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Written By WD

बिन बक्षी, घई की 'कांची'

-सुधीर दुबे

बिन बक्षी, घई की ''कांची'' -
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इतिहास गवाह है, फिल्म उद्योग में जब भी दो लोगों के बीच अच्छी ट्यूनिंग हुई है, या यूं कहें कि आपसी संबंध प्रगाढ़ हुए हैं, तो उन जुगलबंदियों की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई है। बात चाहे हीरो-हीरोइन की हो, संगीतकारों की हो या फिर निर्देशकों, अभिनेताओं, गीतकारों या पटकथा लेखकों आदि की। हर बार टिकट खिड़की पर नोटों की बरसात हुई है।

याद कीजिए राजकपूर-शैलेंद्र, शंकर-जयकिशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सलीम-जावेद, नदीम-श्रवण, डेविड धवन-गोविंदा। ऐसे ही न जाने कितने नाम हैं, जिनकी जुगलबंदियों ने इतिहास रचा है। लेकिन यहां हम किसी जोड़ी की चर्चा न कर, एक ऐसे रिश्ते की बात कर रहे हैं, जो जब तक कायम रहा, टिकट खिड़की पर हिट की गारंटी माना गया।

हाल ही में फिल्म निर्देशक सुभाष घई अपनी नई फिल्म 'कांची' लेकर आए हैं। 25 अप्रैल को रिलीज़ हुई इस फिल्म से बॉलीवुड को काफी उम्मीदें हैं। इस मेगा बजट फिल्म में नवोदित अभिनेत्री मिष्ठी को कांची के रूप में पेश किया गया है, जबकि अभिनेता, लव रंजन निर्देशित 'प्यार का पंचनामा' और 'आकाशवाणी' में नज़र आए कार्तिक तिवारी हैं।

संभवत: इस फिल्म में वह सब कुछ होगा, दर्शक जिसकी उम्मीदें घई जैसे मंझे हुए निर्देशक से करते आए हैं। घई ने भी कई बार दर्शकों की उम्मीदों को ज़ाया नहीं होने दिया। लेकिन घई की 'कांची' में एक कमी है, या फिर इसे कमी न कह कर, एक खालीपन कहना ज़ियादा मुनासिब होगा। वह खालीपन, जो अब कभी न भर पाएगा। दरअस्ल, कांची के गीतों से ख्यात गीतकार आनंद बक्षी की क़लम नदारद है। लिहाज़ा 'कांची', बक्षी जैसे महान गीतकार की क़लम का स्पर्श न पा सकी। बक्षी साहब ने सुभाष घई की कई फिल्मों में माधुर्य रचा।

1980 में आई ऋषि कपूर-टीना मुनीम अभिनीत 'कर्ज़' में आनंद बक्षी के लिखे गीत 'दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-जिगर' को जब मो. रफी ने अपनी आवाज़ दी, तो वह गीत हिंदुस्तान के कई दिलों की आवाज़ बन गया। दिलीप कुमार और संजय दत्त की 'विधाता' के 'सात सहेलियां खड़ी-खड़ी' और 'हाथों की चंद लकीरों का', जैसे गीतों ने श्रोताओं के कानों में संगीत की चाश्नी घोल दी। फिल्म 'कर्मा' का गीत 'हर करम अपना करेंगे, ऐ वतन तेरे लिए, दिल दिया है जां भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिए', आज भी हर भारतवासी के दिल में देशप्रेम की लौ जगाए हुए है। 1983 में आई फिल्म 'हीरो' के गीत हों या 'मेरी जंग' का 'ज़िंदगी हर क़दम इक नई जंग है', हर बार बक्षी साहब ने फिल्म प्रेमियों को अपने गीतों से नई ऊर्जा दी है।

किस-किस फ़िल्म का ज़िक्र किया जाए- राम लखन, सौदागर, परदेस, ताल, यादें आदि। इन फिल्मों के नाम सुनते ही इनके गीत कानों में गूंजने लगते हैं, यही बक्षी साहब का जादू था। 'राम लखन' का गीत, 'माय नेम इज़ लखन', 'सौदागर' का 'इमली का बूटा', वहीं 'परदेस' में सोनू निगम का गाया 'ये दिल...दीवाना' और फिल्म 'ताल' का 'ताल से ताल मिला', इन गीतों का नशा आज भी बरकरार है। संजय दत्त की 'खलनायक' को कौन भूल सकता है। फिल्म का टाइटल ट्रैक हो या 'चोली के पीछे क्या है' सरीखा चौंकाने वाला गीत, दर्शकों ने तब इन्हें न सिर्फ हाथोंहाथ लिया था, बल्कि ये गीत आज भी सराहे जाते हैं।

फिल्म 'यादें' की उन पंक्तियों को भी नहीं भूला जा सकता, जिसमें बक्षी साहब दर्शकों को अपने अतीत में ले गए थे। उन्होंने लिखा था- 'बातें भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं'। फिल्म के आरंभ में स्वयं सुभाष घई ने इन बोलों को अपनी आवाज़ दी थी। बक्षी साहब के निधन के बाद सुभाष घई को अन्य गीतकारों से गीत लिखवाने पड़े। और उन्होंने फिल्म 'ब्लैक एंड व्हाइट' में इब्राहिम अश्क़, 'किसना' में जावेद अख़्तर के अलावा 'युवराज' में गुलज़ार साहब से गीत रचना करवाई, लेकिन किसी भी गीतकार को सुभाष घई ने आनंद बक्षी की तरह रिपीट नहीं किया।

अब 'कांची' के लिए इरशाद कामिल ने क़लम चलाई है। फिल्म का टाइटल ट्रैक और बाकी गीत भी, सबकुछ हिट हो चुका है। वैसे तो इरशाद कामिल आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। शाहिद कपूर अभिनीत 'मौसम', रणवीर कपूर की 'रॉकस्टार', आलिया भट्ट की 'हाईवे', 'मेरे ब्रदर की दुल्हन', 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई', 'आशिक़ी-2' जैसी फिल्मों के गीत लिखने वाले कामिल इन दिनों बॉलीवुड के व्यस्त गीतकारों में गिने जाते हैं।

'कांची' के गीत लिखते वक्त इरशाद कामिल के ज़ेहन में बक्षी साहब का ख़याल ज़रूर आया होगा। संभव है, इसे लेकर कामिल ने ख़ुद से ही कुछ सवाल भी किए होंगे। बहुत मुमकिन है कि उनकी क़लम ने भी कुछ सवालों के जवाब तलाशे होंगे। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जिन गीतकारों को कामिल अपना आदर्श मानते हैं, उनमें बक्षी साहब का नाम भी शामिल हो।

ख़ैर, जो भी हो, सुभाष घई ने 'कांची' के लिए इरशाद कामिल का चयन काफी सोच-समझकर ही किया होगा। हालांकि उनके गीत बक्षी साहब की कमी तो पूरी नहीं कर सकते, लेकिन जुगलबंदी का एक नया सिलसिला ज़रूर शुरू कर सकते हैं। पिछले रेकॉर्ड देखे जाएं, तो इरशाद कामिल ने अभी तक जितने भी निर्देशकों के लिए क़लम चलाई है, अधिकांश ने उन्हें दोहराया है। हो सकता है, सुभाष घई भी अपनी आगामी फिल्मों में उन्हें दोहराएं।

वैसे घई के लिए भी यह परीक्षा की घड़ी है। पिछले कई वर्षों से उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल साबित हुई हैं। ऐसे में कहना ग़लत नहीं होगा कि 'कांची' पर उनका भविष्य भी टिका हुआ है। बक्षी साहब के गीत वक्त की टहनियों पर रसभरे फल बनकर लगे हुए हैं, श्रोता वक्त-वक्त पर जिनका स्वाद भी लेते रहते हैं और लेते रहेंगे, क्योंकि उनके गीतों में ज़िंदगी के कई रूप हैं। आनंद बक्षी के गीतों को ज़ेहन के रास्ते दिल तक उतरने में शायद कुछ पल भी न लगते हों, लेकिन किसी शख्स को आनंद बक्षी बनने में शायद कई जन्म लग जाएं। हालांकि इरशाद कामिल भी कम प्रतिभावान नहीं, लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि इरशाद कामिल 'कांची' के बाद सुभाष घई के साथ वही आनंद बक्षी-सी जुगलबंदी बनाने में कामयाब होते हैं या नहीं।