निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 9 जुलाई के 68वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 68 ) में श्रीकृष्ण राजा मुचुकंद की कथा सुनाते हैं कि सुनो! एक समय जब देवासुर संग्राम में देवता हार रहे थे तो देवराज इंद्र ने देखा की इस समय धरती पर इक्ष्वाकु वंश के एक राजा थे। महाराज मुचुकंद वो परमप्रतापी और परम शूरवीर थे जिससे वो इस धरती पर चक्रवर्ती सम्राट हो गए थे। जब इंद्र ने उनसे सहायता मांग तो महाराज मुचुकुंद ने देवताओं की ओर से युद्ध में भाग लिया।
महाराज मुचुकंद ने इस संग्राम में असुरों के साथ घोर संग्राम किया। असुर सेना देवताओं का मुकाबला तो कर सकती थे लेकिन परम शूरवीर महाराज मुचुकुंद का मुबाबला नहीं कर सकी और अंतत: वो पराजित होकर भाग गए। देवता महाराज मुचुकुंद से बड़े प्रसन्न हो गए थे और देवराज इंद्र ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और कहा कि आपके कारण हमारी विजयी हुई है इसलिए मेरी प्रार्थना है कि धरती पर आपकी जो मनोकामना अधूरी रह गई थी। जिन ऐश्वर्यों को आपने हमारे लिए त्याग दिया था। वो सब हम आपको फिर से प्रदान करें।
यह सुनकर मुचुकुंद कहते हैं कि यह सब आपको प्रदान करने की आवश्यकता नहीं देवराज इंद्र, क्योंकि मेरे पिता और मेरे पूर्वजों के आशीर्वाद से धरती पर मेरे पास सबकुछ है। वहां सबकुछ सुख और भोग इतना है कि कुछ और पाने की इच्छा ही नहीं रहती। इसलिए यदि आप मुझे केवल धरती पर जाने की आज्ञा देंगे तो आपकी बड़ी कृपा होगी। मैं आपकी जिस सेवा के लिए यहां आया था मेरा वह कर्तव्य पूरा हो गया। अब आपको मेरी आवश्यकता नहीं और वैसे भी भगवान कार्तिकेय ने आपका सेनापति होना स्वीकार कर लिया है इसलिए भी आपका भविष्य सुरक्षित हो गया है। इसलिए अब मैं वापस अपने लोक जाने की आज्ञा मांगता हूं। जहां मेरी प्रजा, मेरे पुत्र और मेरी रानियां मेरे आने का रास्त देख रहे होंगे।
यह सुनकर देवराज इंद्र उदास हो जाते हैं क्योंकि मुचकंद उनकी बात समझ नहीं पाते हैं। तब इंद्र कहते हैं कि हम आपको यह आज्ञा नहीं दे सकते महाराज। यह सुनकर मुचुकुंद क्रोध में पूछते हैं नहीं दे सकते हैं...क्यों नहीं दे सकते? क्या मेरी सेवा में कोई कमी रह गई देवराज? यह सुनकर देवराज इंद्र कहते हैं- नहीं...नहीं हम आपकी सेवा से अति प्रसन्न है मुचुकंद परंतु...इस पर मुचुकुंद कहते हैं परंतु क्या देवराज? देवराज चुप रहते हैं तो मुचुकुंद चीखकर पूछते हैं परंतु क्या देवराज?
तब देवराज इंद्र खड़े होकर उनके पास आकर कहते हैं- महाराज मुचुकुंद वहां धरती पर इस समय आपका कोई नहीं रहा।.. यह सुनकर मुचुकुंद चौंककर पूछते हैं वहां मेरा कोई नहीं रहा ये क्या कह रहे हैं आप? क्या किसी शत्रु ने मेरे राज्य को बर्बाद कर दिया है? इस पर इंद्र कहते हैं- नहीं सम्राट मुचुकुंद ऐसा कुछ नहीं हुआ। केवल काल की गति से ऐसा हुआ है।....यह सुनकर मुचुकुंद कहते हैं काल की गति! मैं कुछ समझा नहीं देवराज। तब देवराज कहते हैं- आपके मृत्युलोक में और हमारे स्वर्गलोक में समय की गति अलग-अलग होती है। धरती पर समय की चाल बड़ी तेज होती है। इसलिए जब तक आप हमारे पास एकवर्ष तक रहे हैं इतने में धरती पर जैसे एक युग बित गया है। इतना समय बित गया है कि अब वहां न आपके पुत्र रहे हैं, न महारानियां और न प्रजा।
यह सुनकर मुचुकंद को बहुत आघात पहुंचता है।...यहां तक कि आपके इक्ष्वाकु वंश का नाम लेने वाला भी उस धरती पर अब कोई नहीं रहा। यह सुनकर मुचकुंद रोते हुए कहते हैं ऐसा कैसे हो गया देवराज। तब देवराज कहते हैं ये काल की गति है महाराज। यहां केवल भगवान ही अविनाशी है। बाकी जो भी पैदा होता है उसका नाश अवश्य होता है। यहां तक कि हम देवता लोग भी नाशवान है। अपने अपने समय पर काल भगवान हम सबको अपना ग्रास बना लेंगे। मैं भी मर जाऊंगा तो मेरी जगह दूसरा इंद्र आ जाएगा। इसलिए हमारी आपसे प्रार्थना है कि जो नहीं रहे उनकी चिंता छोड़िये और जिस भोग और जिस ऐश्वर्य की इच्छा आपके मन में बाकी रह गई है वो आप हमसे मांग लीजिये। हम आपकी इच्छानुसार आपको वर देना चाहते हैं। मोक्ष को छोड़कर बाकी हम सबकुछ दे सकते हैं मांगिये।
यह सुनकर मुचुकुंद कहते हैं- हे देवताओं के राजा जब अपना कोई नहीं रहा तो भोग और ऐश्वर्य का आनंद अकेले कैसे लूंगा, किसके लिए मांगू? आपकी बातें सुनकर अब इन सबकी इच्छा ही नहीं रही और मोक्ष आप दे नहीं सकते। इसलिए मांगने को तो कुछ रहा ही नहीं। यह सुनकर इंद्र कहते हैं कि देवताओं को आपने ऋणि बना दिया है इसलिए हमारी मर्यादा रखने के लिए ही जो चाहे वर मांग लीजिये।... यह सुनकर मुचुकुंद कहते हैं कि इस समय मुझे एक ही बात का आभास है कि मैं बहुत थक गया हूं। युद्ध करते-करते यह शरीर बहुत थक गया है इसलिए मैं अब सोना चाहता हूं। जी-भरकर सोना चाहता हूं। इसलिए मुझे ऐसा वर दीजिये कि जब मैं सोऊं तो मेरी नींद्रा में कोई बाधा न डाले, बस यही वर दीजिये।
यह सुनकर देवराज इंद्र कहते हैं तथास्तु! ऐसा ही होगा। आप किसी भी गुप्त स्थान पर जाकर सो जाइये। मेरा वरदान है कि जो भी प्राणी आपको नींद में सोते से जगाएगा उस पर आपकी दृष्टि पड़ते ही वो उसी क्षण भस्म हो जाएगा..तथास्तु।
यह कथा सुनाकर श्रीकृष्ण कहते हैं- बस, ये है महाराज मुचुकुंद जो उसे (कालयवन को) बिना युद्ध के ही मार सकते हैं। अब मेरा इतना ही काम है कि मैं कालयवन को किसी भी तरह उनकी गुफा की ओर ले जाऊं। सो उसके लिए मैंने जो योजना बनाई है वह तभी सफल हो सकती है कि जब तुम लोग मुझे उसके पास अकेले और निहत्था जाने दो।
बलरामजी कहते हैं अकेला और निहत्था? श्रीकृष्ण कहते हैं हां निहत्था। वैसे भी हमारे प्रभु भगवान शंकर ने जो वरदान उसे दे रखा है उसके कारण तो किसी अस्त्र-शस्त्र का कोई उपयोग ही नहीं रहता। अब उसे मथुरा पहुंच जान दीजिये फिर देखिये क्या होता है।
काल यवन की सेना को ऊंट और घोड़ों पर सवार होकर मथुरा की ओर बढ़ते हुए बताया जाता है। उधर, जरासंध के युद्ध पड़ाव पर शिविर में आकर सेनापति पूछता है कि आज सेना के लिए क्या आज्ञा है आज कूच होगा या यहीं पड़ाव रहेगा महाराज? यह सुनकर जरासंध कहता है कि इसका उत्तर महाराज शल्य देंगे। तब शल्य कहता है कि अभी हमारी सेना का पड़ाव यहीं रहेगा क्योंकि जब तक यह समाचार नहीं मिल जाता कि कालयवन मथुरा के निकट पहुंच गया है तब तक हमारे आगे बढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। मेरे दूत उसकी सेना के साथ-साथ आ रहे हैं जब वे उचित समझेंगे तब वे तत्कार सूचना भेज देंगे। तब तक हमारा पड़ाव यहीं रहेगा। सेनापति आज्ञा लेकर चला जाता है।
फिर जरासंध शल्य से कहता है कि आपने कालयवन जैसे पराक्रमी योद्धा को मथुरा पर आक्रमण करने के लिए तैयार कर लिया इसके लिए हम अति प्रसन्न हैं। वो कालयवन जिसके सामने कृष्ण का सुदर्शन चक्र भी कुछ नहीं कर सकेगा। महाराज शल्य कालयवन से कहना कि जब वह कृष्ण और बलराम को परास्त कर लें तब उनका वध ना करें। उन्हें बांधकर हमारे सामने लाया जाए। हम अपने हाथों उन दोनों का सर काटना चाहते हैं। तभी..तभी हमारी प्रतिशोध की ज्वाला शांत होगी।
उधर, मथुरा के बंद द्वार के ऊपर अक्रूरजी को कुछ सैनिकों के साथ दिखाया जाता है। वे दूर तक देखते हैं कहीं भी कोई सेना नजर नहीं आती है। फिर उन्हें एक घुड़सवार आता हुआ दिखाई देता है। उसे देखकर अक्रूरजी कहते हैं प्रहरी नगरकोट के द्वार खोल दो हमारा अपना दूत आया है। फिर अक्रूरजी नीचे उतरकर उस दूत से मिलते हैं तो वह कहता है कि कालयवन की सेना बहुत निकट आ चुकी है। मेरा अनुमान है कि कल सूर्योदय से पहले ही वह मथुरा को घेर लेंगे। यह सूचना लेकर अक्रूरजी श्रीकृष्ण के पास जाकर उन्हें बताते हैं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं अच्छी बात है आने दो। फिर अक्रूरजी कहते हैं भगवन! आपने सेना के लिए कोई आज्ञा नहीं दी? सारे सैनिक शस्त्र बद्ध होकर तैयार है। केवल आपने आदेश की प्रतीक्षा है कि उन्हें क्या करना होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं देखिये अक्रूरजी इस बात का निर्णय पहले ही हो चुका है कि कालयवन से युद्ध करने हम अकेले जाएंगे, इसलिए सेना को युद्ध की आज्ञा नहीं दी जाएगी। हां, उन्हें नगर की सुरक्षा का काम सौंपें। नगर में स्थान-स्थान पर सैनिक टूकड़ियां खड़ी रहें जिससे शत्रु की सेना को देखकर नगरवासी चिंतित ना हों। उन्हें ऐसा लगना चाहिए कि उनकी सुरक्षा के लिए सेना मौजूद हैं। बस आप रात में इतना ही कीजिये और प्रात: सूर्योदय की प्रतीक्षा कीजिये तब जो होगा देखा जाएगा।
प्रात:काल में कालयवन और उसकी सेना मथुरा के नगर द्वार पर पहुंच जाती है। कालयवन मथुरा के द्वार और नगरकोट को देखकर प्रसन्न हो जाता है। फिर वह अपने सेनापति से कहता है सेनापति मथुरा नरेश के नाम संदेशा भेजो कि मलेच्छ नरेश कालयवन आपसे युद्ध की इच्छा से मथुरा के द्वार पर खड़ा है। हमें पूरी उम्मीद है कि आप अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार हमारे साथ युद्ध करके हमें आनंद प्रदान करेंगे। इसकी तैयारी के लिए हम आपको एक दिन की मौहलत देते हैं। कल सुबह तक आपने बाहर आकर हमसे युद्ध नहीं किया तो हम मान लेंगे कि आपने कायरों की भांति लड़े बगैर ही हार मान ली है। तब हमारी सेना नगर द्वार को तोड़कर नगर द्वार में प्रवेश करेगी। ताकि आपको बंदी बनाकर हमारे सामने पेश किया जाए।
यह संदेश सुनकर बलराम क्रोधित होकर कहते हैं उसकी ये धृष्टता। लेकिन श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं आगे क्या लिखा है। तब अक्रूरजी पढ़कर सुनाते हैं कि यदि उस समय हमारे सैनिकों को किसी ने भी रोकने की कोशिश की तो हमारे सैनिक सारे नगर को उजाड़ देंगे। चारों तरफ खून की नदियां बहने लगेगी। जिसमें समस्त नगरवासियों की लाशें तैर रही होंगी। इस प्रकार मथुरा के बेगुनाह शहरियों को मरवाने से कोई लाभ नहीं होगा और ना हमें ये अच्छा लगेगा। इसलिए आपको हमारा यही मशविरा है कि या तो वीरों की भांति नगर के बाहर आकर हमारे साथ युद्ध करिये या स्वयं नगर के बाहर आकर अपने आपको हमारे हवाले कर दीजिये। हम बाकी लोगों को माफ कर देंगे, अब फैसला आपके हाथ है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप भी इसका उत्तर भेजिये। तब अक्रूरजी कहते हैं क्या लिखूं प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम आपकी वीरतापूर्ण बातों से अति प्रभावित हुए। आपने युद्ध के लिए जो सुझाव दिये हैं ऐसी बात आप जैसे वीर पुरुष ही सोच सकता हैं। इसलिए हम आपके इस वीर स्वभाव की प्रशंसा करते हैं। हमें आपकी युद्ध की चुनौति स्वीकार है। परंतु उसमें हमारा भी एक सुझाव है कि जब मुकाबला कालयवन और कृष्ण के बीच है तो इसमें हमारी और आपकी सेनाओं का क्या काम है? दोनों ओर की सेनाएं तो निर्दोष हैं। टक्कर तो आपकी और मेरी है फिर उन बेगुनाह सैनिकों को क्यूं लड़ाया जाए। लाखों बेगुनाह सैनिक व्यर्थ ही मारे जाएं जबकि उनका कोई दोष नहीं है। सो बेहतर तो यही है कि केवल आप और मैं आपस में लड़कर ही फैसला कर लें। कालयवन और कृष्ण केवल दो प्रतिद्वंदी। केवल दो प्रतिद्वंदी अकेले ही युद्ध करेंगे। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि यदि आप मेरे साथ युद्ध में हार गए अथवा मारे गए तो भी हम आपकी सेना को कुछ नहीं कहेंगे। हम आपके सैनिकों को क्षमा करके उन्हें वापस अपने देश लौट जाने की अनुमति प्रदान करेंगे।
यह पत्र पढ़कर कालयवन कहता है वाह! इसको कहते हैं वीर पुरुष। ये कृष्ण तो सचमुच परमवीर है। नारद ने ठीक ही कहा था कि इस धरती पर मेरे साथ युद्ध करने की क्षमता केवल एक ही पुरुष में होगी जिसका नाम कृष्ण होगा। अवश्य यह वही कृष्ण है। उस वीर पुरुष को उत्तर लिखो कि हमें उसका प्रस्ताव पूर्णत: स्वीकार है। कालयवन और कृष्ण के आपसी युद्ध से ही केवल दो देशों की हार और जीत का फैसला हो जाएगा। कल प्रात: मथुरा के नगर द्वार के बाहर हम अकेले कृष्ण की प्रतीक्षा करेंगे और ये भी वचन देते हैं कि वो जो भी अस्त्र साथ लाएगा हम भी केवल उसी अस्त्र के साथ उससे युद्ध करेंगे...जाओ।
प्रात: युद्ध का बिगुल बज जाता है। कालयवन अपनी सेना के साथ मथुरा के द्वार पर खड़ा रहता है। मथुरा के द्वार खोल कर श्रीकृष्ण अकेले बाहर निकल जाते हैं और द्वार पुन: बंद कर दिए जाते हैं। द्वार के बाहर श्रीकृष्ण अकेले और निहत्थे खड़े होकर देखते हैं कि जरासंध अपनी सेना के साथ रथ पर सवार है।
फिर वह पैदल चलकर कालयवन के पास कुछ दूर पर पहुंचते हैं। कालयवन रथ पर बैठा रहता है तो खड़ा हो जाता है। कालयवन और उसका सेनापित श्रीकृष्ण को देखकर हंसते हैं। तब कालयवन कहता है ये देखकर अच्छा लगा की तुम अपनी बात के धनी हो, वादे के पक्के हो, ये वीरता की निशानी है। ये जानते हुए भी जो कालयवन से युद्ध करेगा वह अवश्य मारा जाएगा क्योंकि कालयवन को तो कोई मार ही नहीं सकता। यह सबकुछ जानते हुए भी तुम अपना वचन निभाने यदि तुम युद्ध करने अकेले आ गए हो तो इसके लिए तुम्हें युद्ध में मारने से पहले मैं तुम्हारी इस वीरता के लिए तुम्हें प्रणाम करता हूं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम तुम्हारे प्रणाम को स्वीकार करते हैं। तुम्हारे वीरोचित भावों की प्रशंसा भी करते हैं और तुम्हारे अज्ञान पर हमें हंसी भी आती है। यह सुनकर कालयवन क्रोधित हो कहता है तुम मुझे अज्ञानी समझते हो? तब कृष्ण कहते हैं अवश्य, अज्ञानी तो तुम हो। यह सुनकर कालयवन कहता है नादान युवक। मैंने माना की तुम बड़े वीर हो परंतु उससे भी बड़े मूर्ख हो मूर्ख। तुम्हें राजाओं से बात करने की तमीज नहीं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं महाराज कालयवन सत्य और मूर्खता ये दो अलग-अलग बाते हैं। हमने तो सत्य कहा और यदि आपने उसे मूर्खता समझ लिया तो इसमें हमारा क्या दोष है। हमारा तो कहने का केवल ये अर्थ है कि आपको केवल ये वरदान मिला हुआ है कि आपको किसी भी अस्त्र या शस्त्र से मारा नहीं जा सकता। परंतु आपने तो उस वरदान का ये अर्थ समझ लिया कि आप कभी मरोगे ही नहीं। ऐसा वरदान तो कोई देवता भी नहीं दे सकता, क्योंकि जो पैदा होगा वह मरेगा अवश्य। यही प्रकृति का नियम है। यह अलग बात है कि वह मरेगा कैसे। क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक आदमी को युद्ध में किसी शस्त्र से ही मारा जाए। अरे अज्ञानी राजा मौत के आने के तो कई और भी तरीके हैं। इस वक्त तुम हमें मारने की बात सोच रहे हो परंतु ये भी तो हो सकता है कि इस समय तुम्हारी मौत तुम्हारे पास ही खड़ी हो।
तब यह सुनकर हंसते हुए कालयवन कहता है- देखो कृष्ण तुम युद्ध करने आये हो या शास्त्रार्थ और यदि तुम ये समझते हो कि ऐसी उल्टी-सीधी बातें बनाकर तुम अपनी मृत्यु के आने को थोड़ी देर टाल रहे हो तो ये तुम्हारी भूल है। इसलिए ये बताओ की तुम लड़ने के लिए कौनसा हथियार साथ लाए हो? हम भी केवल उसी अस्त्र के साथ युद्ध करेंगे।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमने कहा था कि युद्ध केवल कालयवन और कृष्ण के बीच होगा तो फिर इसमें हथियारों की क्या आवश्यकता है?... यह सुनकर कालयवन कहता है- हा ये हुई ना मर्दों वाली बात। तुम्हारे पास न रथ है और न कोई सवारी। इसलिए हम भी रथ छोड़कर पैदल ही तुम्हारे साथ धरती पर लड़ेंगे। ये लो सब हथियार भी यहीं रख दिये। ऐसा कहकर कालयवन रथ से नीचे उतर जाता है। कृष्ण के पास पहुंचकर कहता है अबतो बराबर की बाजी है ना?
तब श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं और फिर कहते हैं- नहीं महाराज कालयवन ये बाजी अभी बराबर की नहीं।...कालयवन पूछता है क्या मतलब? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं देखिये हम इस मैदान में अकेले खड़े हैं। हमारे पीछे सहायता के लिए कोई सेना नहीं है। उधर आप अपने हथियार छोड़कर रथ से उतर तो आएं हैं परंतु आपकी सेना ने दूर से हमें घेर रखा है जो कभी भी आक्रमण कर सकती है। इसलिए आपको यदि अपने ऊपर कोई विश्वास है तो जिस प्रकार हम अपनी सेना को छोड़कर अकेले आए हैं उसी प्रकार आप भी अपनी सेना को छोड़कर बहुत दूर हमारे साथ अकेले किसी ऐसे स्थान पर चलिये जहां पर कोई दूसरा न तो आपकी सहायता के लिए आ सके और न हमारी सहायता के लिए आ सके।
यह सुनकर कालयवन कहता है मंजूर। हमें ये बात भी मंजूर है। यह कहकर वह पीछे पलटता है और सेनानायक को कहता है- सेना नायक हमारी आज्ञा है कि हम दोनों जहां जा रहे हैं वहां कोई हमारे पीछे न आए। तुम अपनी सेना के साथ यहीं खड़े हमारा इंतजार करो। सेना नायक कहता है जी।... और नगर को अपने घेरे में रखो ताकि नगर से भी कोई बाहर न निकल सके। हमारी ये आज्ञा जाकर सारी सेना को सुना तो। यह सुनकर सेनानायक कहता है जो हुकुम।
फिर वह श्रीकृष्ण से पूछता है चलो कहां चलना है चलो? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वहां तक जहां हम दोनों को कोई देख ना सके.. चलो। फिर श्रीकृष्ण उसको इशारे से उस ओर ले जाते हैं जहां वे ले जाना चाहते हैं। दोनों चले जाते हैं तब सेनानायक अपनी सेना से कहता है कि महाराज की आज्ञा है कि जब तक वो कृष्ण के साथ युद्ध करने नहीं लौट आते तुम सब यहीं खड़े रहोगे और नगर को चारों ओर से घेर लिया जाए ताकि नगर से कोई भी बाहर न जाने पाए। यह दृश्य अक्रूरजी नगर के द्वार के ऊपर खड़े होकर देख रहे होते हैं। जय श्रीकृष्णा ।