आनंद के आंतरिक स्त्रोतों की खोज यात्रा
-
सचिन कुमार मोदीजैन धर्म आनंद के आंतरिक स्रोतों की खोज-यात्रा है। सामान्यतः लोग पदार्थ प्राप्ति के आनंद के पीछे दौड़ते हैं, जिसकी प्रतिक्रिया में दुःख भी निश्चित है, पर भगवान महावीर शुद्ध चेतना की बात करते हैं। धर्म के स्वरूप को परिभाषित करना अत्यंत ही दुष्कर है। धर्म कोई पदार्थ नहीं है। आत्म शुद्धि ही धर्म का वास्तविक उद्देश्य है। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। अनेक विद्वानों ने धर्म के स्वरूप के बारे में अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं। इसी सिलसिले में जैन धर्म के प्रख्यात मुनि एवं विचारक श्री सुखलालजी म.सा. ने धर्म के स्वरूप को अत्यंत ही सरल एवं हृदयग्राह्य भाषा में समझाने का सफल प्रयास किया है- धर्म का अर्थ है स्वभाव। जिस किसी पदार्थ का जो स्वभाव या गुण होता है, वही उसका धर्म होता है। अग्नि का स्वभाव है जलाना, जल का स्वभाव है शीतलता प्रदान करना, वही उसका धर्म है। आत्मा का स्वभाव है पवित्रता, अतः वही उसका धर्म है। आत्मा जब तक बाह्य संस्कारों से ढँकी रहती है, तब तक अधर्म में जीती है। इसलिए वास्तविक धर्म तो आत्मस्थिति ही है, जिसके लिए अपवित्र संस्कारों को मिटाना आवश्यक है।भगवान महावीर ने कहा है- 'क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य आदि धर्म हैं।' जब ये सभी मनुष्य के स्वभाव बन जाते हैं तो वह धर्म में स्थित हो जाता है और जब मनुष्य इन सबको शब्दों में जकड़ लेता है तो धर्म पीछे छूट जाता है और मात्र शास्त्र उसके हाथ में रह जाते हैं। धर्म को अर्थ से जोड़ना भी गलत है। परिग्रह तो पाप है ही। इसी प्रकार हिंसा का धर्म से कोई संबंध नहीं हैं, क्योंकि परिग्रह और हिंसा आपस में ही जुड़े हुए हैं। जैन धर्म आनंद के आंतरिक स्रोतों की खोज-यात्रा है। सामान्यतः लोग पदार्थ प्राप्ति के आनंद के पीछे दौड़ते हैं, जिसकी प्रतिक्रिया में दुःख भी निश्चित है, पर भगवान महावीर शुद्ध चेतना की बात करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि जैन धर्म पदार्थ को नहीं मानता। दुनिया के अधिकांश दर्शन या तो आत्म- अद्वैत को मानते हैं या पदार्थ-अद्वैत को। इस प्रकार जैन धर्म द्वैत दर्शन है। वह आत्मा को भी मानता है और पदार्थ को भी स्वीकारता है। आत्मा और पदार्थ का संयोग ही असली समस्या है। आत्मा अपने आपमें पूर्ण शुद्ध है, पदार्थ के मिश्रण से उसमें विकृति आती है। कई मर्तबा धर्म तथा विज्ञान दो भिन्न-भिन्न दिशाएँ मान ली जाती हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि धर्म अपने आपमें पूर्ण विज्ञान है। जैन धर्म का तत्व ज्ञान तो अत्यंत ही वैज्ञानिक है। इसे दुनिया के अनेक महापुरुषों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है।
इस युग के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने विज्ञान के क्षेत्र में जिस सापेक्षवाद का आविष्कार किया है, वास्तव में महावीर ने उसकी चर्चा आज से 2600 वर्ष पहले ही कर दी थी। किसी व्यक्ति ने भगवान महावीर से पूछा, 'भगवन्! भँवरे का रंग कौन-सा होता है?' भगवन् ने कहा, 'वास्तव में भँवरे में पाँच रंग होते हैं, परंतु उसमें काला रंग विशेष रूप से दिखाई देता है, अतः हम उसे काला कह देते हैं।' ठीक इसी तरह हर घटना और हर पदार्थ को द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की कसौटी पर कसने की जैन धर्म की पद्धति आज के सापेक्षवाद से विशेष सामंजस्य रखती है।जैन दर्शन ने परमाणु से विश्व तक की समस्त इकाइयों पर सूक्ष्म चिंतन किया है। आत्मा के अस्तित्व पर लगभग सभी धर्मों ने गहन विवेचना की है और आत्मा को स्वीकार कर उसे शाश्वत सत्य बताया है। आस्तिक शरीर से आत्मा को अलग मानते हैं और नास्तिक लोग आत्मा को शरीर से अलग नहीं मानते। जो कुछ चेतना शरीर के साथ दिखाई देती है, वह मृत्यु होने पर यहीं समाप्त हो जाती है। जैन दर्शन का मानना है कि आत्मा अरूप है, अतः इसे किसी भी यंत्र के द्वारा नहीं देखा जा सकता। तर्क के द्वारा भी पूर्ण सत्य की उपलब्धि असंभव है। जैन धर्म में आत्मा को मानने के लिए ध्यान की गहराई में उतरने पर विशेष बल दिया गया है। वास्तव में आत्मा अनुभूति का विषय है और अनुभूति की प्रगुणता ही ध्यान है। जैन धर्म की समूची साधना ध्यान का ही विस्तार है। ध्यान से ही व्यक्ति के राग-द्वेष क्षीण होते हैं और राग-द्वेष मुक्त अवस्था में ही आत्मा में सत्य का प्राकट्य होता है। जैन दर्शन में सामान्य तौर से दंड देने की प्रथा ही नहीं है, परंतु यदि व्यक्ति स्वयं अपने अपराध को स्वीकार कर दंड लेना चाहे तो वह आदरणीय होगा। इसे जैन परिभाषा अनुसार 'प्रायश्चित' कहा जाता है। यदि व्यक्ति ऐसा नहीं करता है तो उस पर कोई विशेष दबाव भी नहीं बनाया जाता है। साथ ही जैन दर्शन में क्षमा का विशेष ही नहीं, अत्यंत विशेष स्थान है। यहाँ तो इतना तक कहा गया है कि 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' अर्थात क्षमा ही वीरों का आभूषण है। ऐसा नहीं कि यहाँ मात्र क्षमा देने पर ही बल दिया गया है, अपितु क्षमा माँगने पर उससे भी ज्यादा बल दिया गया है। बात सही भी है कि क्षमा वही दे सकता है जो इतना काबिल हो। यह मात्र मनुष्य के लिए नहीं वरन् समस्त जीवों के लिए है। कहा गया है- 'खामेमी सव्वे जीवा सव्वे जीवा खमन्तु मैं, मित्ती में सव्व भूवेसु, वैरं मज्झं न केणई' अर्थात मैं समस्त जीवों को खमाता हूँ (क्षमा माँगता हूँ) तथा सभी जीवों को क्षमा करता हूँ। मेरी सभी जीवों से मैत्री है व किसी से मेरा कोई बैर नहीं है।