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हिजाब से झांकते हौसले का नाम : मिर्जा सलमा बेग

हिजाब से झांकते हौसले का नाम : मिर्जा सलमा बेग - Mirza Salma Beg
भारतीय रेलवे की एकमात्र महिला गेटमैन 
उम्र के 22 साल में लड़कियों की हथेलियां और कलाइयां बड़ी नाजुक और लचीली होती है। अक्सर इस उम्र में उन्हें या तो घर के कामों की शिक्षा दी जाती है या फिर बदलते जमाने के साथ वे मानसिक रूप से परिश्रम कर रही हैं। उन्हें प्राकृतिक तौर पर कमजोर मान लिया जाता है। यही वजह है कि तमाम क्षेत्रों में अपनी दक्षता साबित करने के बाद भी आज भी कुछ क्षेत्र मात्र पुरुषों के लिए ही सुरक्षित हैं।


 
रेलवे एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कठिन और दु:साध्य समझे जाने वाले तकनीकी और कड़े श्रम से जुड़े कार्य निरंतर होते हैं। इसी रेलवे में कुछ महिलाएं इस भ्रम को तोड़ने में जुटी हैं कि महिलाएं नजाकत का पर्याय हैं। उन्हीं में से एक है 22 वर्षीया मिर्जा सलमा बेग।
 

मिर्जा सलमा बेग भारतीय रेलवे में नजाकत और नफासत के शहर लखनऊ के निकट मल्हौर में गेटमैन के पद पर तैनात हैं। सलमा ने 'गेटमैन' की भूमिका को सहजता से निभाते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि वह इस जिम्मेदारी को किसी पुरुष की ही तरह बल्कि उनसे कहीं ज्यादा कुशलता से निभा सकती हैं।   
 
मिर्जा सलमा बेग 22 साल की हैं और अपनी नाजुक हथेलियों और कलाइयों से ही गैटमेन के उस काम को अंजाम दे रही है जो अब तक सिर्फ पुरुष ही करते आए हैं। वह दिन और रात की पाली में मालगाड़ियां एवं सवारी गाड़ियां पास करती हैं। सलमा अकेले ही गेट की ड्यूटी सफलतापूर्वक निर्वाह कर दूसरे कर्मचारियों के लिए मिसाल पेश कर रही हैं। 

मिर्जा सलमा बेग का मूल रूप से काम है ट्रेन के आने से पहले पटरियों पर पैदल यात्रियों की आवाजाही रोकने के लिए गेट बंद करना और ट्रेन गुजर जाने के बाद उसे खोलना। यह काम एक भारी भरकम चरखी के माध्यम से किया जाता है जो थोड़ा श्रमसाध्य है। मिर्जा जिस फूर्ति और तत्परता से इस काम को अंजाम देती है वह हर किसी को चौंका देता है। 

मानविकी विषय से स्नातक मिर्जा सलमा बेग के समक्ष अपने करियर को चुनने की वैसी आजादी नहीं थी आमतौर पर जो लड़कियों के सामने होती है। पेरेलाइज्ड मां और सुनने की शक्ति खो बैठे पिता, बहन स्कूल में....ऐसे में जो भी सामने विकल्प नजर आया उसने उसे थामने में देर ना की और अपनी जीवटता से इस कठोर फैसले को सही भी साबित किया। 
 
जब वह इस काम के लिए नियुक्त हुई तब और उसके पहले भी, सवालों का जखीरा साथ ही चला-
 
 यह लड़की यहां क्या कर रही है, 
लड़की कैसे कर पाएगी यह काम, 
यह काम लड़कियों के बस का नहीं है, 
नहीं हो पाएगा तुमसे, 
कर लेंगी इस काम को? 
एक बार सोच लो 
बेकार में आ गई तुम यहां... 
 
जनवरी 2013 में जब अपने पिता की एवज में मिर्जा ने नौकरी की तो आरंभिक दिन इतने आसान नहीं थे। मिर्जा सलमा बेग याद करती है वह पहला दिन जब अपनी जिम्मेदारियों की जटीलता को समझ कर वह थोड़ा घबराई थी पर अपने मन की दुनिया को हारना उसे मंजूर नहीं था। उसने अपने आप को मजबूत रखा, कमजोर नहीं होने दिया और तमाम उठते-उछलते सवालों का जवाब अपनी निष्ठा और कड़े परिश्रम से दिया। एक युवती और वह भी बुर्के में, लोगों की कल्पना में गेटमैन की भूमिका में इस तरह की छबि कहीं से कहीं तक नहीं आती थी। उसकी टीम में 11 पुरुष थे और वह अकेली लड़की।  
 
''सवालिया नजरों के बीच, कभी सामने और कभी पीठ पीछे से उठते यह सवाल चूभते भी थे और डराते भी थे लेकिन मैं अपनी मजबूरी भी जानती थी और मजबूती भी। मुझे अपनी बहन की पढ़ाई जारी रखनी थी, परिवार में आमदनी का कोई और जरिया नहीं है इस बात को ध्यान में रखना था और सबसे जरूरी तो यह कि क्यों नहीं कर सकती मैं यह काम? इस सवाल का जवाब खुद को देना था। मैं जानती हूं इस काम की प्रकृति पूरे वक्त चौकस और सतर्क रहने की है। मुझे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास है। घर की भी और इस काम की भी। मेरी एक गलती से किसी की जान पर आ सकती है। मैंने खुद को कभी भी शारीरिक रूप से भी कमतर नहीं लगने दिया। थकान की तुलना में मुझे मेहनत शब्द पसंद है। 
 
यह सच है कि आरंभिक तौर पर मैं इस नौकरी के लिए असहज थी और यह बहुत स्वाभाविक है। लेकिन अब मैं अपनी मेहनत से हर असहजता को जीत चुकी हूं। आज अच्छा लगता है यह सुनकर कि मैं पहली और अकेली महिला गेटमैन हूं।'' 
 
मिर्जा सलमा बेग, हिजाब से झांकते उस हौसले का नाम है जो स्त्री शक्ति की पहचान है।