मैं भी एक पहेली हूं
डॉ. लीला मोदी
माता-पिता की लाड़ली बेटी हूं बचपन से अब तक करती आई हेठी हूं दादा-दादी की प्राणप्रिय पोती हूंप्रति पल सीने के सिंहासन पर सोती हूंमामा की भानजी हूं, रोज लेती नई चिज्जी हूंहरदम स्नेह की वर्षा में भीजी हूंसखियों की सहेली हूंउनकी तरह मैं भी एक पहेली हूंजिस घर, आंगन और अपनों में पली हूंबचपन से आज तक सुनती आईपराई हूं...पराई हूं...पराई हूं...?सास-ससुर की बहू हूंजैसे कहते, काम करती, हू-बहू हूं देवरजी की भाभी हूं हुक्म पूरा करने की चाबी हूं...जिस दिन से बनी ताई हूंकिसी को नहीं भाई हूंकिसी की काकी, किसी की चाची हूंहर-पल आदेशों पर नाची हूं।सच तो यह है सबके लिए अब भीकाची हूं...काची हूं...काची हूं...बेटे की मां हूं!कहती सिर्फ हां हूं!पति की अर्द्धांगिनी हूंसात जन्मों की जीवनसंगिनी हूंसब जगह मंगल है रिश्तों का घना जंगल हैजीवन की अजब पहेली हैन कोई संगी, न ही कोई सहेली हैसब अरमान परिवार पूजा में पिस गएकाम करते-करते हाड़ घिस गएऔर सारे रिश्ते...रिसते-रिसते रिस गएबड़े कहते हैं! यह तो पराई हैपराए घर से आई है...पराए घर से आई है...विकासशील देश की इक्कीसवीं सदी मेंमुझे मेरा असली घर तो बता दोकहां है?...कैसा है?...किधर है?...मांग का सिंदूर रीत गयाअरमानों से लाई बहू कहती हैसासू मां, अब आपका युग बीत गयाकिस्मत ने अब यह कैसा खेल खेला है।दिल पर पत्थर रखकर, यह जख्म भी झेला हैबेटा कहता है यह घर बड़ा ही छोटा हैयहां तो पग धरने का भी टोटा हैकल थोड़ा जल्दी ऑफिस जाऊंगामां को वृद्धाश्रम छोड़ आऊंगानारी के जीवन का लेखा निरालाहंसते-हंसते पी गई जहर का पियालाजिसके लिए हाय? मैंने किया श्रम उसी ने ही...पहुंचा दिया... वृद्धाश्रम!