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Written By ND
Last Modified: बुधवार, 5 सितम्बर 2007 (17:19 IST)

बहुउपयोगी, बहु-मौसमी फसल : रवि-पुष्प

बहुउपयोगी, बहु-मौसमी फसल : रवि-पुष्प -
-मणिशंकर उपाध्याय

भारत में खाद्य तेल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है। इसकी पूर्ति के लिए ऐसी फसल की आवश्यकता है, जिसमें तेल का प्रश अधिक हो। रवि-पुष्प या सूरजमुखी इसके लिए एक उपयुक्त फसल हो सकती है। सूरजमुखी में तेल की मात्रा सोयाबीन की अपेक्षा दो से ढाई गुना तक है। यही नहीं इसे रबी, खरीफ व वसंत तीनों ही मौसम में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

सूरजमुखी का तेल स्वास्थ्य की दृष्टि से अन्य कई तिलहनों से बेहतर है, क्योंकि इसके तेल की संरचना ऐसी है जिससे शरीर में कोलेस्ट्रोल की मात्रा नहीं बढ़ती है। इसका उपयोग हृदय रोगियों के लिए भी डॉक्टरों द्वारा समर्थित किया जाता है। सूरजमुखी की छोटी सजावटी किस्में तो भारत में काफी समय से उगाई जाती रही हैं। परंतु बड़े पौधे व कम (एक दो) पुष्पों तथा अधिक तेल वाली किस्में सबसे पहले रूस से लाई गईं।

ये किस्में थीं पैरिडोविक (ईसी 68414) व अमीविस्किंज (ईसी 6845), वर्ष 1969-70 में देशभर में इस पर परीक्षण व प्रयोग किए गए। इनकी सफलता के मद्देनजर देशभर में इस पर अनुसंधान किए गए। फलस्वरूप अनेक उन्नत किस्में विकसित की गईं, इनके अलावा विभिन्न बीज उत्पादन संस्थाओं द्वारा विकसित की गई किस्में भी बाजार में उपलब्ध हैं। इनमें से भी कोई किस्म विश्वसनीय स्थान से प्राप्त की जा सकती है।

एक उत्तम मध्यवर्ती विकल्प : खरीफ मौसम में ग्वार, चौला, भुट्टे के लिए मक्का, पशुओं के लिए जुवार, चरी आदि की कटाई के बाद अगस्त मे खेत खाली हो जाते हैं। कहीं-कहीं अधिक पानी या अन्य कारणों से भी खरीफ फसल खराब हो जाने पर अगस्त में खेत खाली हो जाते हैं। इस समय अन्य कोई भी फसल नहीं ली जा सकती हो, ऐसे में मध्यवर्ती फसल (मिड सीजन क्रॉप) के रूप में सूरजमुखी एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

दिवस अवधि से अप्रभावित फसल : सूरजमुखी की विशेषता है कि यह दिन की अवधि से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए इसकी बोवनी सिर्फ तीव्र गर्मी के महीनों को छोड़कर किसी भी मौसम में की जा सकती है। इस वजह से यह विभिन्न प्रकार की फसल, सब्जी आदि के साथ फसल चक्र में समायोजित किया जा सकता है।

सावधानी रखें
सूरजमुखी की कतारों व पौधों के बीच की दूरी मिट्टी व मौसम व किस्म के अनुसार रखी जाती है। उपजाऊ मिट्टी, देर से पककर तैयार होने वाली किस्मों व संकर किस्मों में दूरी अधिक यानी कतारों के बीच 60 सेमी का अंतर रखना उपयुक्त होगा। कमजोर भूमि, उन्नत किस्म व जल्दी पकने वाली किस्मों में पौधों की कतारों के बीच 45 सेमी दूरी रखी जाती है। एक ही कतार में 60 सेमी कतार दूरी के लिए पौधों के बीच 25 से 30 सेमी और 45 सेमी कतार दूरी के लिए पौधों के बीच 20-25 सेमी की दूरी रखी जाती है। पौधों की संख्या एक हैक्टेयर में 70 से 80 हजार तक होनी चाहिए।

एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए संकुल उन्नत किस्मों का 10-12 किग्रा व संकर किस्मों का 8 से 10 किग्रा बीज लग जाता है। बीज की गहराई वर्षाकाल के उत्तरार्द्ध में 2-3 सेमी व जायद तथा वसंत में 3-4 सेमी रखें। इसके बीजों में तेल होने के कारण फफूँद रोगों के लगने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए बीजों को पाँच ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडि (प्रोटेक्ट) नामक जैविक फफूँदनाशक प्रति एक किग्रा बीज की दर से उपचारित करें। यह उपलब्ध न होने पर ब्रासीकॉल, थाइरम या केप्टान के ढाई ग्राम दवा प्रति एक किग्रा बीज के साथ मिलाकर बोएँ।

पोषक तत्व
पोषक तत्वों के लिए 120 किग्रा नत्रजन, 60 किग्रा फास्फोरस, 60 किग्रा पोटाश व 30 किग्रा गंधक प्रति हैक्टेयर देना चाहिए। इन पोषक तत्वों को रासायनिक रूप में देने की अपेक्षा आर्गेनिक (जैविक) रूप में दिया जाना बेहतर होता है। बाजार में विभिन्न जैविक (आर्गेनिक) रूपों में पोषक तत्व उपलब्ध हैं। इनमें से भी बैक्टिरिया द्वारा किण्वन तकनीक से तैयार ग्लूकोनेट रूप में ये पोषक तत्व पौधों द्वारा पूर्ण अवशोषणीय होते हैं। इनकी मात्रा भी कम लगती है। पूर्ण रूप से अवशोषणीय होने के कारण इनके अवशेष भी जमीन में नहीं छूटते और मिट्टी या जल प्रदूषित नहीं होते हैं।

समय-समय पर जरूरत के अनुसार निंदाई, सिंचाई व पौध संरक्षण करते रहें। फसल पकने पर पत्तियाँ सूख जाती हैं। इनके फूल (हेड्स) काटकर बीज निकाल लेते हैं। बीजों को सुखाकर संग्रह करें।