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कि तुम जाती हो
जितेंद्र श्रीवास्तवसरकती है सिरहाने से धूप कि तुम जाती होये राह सिहरी-सी खड़ीदेखती है तुम्हें कि तुम जाती हो यह पल अकेला है बहुत अकेलाकि उतार दिन है तुमने पुतलियों से उसेयह साँझ जो आने को है अभीठिठक खड़ी है पीपल की पत्तियों के बीचदेखती-सीकि तुम जाती होये आ रही आवाज विकल-सी किसी मोर कीउठ रही बीच जंगल से या मेरे ही भीतर से कहीं कि तुम जाती होपलट कर देखती तो देख पातीजिसको सँभाला तुमने जतन सेहिल रहा वही मन पात ऐसेजैसे डोलता है शिशु कोई धरती पर कदम धरतेदेखो तो सहीदेखो न ओ प्राण मेरीकि रात आती हैकि तुम जाती हो?