गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By WD

कर्म और अकर्म क्या है?

कर्मयोग

कर्म और अकर्म क्या है? -
(परम पूज्य संतश्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से)

WD
कर्म करते-करते हम भगवत प्राप्ति कैसे कर सकते हैं? इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥ (गीता - 4.16)

'कर्म क्या है और अकर्म क्या है? - इस प्रकार का निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए हे अर्जुन! वह कर्म-तत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात्‌ कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा।'

कर्म ही हैं जो व्यक्ति को पुण्य देते हैं या पाप देते हैं। पुण्य बाँधता है स्वर्गों में और भोगों में भटकाता है; पाप बाँधता है नरकों में तथा नीच योनियों में, दुःखों में भटकाता है, लटकाता है।

कर्म किए बिना हम रह नहीं सकते। सब कर्म छोड़कर आलसी होकर बैठे रहें, फिर भी कुछ-न-कुछ मन से, तन से कर्म होंगे ही। कर्म के पलायन से कर्म का त्याग नहीं होता और कर्म करते रहने से भी कर्म का त्याग नहीं होता, कर्म करने में केवल सावधानी रखनी चाहिए।

किसी घोड़े या हाथी को 'हार्टअटैक' आया हो, ऐसा कभी सुना है क्या? मनुष्यों को ही क्यों आता है? क्योंकि मनुष्य ने जिम्मेदारी और कर्म में कर्तापने की गलती अपने पर थोप दी है।

फलेच्छा, ममता और आसक्ति के कारण ही कर्म बाँधते हैं। फलेच्छा, ममता और आसक्ति बिना के जो कर्म हैं, वे कर्ता को नैष्कर्म्य सिद्धि - ईश्वर से जोड़ते हैं। ईश्वर से जोड़ देते हैं यह भी कहनेमात्र को है, वास्तव में हर जीव ईश्वर से जुड़ा है। हम ईश्वर से अलग थे नहीं, हैं नहीं, हो सकते नहीं। फिर भी कर्मफल-लोलुपता ने हमको ईश्वरीय सुख से वंचित कर दिया। ईश्वरीय सुख पाने का सुंदर उपाय है कि फल की इच्छा, ममता और आसक्ति न हो।

भगवान बोलते हैं क्रिया अर्थात्‌ कर्म, अकर्म एवं विकर्म (पापकर्म) - ए सब भाव के अनुसार होते हैं। युद्ध जैसा घोर कर्म करने से अर्जुन झिझकता है और कहता है - सर्वकर्माः सदोषशास्ताः - कर्ममात्र सदोष हैं। तत्किम्‌ कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव? - फिर युद्ध जैसे घोर कर्म में आप मुझे क्यों नियोजित कर रहे हैं?


भगवान कहते हैं कर्म तो करें लेकिन उसमें फलेच्छा, ममता और आसक्ति न करने से कर्म अकर्म हो जाता है। युद्ध करते हुए भी तुम अकर्म अवस्था को अर्थात्‌ मुक्ति को प्राप्त हो जाओगे। निवृत्ति में प्रवृत्ति बंधनरूप नहीं है किंतु कामना, ममता और आसक्ति ही जीव के लिए अड़चन पैदा करती हैं, बंधनरूप हैं।

अब ये बंधनरूप कामना, ममता, आसक्ति न आएँ इसलिए मनु महाराज ने बताया कि आप कर्म करते समय शरीर के, मन के जो तीन-तीन दोष हैं और वाणी के चार दोष हैं - इन दस दोषों को छाँट दीजिए, अपने में से निकाल दीजिए तो आपके कर्म ईश्वर प्राप्ति कराने वाले हो ही जाएँगे। कर्म ईश्वर से साक्षात्कार कराने का महान मार्ग दे देंगे आपको।

चोरी-बेईमानी से बचें, हिंसा, व्यभिचार से बचें तो यह तन-शुद्धि हो गई आपकी! आपका तन पाप के बंधन से रहित हो जाएगा। दूसरों के द्रव्य का हरण करना, दूसरे के अनिष्ट का संकल्प करना और हठ या दुराग्रह करना - ये मन को बाँधने वाले हैं। आप परद्रव्य हरण नहीं करते, परस्त्री-गमन का संकल्प नहीं करते और हठ-दुराग्रह नहीं करते तो आपका मन शुद्ध हो जाएगा। वाणी के चार दोषों से बचें - झूठ न बोलें, चुगली न करें, कठोर न बोलें और एक का दोष दूसरे को बताने की गलती न करें।

ऐसे तो आप कठोर न बोलें परंतु व्यवहार में, घर में, समाज में आपको गुस्सा करना पड़े तो यह भी कठोरता हुई। गुस्सा करके आप अंदर से तप जाते हो, दूसरे का अहित करते हो तो आपको हानि होती है पर गर्जना करके, फुफकार करके दूसरों को हानि से बचाते हो तो वह कठोरता दोष नहीं मानी जाती। ...तो कर्म का रहस्य समझना पड़ेगा।

और इसके लिए भगवान कहते हैं, 'व्यवसायात्मिका' बुद्धि हो। मतलब कि जो बुद्धि यह विचार करती है कि क्या करना है और उसका परिणाम क्या आएगा? आम आदमी की 'अव्यवसायात्मिका' बुद्धि होती है कि इन्द्रियों ने दिखा दिया, मन ने लोलुपता कर दी, बुद्धि सहमत हो गई और कर्म कर बैठे; इसी से लोग कर्मबंधन में, भोगबंधन में, आसक्ति-बंधन में पड़े हैं।

कर्म तो करो किंतु कर्म के पीछे आप बुद्धियोग लगाओ कि आप जो कर्म करते हैं उसका फल क्या होगा? उसका परिणाम क्या होगा? उस कर्म की विधि क्या है? यह कर्म हमको बाँधेगा कि आत्मसुख में ले जाएगा? यह कर्म हमको स्वच्छंदी बनाएगा कि स्वतंत्र बनाएगा?
एक होता है स्वतंत्र - 'स्व' के तंत्र में आ गए। दूसरा होता है स्वच्छंदी; जैसे पतंगा है। कोई उसको रोक नहीं सकता। जहाँ भी मन आया चल दिए। मक्खी स्वच्छंदी है। जिसका मन किसी बड़े-बुजुर्ग, गुरु के कहने से वरे नहीं उसे 'आवारा' बोलते हैं। आवारा होने से आप सुख के लिए दौड़ेंगे तो दुःख, बेइज्जती और विफलता आएगी। शास्त्र और सत्पुरुष जहाँ आपको वारें वहाँ आप वरते जाएँ तो आप स्वतंत्र हो जाएंगे, 'स्व' में स्थित हो जाएँगे।

अब आप क्या करें कि अपना विवेक जगाएँ। विवेक कर्म से नहीं मिलता, वह कर्म का फल नहीं है अपितु ईश्वरदत्त प्रसाद है। जितना अधिक ईश्वर का सुमिरन करते हो, ईश्वर से अपनत्व जोड़ते हो उतना ही वह अधिक मिलता है।

कर्म में योग लाने की एक तरकीब यह है कि 'मिली हुई चीज मैं नहीं हूँ और मेरी नहीं है तथा विवेक कर्मसाध्य नहीं है ।' - ऐसा जानकर कर्म करें।

तुलसी हरि गुरु करुणा बिना,
विमल विवेक न होई।

हरि और गुरु की कृपा के बिना निर्मल विवेक नहीं होता। एक होता है सामान्य विवेक, दूसरा होता है वास्तविक विवेक। शरीर को सुख-सुविधा दिलाने का विवेक सामान्य विवेक है। वास्तविक विवेक यह है कि आखिर यह शरीर मर जाएगा, फिर क्या? इतना भोग लिया, फिर क्या? इतना पा लिया, आखिर क्या? यह निर्मल विवेक पाना मनुष्य के भाग्य में है।

शादी हो गई, शत्रुओं पर हावी हो गए, मित्रों का झमेला बढ़ा दिया ततः किम्‌ - फिर क्या? ऐसे बन गए कि वाह-वाह !... लेकिन 'वाह-वाह!' किसकी हो रही है? मरनेवाले शरीर की। उसी 'वाह-वाह' में खपने के लिए कर्म कर रहा है तो कर्म का बंधन बढ़ रहा है तेरा। स्तुति के लिए, शरीर की वाहवाही के लिए कर्म करोगे तो बंधन में फँसोगे; ईश्वर प्राति के लिए कर्म करोगे तो बंधनमुक्त हो जाओगे। निंदनीय कर्मों से बचो परंतु सत्कर्म करते हो फिर भी निंदा होती है तो जूते के तले धरो।

आदर तथा अनादर, वचन बुरे त्यों भले ।
स्तुति-निंदा जगत की, धर जूते के तले॥

यह पक्का कर लो। आप इस देह के आदर-अनादर को महत्व न दो बल्कि देही के, उस आत्मा के सुख का ख्याल करो। आप अविनाशी हैं, शरीर नाशवान है। आप नित्य हैं, शरीर अनित्य है। आप ज्ञानस्वरूप हैं, चेतनस्वरूप हैं, शरीर अज्ञानमय है और जड़रूप है। शरीर की वाहवाही और सुविधा में अपनी समय-शक्ति बरबाद करके आत्मघात करना - ऐसे लोगों को 'विमूढ़'- महामूर्ख कहा भगवान ने। ऐसे लोगों को भगवान ने गीता में 108 गालियाँ दीं।

विमूढा नानुपश्यन्ति - विमूढ़ लोग अपने अमर चेतन स्वभाव को नहीं जानते। पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः - केवल ज्ञानरूप नेत्रोंवाले विवेकशील ज्ञानी ही मुझे तत्व से जानते हैं। सत्संग से दो महान नेत्र मिलते हैं। एक तो सत्यस्वरूप का संग और दूसरा विमल विवेक जागृत होता है। कर्म के प्रभाव से विवेक नहीं जगता, धन के प्रभाव से विवेक नहीं जगता किंतु हरि-गुरु की कृपा से निर्मल विवेक सजग होता है। इसे पाने के लिए राजा को राज-काज छोड़ना पड़ता तो छोड़कर महापुरुषों के चरणों में जाते थे।

तो आप भी पहुँच जाओ किन्हीं तत्ववेत्ता महापुरुष के श्रीचरणों में और उनके सान्निध्य में इन दोनों दुर्लभ नेत्रों को पाकर कर्म को योग बना लो।

(संतश्री आसारामजी आश्रम से प्रकाशित पत्रिका 'ऋषि प्रसाद' से)