टूटते परिवार, दरकते रिश्ते
श्याम नारायण रंगा 'अभिमन्यु'
एक समय था, जब लोग समूह और परिवार में रहना पसंद करते थे। जिसका जितना बड़ा परिवार होता वो उतना ही संपन्न और सौभाग्यशाली माना जाता था और जिस परिवार में मेल-मिलाप होता था और संपन्नता होती थी उसकी पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठा रहती थी। यह ऐसा समय था, जब समाज में परिवारों का बोलबाला था और समाज में संपन्नता की निशानी परिवार की प्रतिष्ठा से लगाई जाती थी। उस दौर में व्यक्ति की प्रधानता नहीं थी, बल्कि परिवारों की प्रधानता थी।परिवार के धनी लोगों की बिरादरी में विशेष इज्जत होती थी और ऐसे लोग पूरे समूह और समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। बड़े परिवार का मुखिया पूरे समाज का मुखिया बनकर सामने आता था और उसकी बात का एक विशेष वजन होता था।संयुक्त परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह, भाईचारा और अपनत्व का एक विशिष्ट माहौल रहता था। इस माहौल और संयुक्त परिवारों का फायदा परिवार के साथ पूरे समाज को मिलता था और जो पूरे समाज और राष्ट्र को एकसूत्र में बांधने का संदेश देता था।
उस दौर में संयम, बड़ों की कद्र, छोटे बड़े का कायदा, नियंत्रण इन सब बातों का प्रभाव था। ऐसे ही संयुक्त परिवारों से संयुक्त समाज का निर्माण हुआ था और पूरा मोहल्ला और गांव एक परिवार की ही तरह रहते थे।