मणिकांत ठाकुर, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों पर चुनाव के लिए निर्धारित तीन चरणों के मतदान में से पहले चरण के प्रचार का समय समाप्त हो चुका है। इस दौर की 71 सीटों के लिए गुरुवार को वोट डाले जाएँगे।
सत्ता-राजनीति कैसे सर चढ़ कर बोलती है, इसकी साफ़ झलक कोरोना जैसी ख़तरनाक महामारी के बावजूद हो रहे इस चुनाव के जुनूनी प्रचार अभियान में देखी जा सकती है। लगता है संक्रमण का ख़ौफ़ न तो उम्मीदवारों में है और न ही मतदाताओं में।
जबकि संक्रमित लोगों की तादाद बढ़ ही रही है और इस कारण हो रही मौतें भी नहीं रुक रहीं। हज़ार तक पहुँचे मृतकों की सूची में राज्य सरकार के दो मंत्रियों का शामिल होना और अभी भी सुशील मोदी और मंगल पांडेय समेत कई प्रमुख नेताओं का अस्पताल में इलाज चलना स्थिति की गंभीरता बता रहा है।
ख़ैर, अब आईए नज़र डालें इस चुनाव में अब तक के सियासी उतार-चढ़ाव पर। यहाँ पहले दौर के मतदान से जुड़े क्षेत्रों में चुनाव प्रचार के दौरान दो पहलू मुख्य रूप से उभर कर सामने आए हैं।
एक ये, कि राज्य में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) का गठबंधन शुरुआती बेहतर स्थिति से फ़िसल कर कड़ी चुनौती में फँसा है। दूसरा पहलू ये कि राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस और वामपंथी दलों (सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई-एमएल) के 'महागठबंधन' में अचानक उछाल देखी जा रही है।
रोज़गार का मुद्दा
जो मुद्दे, वायदे, विवाद या अंतर्कलह इन दोनों स्थितियों के मुख्य कारण बने हैं, वे बिहार के बदलते सियासी नज़रिए का एक उल्लेखनीय इशारा भी दे रहे हैं। जैसे कि जातीय प्राथमिकता वाली सियासत से अलग रोज़गार जैसे बुनियादी सवाल उभर कर सामने आए हैं।
सत्तारूढ़ बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को 'महागठबंधन' से कड़ी चुनौती की जो सबसे बड़ी वजह बनी है, वह है बेरोज़गारी वाले मसले का एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन जाना। और यह एजेंडा सेट कर दिया है आरजेडी के तेजस्वी यादव ने।
तेजस्वी ने घोषणा की है कि अगर उनकी सरकार बनी, तो पहली कैबिनेट बैठक में ही राज्य के दस लाख बेरोज़गारों को स्थायी सरकारी नौकरी दी जाएगी। कैसे दी जाएगी के रास्ते तो उन्होंने बताए, पर इस बाबत अमल को लेकर सवाल भी ख़ूब उठे हैं।
लेकिन, जैसा कि चुनावी माहौल में कोई मुद्दा चल निकलता है, वैसे ही बेरोज़गार युवाओं ने इसे हाथों-हाथ लेकर तेजस्वी की सभाओं में भीड़ बढ़ाई है। उधर, बीजेपी पर इस चुनौती का ऐसा गहरा असर हुआ, कि इस पार्टी ने भी 19 लाख लोगों को विभिन्न महकमों के तहत रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने का एलान कर दिया।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जब एक तरफ़ सरकारी नौकरी का वायदा और दूसरी तरफ़ रोज़गार के अवसर का आश्वासन हो, तो ज़ाहिर है कि सरकारी नौकरी ही आकर्षण पैदा करेगी।
सत्ता के ख़िलाफ़ बने स्वाभाविक माहौल
तेजस्वी यादव की सभाओं में लालू यादव के बनाए मुस्लिम- यादव समीकरण से जुड़ी भीड़ के अलावा वे तमाम श्रमिक भी जुटते हैं, जो आरंभिक कोरोना लॉकडाउन में भारी मुसीबतें उठा कर अन्य प्रदेशों से अपने घर तो आए, पर बेरोज़गारी झेलने को विवश हुए।
हालाँकि पिछड़े-दलित वर्ग के उनलोगों का रुझान जेडीयू-बीजेपी की तरफ़ ही दिखता है, जिन्हें केंद्र और बिहार सरकार से मदद के रूप में नक़द राशि के अलावा मुफ़्त अनाज मिले हैं। अति पिछड़ों और महादलित वर्ग से जुड़े मतदाताओं, ख़ासकर महिला वोटरों के बीच नीतीश कुमार का असर अभी भी है।
आरजेडी और वामपंथी दलों द्वारा अबतक के नीतीश और बीजेपी विरोधी आक्रामक प्रचार ने 15 वर्षों की सत्ता के ख़िलाफ़ बने स्वाभाविक माहौल को और ताक़त दे दी है। महागठबंधन की घटक कांग्रेस यहाँ थोड़ी कमज़ोर पड़ी है, क्योंकि टिकट बँटवारे में गड़बड़ी से लेकर सांगठनिक स्तर पर लचर तैयारी को लेकर पार्टी में ही कलह या विवाद जैसी स्थिति बनी।
आप सोच सकते हैं कि काफ़ी दबाव बना कर महागठबंधन में सत्तर सीटों की साझेदारी ले लेने वाली कांग्रेस अगर ठीक-ठीक सीटें जीत पाने में पिछड़ जाएगी, तो सत्ता तक पहुँचने में महागठबंधन को कितनी मुश्किल पेश आएगी! यह आशंका राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए एक बड़ी राहत वाली बात मानी जा रही है।
चिराग़ के निशाने पर नीतीश
अब ज़िक्र लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) से जुड़े उस बड़े विवाद का, जिसने एनडीए को सबसे बड़ी अंदरूनी मुश्किल में डाला है।
एलजेपी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान ने मुख्यमंत्री नीतीश के ख़िलाफ़ जो तीखी मुहिम छेड़ी, उसे पहले तो परोक्ष रूप से बीजेपी द्वारा प्रेरित कहा जाने लगा लेकिन, बाद में नीतीश कुमार के रोषपूर्ण दबाव में बीजेपी को सार्वजनिक घोषणा करनी पड़ी कि एलजेपी अब एनडीए का अंग नहीं है।
उधर, चिराग़ पासवान ने प्रधानमंत्री के प्रति अपना अटूट समर्थन ज़ाहिर करते हुए भी नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के विरुद्ध डटे रहने और बिना किसी गठबंधन के चुनाव लड़ने की अपनी ज़िद क़ायम रखी। साथ ही चिराग़ यह भी कह रहे हैं कि नीतीश कुमार को छोड़, किसी अन्य को अगर बीजेपी मुख्यमंत्री बनाना चाहेगी, तो एलजेपी पूरा सहयोग करेगी।
मतलब, मतदान का पहला दौर आते-आते नीतीश कुमार के सामने बिहार के दो युवा नेताओं की चुनौती, पुराने पार्टनर बीजेपी पर भरोसे का संकट और 15 वर्षों के सत्ता-नेतृत्व से उपजे कई तरह के स्वाभाविक जन-असंतोष वाली विकट स्थितियाँ उपस्थित हैं।
बीजेपी भी इस मुश्किल लपेट से प्रभावित तो है लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान और बिहार के लिए दी गई कुछ केंद्रीय विशेष सहायता के बूते चुनावी नैया पार लगा लेने की उम्मीद भी उसे है।
तेजस्वी की सभाओं में उमड़ती भीड़
दूसरी तरफ़ जो 'महागठबंधन' का हौसला बुलंद होने लगा है, उसके पीछे नीतीश-विरोध की बनती जा रह परिस्थितियाँ और तेजस्वी की सभाओं में उमड़ती भीड़ को ही मुख्य कारण माना जा रहा है। जबकि प्रमुख टेलीविजन चैनलों के सर्वे या ओपिनियन पोल यहाँ एनडीए के सत्ता में बरक़रार रहने की संभावना बता रहे हैं।
यहाँ एक बात की चर्चा ज़रूरी है कि इस चुनाव में यहाँ एनडीए के साथ जुड़े हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतनराम माँझी और विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी से एनडीए को कुछ सीटों पर मदद मिल सकती है।
उधर, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा के साथ बहुजन समाज पार्टी और एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी का गठबंधन कुछ सीटों पर 'महागठबंधन' के वोट काटने और कुछ सीटों पर जीत भी दर्ज करने जैसा असर दिखा सकता है।
राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव बिहार के ऐसे नेताओं में शुमार हैं, जो लोगों की मदद में सक्रिय दिखने और हर मुद्दे पर ख़ूब बोलने के बावजूद अपनी अस्थिर और विवादास्पद छवि से छुटकारा पाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए यह चुनाव भी उन्हें निराश कर दे, तो आश्चर्य नहीं।
सीधी टक्कर वाली चुनावी तस्वीर
पहले चरण के मतदान तक यहाँ कुल मिलाकर एनडीए और 'महागठबंधन' के बीच कश्मकश से भरी हुई सीधी टक्कर वाली चुनावी तस्वीर उभरती दिखी है।
यह भी लगता है कि पहले दौर का मतदान जो संकेत लेकर आएगा, उससे बाक़ी दो चरणों में दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के लिए संभावनाओं या आशंकाओं के कुछ और इशारे मिल सकते हैं।
पहले दौर का मतदान जिन विधानसभा क्षेत्रों में होने जा रहा है, वहाँ 2015 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू-आरजेडी वाले तत्कालीन 'महागठबंधन' को 48 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इनमें 25 पर आरजेडी और 19 पर जेडीयू के उम्मीदवार विजयी हुए थे।
इस बार भी बदले हुए समीकरण के बावजूद 'महागठबंधन' ने उन सीटों पर काफ़ी उम्मीदें लगा रखी हैं। सीपीआई-एमएल के तीन प्रत्याशी इन्हीं इलाक़ों (भोजपुर) में जीते थे।