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Written By WD

श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन कराना जरूरी क्यों?

श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन कराना जरूरी क्यों? -
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हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी में विधिवत डाला हुआ अन्न का बीज सौगुणा बढ़ता है और जल के अनुपात से खाई हुई औषधि सहस्रगुणी फलवती होती है।

इसी प्रकार अग्नि में डाली गई वस्तु लक्षगुणा तथा वायुकणों में परिव्याप्त अनन्तगुणी हो जाती है। एक रत्ती हींग का भंगार-जिसे देशभेद से 'छौंक' या 'तड़का' भी कहते हैं, सहस्रों मनुष्यों को अपनी सत्ता की सूचना दे देता है और घ्राणतर्पक सिद्ध होता है।

रेडियो यन्त्र के सान्निध्य में समुच्चरित एक शब्द विद्युत शक्ति के प्रभाव से ब्रह्माण्ड भर में परिव्याप्त हो जाता है। सो वैदिक विज्ञान में भी लोकान्तर में बसने वाले देव- पितर आदि प्राणियों तक पृथ्वी लोक से द्रव्य पहुँचाने के लिए अग्निदेव का माध्यम नियत किया गया है जिस का प्रक्रियात्मक स्वरूप, अग्नि में हव्य और कव्य को विधिवत होमना है।

भौतिक अग्नि सूर्य-समुद्भूत है। अतः अग्नि में डाले पदार्थ का स्थूल अंश जहाँ भस्मरूप में परिणत हुआ दीख पड़ेगा, वहाँ उसका सूक्ष्म अंश अपने अंशी सूर्य-मण्डल पर्यन्त बेरोक-टोक अबाध गति से पहुँचे बिना परिसमाप्त न होगा।
ब्राह्मण भी अग्नि स्थानीय है, अर्थात विराट के जिस मुख से अग्नि देव उत्पन्न हुआ है उसी मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति लिखी है।


जैसे रेडियों पर बोला शब्द यद्यपि ब्रह्माण्ड भर में परिव्याप्त हो जाएगा, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति वहीं होगी जहां कि उस को कैच कर सकने वाले यंत्र की सुई ठीक उसी नंबर के किलोमीटर पर होगी। इसी प्रकार अग्नि में डाला हव्य वेद मंत्रों के 'स्वाहाकार' संकेत से मन्त्रोक्त देवता की तृप्ति का कारण बनेगा और श्राद्ध-विधान के वेदोक्त 'स्वधाकार' संकेत से संकल्प-पठित पितर को परितृप्त करने वाला सिद्ध होगा।

यह तो हुआ भौतिक अग्नि में किए गए हवन द्वारा देव और पितरों की तृप्ति होने का वैज्ञानिक विश्लेषण, परन्तु इसी के साथ इतना शास्त्र रहस्य और अधिक मनन कर लेना चाहिए कि ब्राह्मण भी अग्नि स्थानीय है, अर्थात विराट के जिस मुख से अग्नि देव उत्पन्न हुआ है उसी मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति लिखी है।

वेद की सुस्पष्ट घोषणा है कि विराट् के मुख से अग्नि उत्पन्न हुई। ब्राह्मण विराट का मुख स्थानीय है। अग्नि के माध्यम द्वारा स्वर्गस्थ देवता। देवता सदा हव्यों को खाते हैं और पितृगण कव्यों को खाते हैं। जिसके लिए ब्राह्मण से अधिक उत्तम और कौन हो सकता है?

इस प्रकार अग्नि और ब्राह्मण की तात्विक समानता शास्त्र सिद्ध है, इसीलिए सविता देवता ब्राह्मगायत्री ब्राह्मणों का मूल मंत्र है। सो भौतिक अग्नि में विधिवत होमना ब्राह्मणों की जठराग्नि में होमना दोनों समान क्रियाएँ हैं।

जैसे भक्षित अन्न का स्थूल भाग मलरूप से बाहर निकल जाता है और उसका सूक्ष्मभाग रस, रक्त, मांस मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूप में परिणत होकर शारीरिक पोषण का हेतु बनता है तथा उसका ही सूक्ष्मतर भाग नस्य, आघ्रेय आदि रूपों में परिणत होकर इंद्रिय और मन को परम्परा से अन्ततोगत्वा भोक्ता के चेतन जीव का 'आस्वाद्य' बन जाता है।

इसी प्रकार उक्त भक्षित अन्न का सूक्ष्मतम भाग यजमान के श्रद्धा, सत्य संकल्प और ब्रह्मण्यता आदि सद्गुणों के प्रभाव से तथा तत्तद् वैदिक क्रियाकलाप की सामर्थ्य से देव पितरों का परिपोषक सिद्ध होता है।

यह बात तो केवल श्राद्ध भोक्ता ही अनुभव कर सकते हैं कि श्राद्ध में खाए हुए नाना प्रकार के भोजन व्यंजन भी भोक्ता के परिपोषक नहीं होते। यदि ऐसा हो तो कनागत श्राद्धों में लगातार सोलह दिन तक प्रत्यक्षतः माल उड़ाने वाले ब्राह्मण बलिष्ठ और बलवान बन जाते, परन्तु होता इसके विपरीत यह है कि श्राद्धभुक्‌ अपने को केवल बोझा ढोने वाला से अनुभव करता है, खाया हुआ भोजन निःसार जंचता है। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि भक्षित श्राद्धान्न का सार भाग पितरों को प्राप्त होता है। भोक्ता तो केवल माध्यम मात्र है।