहारा लेने का निश्चय किया और क़िलेबन्दी को लेकर उसकी सावधानी इसी बात से समझी जा सकती है कि जब एक क़िला समय से नहीं बन सका तो उसने इसके प्रभारी अपने सगे मामा को मौत की सज़ा देते हुए कहा-"मेरा मामा मेरे देश से बड़ा नहीं है"।
 
अहोम सेना की ऐतिहासिक विजय
फरवरी 1669 में अपनी विशाल सेना के साथ राजा राम सिंह सीमा की चौकी रांगामाटी पर पहुँच गए। सीधे मुक़ाबले के बजाय लचित बरफुकन ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपनाई। राजा राम सिंह की सेना तेजपुर के पास दो लड़ाइयों में विजयी रही लेकिन नौसेना के युद्ध में अहोम भारी पड़े।
 
सुआलकुची के पास हुए युद्ध में भी अहोम सेना जल और थल, दोनों जगह विजयी हुई। छापामार युद्ध के तहत बरफुकन के सैनिक आधी रात को क़िलों से निकलकर शत्रु सेना पर छिपकर हमला करते और भारी नुक़सान पहुंचाते।
 
राजा राम सिंह ने इसका विरोध करते हुए बरफुकन को लिखे एक पत्र में इसे चोर-डकैतों वाली हरकत बताया और ऐसे युद्ध में भाग लेने को अपनी शान के खिलाफ़ कहा। जवाब में बरफुकन के ब्राह्मण दूतों ने कहा कि अहोम सेना केवल रात में युद्ध कर सकती है क्योंकि उसकी सेना में एक लाख राक्षस हैं।
 
यह साबित करने के लिए अगली रात सैनिकों को राक्षस वेशभूसा में भेजा गया और अंततः राम सिंह ने मान लिया कि उसका मुक़ाबला राक्षसों से है।
 
राम सिंह ने अहोम सेना को सीधे युद्ध की चुनौती दी लेकिन लचित बरफुकन ने अपनी नीति नहीं बदली। सेसा के पास अचानक हमला करके अहोम सेना ने मुग़लों को नुकसान पहुंचाया तो राम सिंह ने जवाबी हमला करके भयानक तबाही मचाई।
 
इसके बाद दोनों पक्षों में शांति वार्ता शुरू हुई और लड़ाई कुछ दिन टल गई। इसी समय चक्रध्वज सिंह की मृत्यु हो गई तथा उनका भाई माजू गोहेन उदयादित्य के नाम से सिंहासन पर बैठा और उसने अपने दिवंगत भाई की पत्नी से विवाह किया। उदयादित्य ने शांति वार्ता बंद करके फिर से युद्ध शुरू करने का फ़ैसला लिया।
 
अनेक उतार-चढ़ाव और अलाबोई के मैदानी युद्ध में दस हज़ार सैनिक खोने के बाद सरायघाट के निर्णायक युद्ध में अहोम सेना विजयी रही और राम सिंह को मार्च 1671 में रांगामाटी लौटना पड़ा।
 
इस युद्ध में आरंभिक सफलता मुग़ल सेना को मिली थी और अहोम सेना जब पीछे हटने लगी तो बीमार लचित बरफुकन एक छोटी सी नाव में खुद युद्ध में उतर गए और उसकी ललकार सुनकर जोश से भरे अहोम सैनिकों ने पूरी हिम्मत से लड़ते हुए राजा राम सिंह को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
 
अहोम सेना और लचित बरफुकन की तारीफ़ करते हुए राजा राम सिंह ने कहा था- 'एक ही सेनापति पूरी सेना का नियंत्रण करता है.. हर आसामी सैनिक नाव चलाने में, तीरंदाजी में, खाइयाँ खोदने और बंदूक तथा तोप चलाने में माहिर है। मैंने भारत के किसी हिस्से में इस तरह की हरफनमौला फौज नहीं देखी है। मैं जंग के मैदान में खुद शामिल रहते हुए भी उनकी एक भी कमज़ोरी नहीं पकड़ पाया।'
 
हालाँकि मुग़ल सेना ने कोशिशें नहीं छोड़ीं लेकिन 1681 में अहोम सेना ने निर्णायक विजय हासिल कर ली और मुग़ल साम्राज्य के पतन के दौर में कमज़ोर शासकों ने असम पर क़ब्ज़े का कोई प्रयास नहीं किया।
 
लेकिन उन्नीसवीं सदी आते-आते कमज़ोर हो चुके अहोम साम्राज्य ने ब्रिटिश शासन के सामने घुटने टेक दिए और 600 वर्षों के आज़ाद शासन के बाद असम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ग़ुलाम हो गया।
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