शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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महिला दिवस : कोरोनाकाल में लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाली हीरा बुआ, पढ़कर आंसू नहीं रुकेंगे

महिला दिवस : कोरोनाकाल में लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाली हीरा बुआ, पढ़कर आंसू नहीं रुकेंगे - Womens day special heera bua
महिला दिवस 2021 विशेष 

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर ‘वेबदुनिया’ आपको समाज की उन महिलाओं से मिलवा रहा है जिन्होंने न केवल वैश्विक महामारी कोरोना का डटकर मुकाबला करने के साथ अपनी ड्यूटी और फर्ज को निभाया बल्कि इससे आगे बढ़कर समाज की सेवा की।
 
श्मशान.. यह शब्द सिहरन पैदा करता है, वैराग्य को जन्म देता है, भयभीत कर देता है.. लेकिन जीवन का यथार्थ है यह, जिसका सामना हर उस व्यक्ति को करना है जिसने जन्म लिया है.... भारतीय संस्कृति में इस स्थान से स्त्रियों को उनके कोमल मन के कारण दूर रखा जाता है। लेकिन कालांतर में महिलाओं ने चली आ रही रू‍ढ़ियों को तोड़ा है और न सिर्फ श्मशान घाट तक गई है अपितु अपने परिजनों को अग्नि भी दी है... 
 
इस स्थान को लेकर जिन महिलाओं ने परंपराओं को चुनौती दी है...भोपाल की हमीदिया अस्पताल की कर्मचारी हीराबाई का नाम इस कड़ी में सबसे अधिक सम्मान के साथ आता है। उन्होंने मानवता की वह इबारत रची है जिसे जानकर आपका सिर भी श्रद्धा से नत मस्तक हो जाएगा.... 
 
कोरोनाकाल में हीराबाई न केवल अस्पताल में अपनी ड्यूटी की बल्कि उससे आगे बढ़कर जब कोरोना के डर से सगे संबंधियों की मौत के बाद अपनों का साथ छोड़ दे रहे थे तो उन्होंने आगे बढ़कर ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार भी किया। 
51 साल की हीराबाई जिनके उनके जानने वाले हीराबुआ के नाम से बुलाते है दरअसल पिछले 25 सालों से ‘बुआ’ बनकर बेसहारा और लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने का काम कर रही है। हीराबाई प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल हमीदिया अस्पताल की मंदिर के पास जुटने वाले लोगों के लिए एक आशा की किरण भी जो किन्हीं से अपने सगे संबंधियों का अंतिम नहीं कर पाते है। 
 
हीराबुआ अब तक ऐसी तीन हजार लोगों का अंतिम संस्कार कर चुकी है। वेबदुनिया से बातचीत में हीराबाई कहती है कि वह अपने काम को नारायण सेवा समझती है। ऐसे गरीब और असमर्थ्य लोग जो अपने सगे संबंधियों का अंतिम संस्कार नहीं कर पाते है उनकी मदद करती हो और खुद अंतिम संस्कार करती हू। हीराबाई कहती है उनको अपने काम से बहुत खुशी और एक अलग तरह की संतुष्टि मिलती है।
 
‘वेबदुनिया’ से बातचीत में हीराबुआ अपने सफर के बार में बता कहती हैं कि करीब 25 साल पहले एक बुजुर्ग दलित महिला के बेटे की मौत होने पर बुजुर्ग महिला उनसे मदद मांगने आई जिस पर उन्होंने चंदा लेकर बुजुर्ग महिला के बेटे का अंतिम संस्कार किया। इसके  बाद उन्होंने ऐसे शव का अंतिम संस्कार किया। 
 
कोरोना महामारी के समय और लॉकडाउन के दौरान भी हीराबुआ अपने काम को लगातार जारी रखी। वह कहती है कि उनको अपने काम में कभी डर नहीं लगा। कोविड के समय अस्पताल में मरीजों की सेवा करने के साथ-साथ उन्होंने अपने समाज सेवा के काम को जारी रखा। पूरे लॉकडाउन के दौरान मैं खुद शवों को लेकर अकेले श्मशान घाट तक गई। 
 
वहीं महिला होते हुए श्मशान घाट पर जाकर अंतिम संस्कार करने में आने वाली चुनौतियों पर हीराबुआ कहती है कि यकीन नहीं होता जब 21 वीं सदी के लोग ऐसा सोचते है।  अपने काम में उनको अपने परिवार को कभी कोई सहयोग नहीं मिला। यहां तक उनके पति ने भी कभी सहयोग नहीं मिला। ‘वेबदुनिया’ से बातचीत में अपने संघर्ष के दिनों को याद कर हीराबाई जिनके आंखों से  बरबस आंसू निकल आते है कि उनके काम में उनके इकलौते बेटे ने उनका साथ दिया। वह कहती हैं कि बचपन में बेटा उनका हाथ बांटते हुए लकड़ियां लाकर देता था कि मां इसको भी रख दो। वहीं आज बेटा बड़ा होकर उनको हर तरह से सहयोग कर रहा है।