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Written By ND

नानक उत्तम-नीच न कोई

गुरुनानकदेव
- सरदार बलदेव सिंह गिल

ND
श्री गुरुनानकदेवजी का आगमन ऐसे युग में हुआ जो इस देश के इतिहास के सबसे अँधेरे युगों में था। उनका जन्म 1469 में लाहौर से 30 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ जो अब पाकिस्तान में है। बाद में गुरुजी के सम्मान में इस स्थान का नाम ननकाना साहिब रखा गया।

उत्तरी भारत के लिए यह कुशासन और अफरा-तफरी का समय था। सामाजिक जीवन में भारी भ्रष्टाचार था। और धार्मिक क्षेत्र में द्वेष और कशमकश का दौर था। न केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में ही, बल्कि दोनों बड़े धर्मों के भिन्न-भिन्न संप्रदायों के बीच भी। धर्म काफी समय से थोथी रस्मों और रीति-रिवाजों का नाम बनकर रह गया था।

इन कारणों से भिन्न-भिन्न संप्रदायों में और भी कट्टरता और बैर-विरोध की भावना पैदा हो चुकी थी। अत्यधिक उदार मानवतावादी और मेल पैदा करने वाला दृष्टिकोण और मनुष्य मात्र के प्रति सहानुभूति, जो प्राचीनकाल से भारत की विशेषता रही थी, कहीं भी धर्म के उपदेश में या आचरण में देखने को नहीं मिलती थी।

उस वक्त समाज की हालत बहुत बदतर थी। ब्राह्मणवाद ने अपना एकाधिकार बना रखा था। उसका परिणाम यह था कि गैर-ब्राह्मण को वेद शास्त्राध्यापन से हतोत्साहित किया जाता था। निम्न जाति के लोगों को इन्हें पढ़ना बिलकुल वर्जित था। इस ऊँच-नीच का गुरुनानकदेवजी पर बहुत असर पड़ा। वे कहते हैं कि ईश्वर की निगाह में सब समान हैं।

ऊँच-नीच का विरोध करते हुए गुरुनानकदेवजी अपनी मुखवाणी 'जपुजी साहिब' में कहते हैं कि 'नानक उत्तम-नीच न कोई' जिसका भावार्थ है कि ईश्वर की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति के हर समय साथ है। यह तभी हो सकता है जब व्यक्ति ईश्वर के नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता है। तब व्यक्ति ईश्वर की निगाह में सबसे बड़ा है और उसके समान कोई नहीं। गुरुनानकदेवजी अपनी वाणी सिरी-राग में कहते हैं कि-

नीचा अंदर नीच जात, नीची हूँ अति नीच ।
नानक तिन के संगी साथ, वडियाँ सिऊ कियां रीस

समाज में समानता का नारा देने के लिए उन्होंने कहा कि ईश्वर हमारा पिता है और हम सब उसके बच्चे हैं और पिता की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। वही हमें पैदा करता है और हमारे पेट भरने के लिए खाना भेजता है। गुरुजी कहते हैं कि- 'सभनाजींआ का इकदाता' और भी इस प्रकार कहा है कि-

नानक जंत उपाइके,संभालै सभनाह ।
जिन करते करना कीआ,चिंताभिकरणी ताहर ॥

जब हम 'एक पिता एकस के हम वारिक' बन जाते हैं तो पिता की निगाह में जात-पात का सवाल ही नहीं पैदा होता।

गुरु साहिब जात-पात का विरोध करते हैं। उन्होंने समाज को बताया कि मानव जाति तो एक ही है फिर यह जाति के कारण ऊँच-नीच क्यों? गुरु नानकदेवजी ने कहा कि मनुष्य की जाति न पूछो, जब व्यक्ति ईश्वर की दरगाह में जाएगा तो वहाँ जाति नहीं पूछी जाएगी। सिर्फ कर्म देखे जाएँगे।

आगे जात न जोर है, अगैर जीओ
निवेल जनकी लेखे पति पवे चंगै सेई केया

तत्कालीन सामाजिक कुप्रभावों का विरोध गुरुजी ने सशक्त रूप से किया है। हिंदुओं और मुसलमानों को अपनी वाणी द्वारा उन्होंने झूठे कर्मकांडों को त्यागने के लिए प्रेरित किया। हिन्दुओं द्वारा मूर्ति पूजा करने को उन्होंने व्यर्थ कहा तथा एक ईश्वर की पूजा पर जोर दिया। उन्होंने कहा है कि-

'पत्थरु ले पूजहि मुगध गवार
उह जो आप डूबे, तुम कहा तारणहार'

श्री गुरुनानकदेवजी ने हिन्दुओं द्वारा आरती उतारने की भी आलोचना की। उनका कहना था कि वह परमेश्वर तो इतना बड़ा है कि उसकी आरती तो उसके द्वारा रचित कुदरत द्वारा ही हो सकती है और कुदरत अपनी गगन रूपी थाली में तारों को मोती बनाकर ईश्वर की आरती द्वारा आराधना कर रही है।

गगन मैं थालु, रवि चन्दु दीपक बने,
तारिका मंडल जनक मोती...

इसी प्रकार गुरु नानकदेवजी ने पित्तर-पूजा, तंत्र-मंत्र और छुआ-छूत की भी आलोचना की। गुरुजी को जब जनेऊ पहनाने की रसम अदा होने लगी तो गुरुजी ने पंडित से वह जनेऊ पहनने से इंकार कर दिया और उसे कहा कि मुझे दया, संतोष आदि द्वारा बनाया गया जनेऊ पहनाया जाए।

दइया कपाह संतोखु सूतु जतु गंढी सतु वटु
एहु जनेऊजी अकाहईत पांडे धनु

इसी प्रकार इस्लाम धर्म के अनुयायाई भी पैगंबर द्वारा बनाए गए उसूलों पर नहीं चल रहे थे और थोथी रस्म-रिवाजों के कारण लकीर के फकीर बन चुके थे। मुल्ला लोगों की हठधर्मी अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। वे पवित्र कुरान और इंसानियत के कानून से परे और शरीयत की अवहेलना कर रहे थे।

उस समय मुल्ला लोग शासकों को गलत काम से रोकने की बजाए उनकी हाँ में हाँ मिला रहे थे।

गुरुजी ने असली मुसलमान की पहचान के लिए अपनी वाणी में कहा कि-

मिहर मसित, सिदक कर मुसला
हकु हलाल कुरान
सरस सुनति, सील रोजा,
उहो मुसलमान।

और भी इसी प्रकार कहा कि-

रब की रजाई मने सिर उपर,
करता मने आप गवावे
तऊ नानक सरब जीआ मिहर
मत होई त मुसलमाणा कहाव

सूफी मत द्वारा बताए गए संन्यास मार्ग का श्री गुरु नानकदेवजी ने विरोध किया। गुरुजी जब शेख ब्रह्म से मिले तो शेख ब्रह्म ने गुरुजी का हृष्ट-पुष्ट शरीर देखकर कहा कि तंदुरुस्त शरीर के मोह में आकर मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है, लेकिन गुरुजी ने उत्तर दिया कि मनुष्य को तंदुरुस्त रहकर मानव जाति की सेवा करनी चाहिए और तंदुरुस्त शरीर ही अच्छे मन को जन्म देता है जिसके द्वारा ईश्वर को बार-बार याद किया जा सकता है।

मानव जाति की सेवा ही उस प्रभु की नजर में अच्छी किरत है और उन्हीं को उसकी दरगाह में शरण मिलेगी।

विच दुनियां सेव कमाईये ता दरगाह बैसण पाईये

इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु साहिब हिंदू और मुसलमानों में एक सेतु के समान हैं। हिंदू उन्हें गुरु एवं मुसलमान पीर के रूप में मानते हैं।

उन्होंने हमेशा ऊँच-नीच और जाति-पाति का विरोध किया और सबको समान समझकर 'गुरु का लंगर' (संगत-पंगत) शुरू किया जो एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करने की प्रथा है। श्री गुरुनानकदेवजी एक रहस्यवादी संत, कवि और समाज सुधारक थे।