दायित्व तो मिला, सुरक्षा नहीं
महिला पंचायत प्रतिनिधि
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राजेंद्र बंधु लोकतंत्र को समाज की जड़ों तक ले जाने की प्रक्रिया आधी आबादी अर्थात महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के बिना संभव नहीं हो सकती। इसी को ध्यान में रखते हुए पंचायत राज अधिनियम में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई, लेकिन महिला पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा अपना दायित्व निभाने में बाधा उत्पन्न करने वालों पर कार्रवाई का कोई प्रावधान इसमें नहीं है। नतीजा यह है कि कर्मठ महिला पंच-सरपंचों के खिलाफ हिंसा व प्रताड़ना की घटनाएँ सामने आती रहती हैं।मध्यप्रदेश के पंचायत राज की शक्ल बैतूल जिले के एक उदाहरण में देखी जा सकती है। ग्राम पंचायत डुगारिया में सरपंच द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक महिला पंच ने आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई। नतीजतन महिला पंच को पंचायत मीटिंग में बुलाना बंद कर दिया गया और पंचायत के दस्तावेजों में सरपंच द्वारा उसके फर्जी हस्ताक्षर किए जाने लगे।जब महिला पंच ने अधिकारियों से इसकी शिकायत की तो सरपंच के दबंग बेटे ने उसके साथ बलात्कार किया। पुलिस थाने से लेकर एसपी कार्यालय तक तमाम चक्कर लगाने के बावजूद महिला पंच की रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई। अपने साथ हुए जुर्म की एफआईआर दर्ज कराने के लिए उसने कलेक्टर और मुख्यमंत्री को पत्र लिखा। इससे गुस्साए सरपंच के बेटे ने उससे फिर बलात्कार किया। |
न्याय पाने और अपराधी को सजा दिलवाने के लिए यह महिला पंच तीन वर्षों तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाती रही। कलेक्टर, एसपी और मुख्यमंत्री को कई पत्र लिखे। जब कहीं भी सुनवाई नहीं हुई तो उसने 20 नवंबर 2007 को बैतूल के कलेक्टर कार्यालय में आत्महत्या कर ली। |
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इस बार भी पुलिस थाने में उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। न्याय पाने और अपराधी को सजा दिलवाने के लिए यह महिला पंच तीन वर्षों तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाती रही। कलेक्टर, एसपी और मुख्यमंत्री को कई पत्र लिखे। जब कहीं भी सुनवाई नहीं हुई तो उसने 20 नवंबर 2007 को बैतूल के कलेक्टर कार्यालय में आत्महत्या कर ली। यह घटना हमारे सामाजिक ढाँचे, कानून व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र पर कई सवाल खड़े करती है। साथ ही यह पंचायत और विकास में महिलाओं की भागीदारी के संघर्ष को उजागर करती है। पंचायतों में महिलाओं के एक-तिहाई आरक्षण को मध्यप्रदेश सरकार ने बढ़ाकर पचास प्रतिशत तो कर दिया, लेकिन महिला जनप्रतिनिधियों को समाज में व्याप्त बाधाओं से जूझने के लिए कोई सहयोगी तंत्र मौजूद नहीं है।उत्पीड़न की शिकार महिला की एफआईआर तक दर्ज न होना इस बात का सबूत है कि कानून व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी संभालने वालाप्रशासन भी महिला जनप्रतिनिधियों के प्रति संवेदनशील नहीं है। यही कारण है कि महिला पंचायत प्रतिनिधियों के उत्पीड़न की अकेले बैतूल जिले में यह तीसरी घटना है।इससे पहले पंचायत सचिव की मनमानी से त्रस्त सरपंच सुखियाबाई को भी आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा औरउसके बाद पंचायत में अपनी बात रखने के एवज में एक गाँव के दबंग लोगों ने एक महिला पंच को निर्वस्त्र घुमाया था। यह देखा गया है कि कई महिला पंचायत प्रतिनिधियों के अधिकारों का उपयोग उनके परिवार के पुरुषों द्वारा किया जाता है। महिला पंचायत प्रतिनिधि का काम सिर्फ हस्ताक्षर करना ही रह जाता है। इस परिस्थिति में किसी महिला द्वारा जनप्रतिनिधि के तौर पर अपनी भूमिका निभाना असहज माना जाता है और उसे उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं जब महिला पंचायत प्रतिनिधियों को पंच-सरपंच की भूमिका निभाने की कीमत चुकानी पड़ी। पंचायत राज के पहले कार्यकाल में मंदसौर जिले की ग्राम पंचायत अम्बा की महिला सरपंच की उसके पति ने इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह पंचायत मीटिंग में जाकर गाँव की विकास में अपनी भागीदारी निभा रही थी। इसी तरह टीकमगढ़ जिले की ग्राम पंचायत पिपराबिलारी की दलित सरपंच गुंदियाबाई को गाँव के दंबगों ने स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रध्वज फहराने से रोक दिया था। अविश्वास प्रस्ताव को भी महिला सरपंचों के उत्पीड़न के रूप में उपयोग किया जाता है। सक्रिय महिला सरपंचों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने एवं उनकी झूठी शिकायत के कई उदाहरण हमारे सामने हैं।मध्यप्रदेश के ही देवास जिले के बागली जनपद की ग्राम पंचायत मनासा में उपसरपंच व पंचायत सचिव द्वारा विकास योजनाओं में किए जा रहे घोटाले का विरोध करने पर दलित महिला सरपंच के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया गया। इसी जिले की ग्राम पंचायत चंदवाना की सरपंच अमरावतीबाई द्वारा विकास कार्यों में अगुवाई करने पर गाँव के दबंग लोगों द्वारा अनुविभागीय अधिकारी से झूठी शिकायत की गई। जाहिर है, 73वें संविधान संशोधन के अंतर्गत पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी को न सिर्फ संवैधानिक मान्यता दी गई, बल्कि उनकी भागीदारी अनिवार्य मानी गई है। किन्तु महिलाओं को लेकर पुरुष प्रधान समाज में कई तरह की पुरातन मान्यताएँ हैं, जैसे पर्दा प्रथा, चहारदीवारी में जिंदगी बिताना, चूल्हे-चौके के काम में जुटे रहना और पुरुषों के आगे नहीं बोलना आदि।इसके चलते महिलाओं को अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। यदि हम पंचायत राज अधिनियम पर नजर डालें तो उसमें महिलाओंके लिए आरक्षण, अविश्वास प्रस्ताव, धारा 40 के अंतर्गत भ्रष्टाचार को रोकने जैसे प्रावधान तो हैं, लेकिन महिला पंचायत प्रतिनिधियों को अपना दायित्व निभाने में बाधा उत्पन्न करने वालों के लिए किसी भी तरह की कार्रवाई के प्रावधान नहीं हैं।यानी महिलाओं को आरक्षण देने वाला पंचायत राज अधिनियम महिला पंचायत प्रतिनिधियों को किसी भी तरह की विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं करता। उन्हें अपने ऊपर हिंसा होने पर फौजदारी कानून के तहत फरियाद करनी पड़ती है। यही कारण है कि पंचायत राज की स्थापना के डेढ़ दशक बाद भी महिला पंचायत प्रतिनिधियों पर हिंसा की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। पंचायत राज अधिनियम में ऐसे संशोधन की जरूरत है, जो महिलाओं को विशेष सुरक्षा प्रदान करें और उनके खिलाफ हिंसा होने पर विशेष धाराओं के तहत अपराधियों पर मुकदमा कायम किया जाए। तभी महिला पंचायत प्रतिनिधि गाँव के विकास में अपनी भूमिका बेहतर तरीके से निभा सकेंगी और बैतूल जिले जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सकेगी। (सीसीएन)