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Written By WD

महिला दिवस : दिन-दिन बढ़ते अपराध के साये

Women's day | दिन-दिन बढ़ते अपराध के साये
अंजलि सिन्हा

 
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महिलाओं के लिए सिर्फ अकेले निकलना ही खतरनाक नहीं है बल्कि समाज के वहशी कभी भी और कहीं भी उन पर हमला करने को तैयार हैं। रात तो सुरक्षित नहीं ही है, दिन का भी कोई भरोसा नहीं है।

तिलक नगर के परशुराम अपने घर के बाहर बैठे थे। उसी दौरान नशे में धुत चार युवक आए और उनकी बेटी से छेड़खानी करने लगे। परशुराम ने इसका विरोध किया तो उनको इतने ईंट और डंडे मारे कि परशुराम की बाद में अस्पताल में मौत हो गई।

कोलकाता के 24 परगना का 16 वर्षीय राजीव दास रात में अपनी बहन को कॉल सेंटर की नौकरी से लेकर साइकल से घर जा रहा था तभी उसकी बहन के साथ कुछ युवक अश्लील हरकतें करने लगे। राजीव के विरोध करने पर उन युवकों ने उसकी तब तक पिटाई की जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। इसमें उसकी बहन को भी काफी चोटें आईं।

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज के 6 छात्रों ने, जो हॉस्टल में रहते थे, एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया। लड़की अपनी मंगेतर के साथ टहल रही थी तभी वे सब आए और मंगेतर की पिटाई कर उसे अधमरा कर दिया और लड़की के साथ बलात्कार किया

उपरोक्त तीनों घटनाओं में महिलाएं अपने परिवार के किसी न किसी पुरुष के साथ थीं इसलिए महिलाओं के लिए सिर्फ अकेले निकलना ही खतरनाक नहीं है बल्कि वहशी कभी भी और कहीं भी हमला करने को तैयार हैं। रात तो सुरक्षित नहीं ही है लेकिन दिन का भी कोई भरोसा नहीं है। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता कि अखबारों में देश के किसी कोने से यौन हिंसा की खबरें न हो। यौन हिंसा की शिकार सिर्फ वही नहीं होती हैं जो प्रत्यक्ष रूप से शिकार होती हैं, बल्कि उसके साथ-साथ अन्य महिलाएँ भी दहशत में आ जाती हैं तथा असुरक्षित महसूस करने लगती हैं।

अकेले दिल्ली में हर साल 500 से 600 के आसपास बलात्कार के केस दर्ज होते हैं। वैसे अन्य राज्यों की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। उदाहरण के तौर पर बिहार में महिलाओं के खिलाफ यौनिक हिंसा लगातार बढ़ रही है। राज्य पुलिस मुख्यालय के आंकड़ों के मुताबिक 2006 में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न तथा अत्याचार की घटनाएं 4974 थीं , 2007 में 4969, 200 8 में 6186 तथा 2009 में 6993 हो गईं। 2010 से लेकर 2014 तक के आंकड़ें दिल दहला देने वाले हैं। अपु्‍ष्ट होने के कारण नहीं लिखे जा रहे हैं।

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देश के पैमाने पर भी आंकड़े चिंतनीय बने हुए हैं। 2006 से 2008 के बीच देश में 61,552 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई थीं, जबकि वास्तव में ये मामले दर्ज मामलों से कई गुना अधिक होते हैं क्योंकि घर-परिवार, समाज ऐसी घटना को लोकलाज की भय से दबा देता है या पीड़ित खुद ही चुप्पी लगा जाती है।

ऐसे वातावरण के कारण कई बार परिजन घर की महिलाओं और बच्चियों पर भी पाबंदी लगाने लगते हैं जो उनके काम करने तथा अपना विकास करने के अवसर को बाधित करता है। महिलाएं खुद कभी संगठित रूप में तो कभी अकेले के प्रयास से इस मानसिकता से लड़ने का प्रयास कर रही हैं। सरकारों ने भी इस दिशा में काम किया है लेकिन उन्हें इसकी गारंटी भी करनी चाहिए। साथ में नागरिक-समाज इसके लिए क्या कर रहा है यह भी स्पष्ट होना चाहिए।