सोमवार, 23 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. Kumar Vishwas
Written By
Last Modified: बुधवार, 3 जनवरी 2018 (11:35 IST)

क्या केजरीवाल की राजनीति में 'मिसफ़िट' हैं विश्वास?

क्या केजरीवाल की राजनीति में 'मिसफ़िट' हैं विश्वास? - Kumar Vishwas
- प्रमोद जोशी (वरिष्ठ पत्रकार)
राज्यसभा की सदस्यता के लिए तीन प्रतिनिधियों के नाम तय करने में चले गतिरोध की वजह से आम आदमी पार्टी के अंतर्विरोध एकबार फिर से खुलकर सामने आ गए हैं। सवाल है कि क्या पार्टी ने अपने संस्थापकों में से एक कुमार विश्वास से किनाराकशी करने का फ़ैसला अंतिम रूप से कर लिया है?
 
राज्यसभा के नामांकन 5 जनवरी तक होने हैं। निर्णायक घड़ी नज़दीक है। पार्टी की सूची को अब सामने आ जाना चाहिए। स्वाभाविक रूप से इसमें कुमार विश्वास का नाम पहले नम्बर पर होना चाहिए, पर लगता है कि ऐसा होगा नहीं।
 
साल 2015 में बनी केजरीवाल सरकार में कुमार का नाम नहीं होने पर प्रेक्षकों का माथा ठनका था। तब कहा गया कि राज्यसभा की तीन सीटों में से एक तो उन्हें मिल ही जाएगी। बहरहाल तब से अब तक यमुना में काफ़ी पानी बह गया और देखते ही देखते कहानी ने ज़बर्दस्त मोड़ ले लिया।
 
सवाल यह है कि अब क्या होगा? कुमार विश्वास के अलावा राज्यसभा सदस्यता के लिए संजय सिंह, आशुतोष, आशीष खेतान और राघव चड्ढा के नामों की भी चर्चा थी। पर कुमार विश्वास के नाम का मतलब कुछ और है।
 
बाहरी नामों पर रहा ज़ोर
पिछले दो महीनों में पार्टी के अंदरूनी सूत्र तमाम बाहरी नामों का ज़िक्र करते थे, पर कुमार विश्वास का नाम सामने आने पर चुप्पी साध लेते थे। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और राम जेठमलानी जैसे नाम उछले। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर का नाम भी सामने आया। पर कुमार विश्वास के नाम का पूरे भरोसे से ज़िक्र नहीं किया गया।
 
पार्टी दो कारणों से बाहरी नामों की हवा फैला रही थी। उसकी इच्छा एक 'हैवीवेट' नेता को राज्यसभा में अपना प्रतिनिधि बनाने की है। वह राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी आवाज़ बुलंद करना और पहचान बनाना चाहती है।
 
पार्टी की रणनीति बीजेपी-विरोधी स्पेस में बैठने की है। दूसरे, ऐसा करके उसका इरादा पार्टी के भीतर के टकराव को भी टालने का था। बहरहाल अब टकराव निर्णायक मोड़ पर है। देखना होगा कि क्या कुमार विश्वास पूरी तरह अलग-थलग पड़ेंगे? या उनकी वापसी की अब भी गुंजाइश है?
 
केरजीवाल से टकराव?
सवाल यह भी है कि कुमार को क्यों काटा जा रहा है? उन्हें 'राष्ट्रवादी' और बीजेपी से हमदर्दी रखने वाला माना जाता है। केजरीवाल की प्रकट राजनीति इसके विरोध में है। टकराव इन दोनों के बीच ही है, जिसका ज़रिया कुछ दूसरे लोग बनते रहे हैं। व्यक्तिगत ईर्ष्या और वैचारिक टकराव दोनों इसके पीछे हैं।
 
नवम्बर में कुमार विश्वास ने कहा कि उन्हें राज्यसभा की सीट से वंचित करने की साजिश हो रही है। पिछले दस-बारह महीनों पर नज़र डालें तो वे वैसे ही अलग-थलग नज़र आते हैं। पार्टी का एक खेमा साफ़-साफ़ उनके ख़िलाफ़ है।
 
कुमार के साथ भी कुछ आक्रामक समर्थक हैं। हाल में उनके कारण पार्टी दफ़्तर में पुलिस बुलानी पड़ी। कुछ समय से कुमार आम आदमी पार्टी के 'पुनराविष्कार' की बातें भी कर रहे हैं। यह सब पार्टी 'हाईकमान' को बर्दाश्त नहीं हो सकता।
 
हालांकि कुमार कहते रहे हैं कि उनके दरवाजे से राज्यसभा की कई सीटें वापस गई हैं, पर लगने लगा था कि इस बार टकराव होगा। उनके हाल के एक ट्वीट में कहा गया, 'पहले देश, फिर दल, फिर व्यक्ति...अभिमन्यु के वध में भी उसकी विजय है।'
 
इधर केजरीवाल ने अपने एक पुराने इंटरव्यू के क्लिप को रिट्वीट किया, 'जिन जिन लोगों को पद और टिकट का लालच है, आज पार्टी छोड़ कर चले जाएं। वो गलत पार्टी में आ गए हैं।'
 
कुमार को राजस्थान से लोकसभा का टिकट देने की पेशकश भी हुई थी। पर राज्यसभा की सुनिश्चित सीट और लोकसभा के अनिश्चित टिकट में मेल नहीं है।
 
कुमार के नाम पर गुरेज़ क्यों?
प्रश्न यह है कि पार्टी को कुमार के नाम पर गुरेज़ क्यों है? उनका 'स्वतंत्र' दृष्टिकोण वस्तुतः मतभेद की जड़ में है। वे अच्छे 'फॉलोअर' साबित नहीं हुए। उन्हें राज्यसभा की सदस्यता देने का मतलब होता उनके विचारों की राजनीतिक पुष्टि। यह टकराव जून 2017 में मुख़र हुआ था। पार्टी के एक सदस्य अमानतुल्ला खां ने कुमार विश्वास को बीजेपी और आरएसएस का एजेंट बताया था।
 
तब अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया, 'कुमार विश्वास मेरा छोटा भाई है।' जिसके जवाब में कुमार विश्वास ने एक टीवी मुलाकात में कहा, 'हम रिश्तेदार नहीं है...हम सभी एक मकसद के लिए कार्य कर रहे हैं।'
 
उन दिनों दिल्ली में पोस्टर लगे, 'भाजपा का यार है, कवि नहीं गद्दार है।' अमानतुल्ला खां की बातों से तब भी लगता था कि उनके बीच मजबूत दीवार ज़रूर है। बहरहाल इस घटना के बाद से कुमार और केजरीवाल के बीच अविश्वास की 'अदृश्य दीवार'ज़रूर खड़ी हो गई।
 
उन दिनों विवाद को टालने के लिए कुमार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने वाले अमानतुल्ला खां को निलंबित कर दिया गया। पर दो महीने पहले वह निलंबन खत्म हो गया। इन बातों के कई मतलब निकाले जा सकते हैं और निकाले जा रहे हैं।
 
किस करवट बैठ रही है 'आप' की राजनीति?
सवाल यह भी है कि बड़े स्तर पर आम आदमी पार्टी की भावी राजनीति किस दिशा में जाने वाली है? जब बिहार में महागठबंधन बन रहा था, तब केजरीवाल को नीतीश कुमार के करीब माना जाता था। आज वह स्थिति नहीं है।
 
पिछली 26 मई को जब बीजेपी अपनी सरकार के तीन साल पूरे होने पर जश्न मना रही थी, सोनिया गांधी ने विरोधी दलों की बैठक बुलाई। इसमें केजरीवाल को निमंत्रित नहीं किया गया था। देखना होगा कि राहुल गांधी की नीति क्या होगी?
 
केजरीवाल साफ़-साफ़ भाजपा-विरोधी स्पेस को हासिल करना चाहते हैं। कुमार विश्वास 'पहले देश' पर यकीन करते हैं। और वे समर्थक नहीं तो 'भाजपा-विरोधी' भी नहीं हैं। कुमार विश्वास जिन बातों को उठा रहे हैं, वे आम आदमी पार्टी के अंतर्विरोधों की तरफ़ इशारा कर रही हैं। केजरीवाल उसके 'शिखर-पुरुष' बन चुके हैं, पर कितने ताकतवर हैं, कहना मुश्किल है।
 
पार्टी नेतृत्व में लगातार टकराव से यह बात भी उजागर हुई कि एकता सुनिश्चित करने वाली परिपक्व रीति-नीति का इसके संगठन में अभाव है। आम आदमी पार्टी भले ही किसी आदर्श और सिद्धांत को लेकर बनी हो, पर पिछले डेढ़ साल में उसके भीतर खड़े हुए विवादों के पीछे का सबसे बड़ा कारण व्यक्तिगत हितों का टकराव रहा है।
 
देश के ज़्यादातर राजनीतिक दलों की तरह इस पार्टी की मशीनरी एक अनौपचारिक हाईकमान या व्यक्तियों की टीम के मार्फत संचालित होती है। चूंकि आम आदमी पार्टी की वैचारिक बुनियाद इस रीति-नीति के विरोध में थी, इसलिए यह अटपटा लगता है।
 
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
ये भी पढ़ें
नववर्ष के दिन भारत में 69,000 से ज्यादा बच्चे जन्मे: यूनिसेफ